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Opinions - Social - State - June 10, 2018

काला’ मस्टवॉच फिल्म है- मगर किसके लिए?

रिव्यू। एक तरफ NDTV इंग्लिश के फिल्म समीक्षक राजा सेन काला फिल्म को बकवास कहते हुए 1.5 रेटिंग देते है। वहीं दूसरी तरफ एनडीटीवी हिंदी के फिल्म समीक्षक नरेंद्र सैनी फिल्म को 3.5 की अच्छी रेटिंग देते है। इस दोनों रेटिंग के बीच याद आया कि भारतीय सिनेमा के इतिहास में काला मुख्य धारा की पहली फ़िल्म है, जिसमें जय भीम के नारो की गूंज सुनाई देती हैं। गौरतलब यह भी है कि यहां बहुजन प्रतीकों की भाषा (Language of Symbols) का भरपूर उपयोग है।

जो काम रजनीकांतके डायलाग नहीं करते वह काम पोस्टर, प्रतिमाएं, तस्वीरें, किताबें एवं विहार करते है। पहली हमें पर्दे पर नायक नहीं ‘मुकनायक’ देखने को मिलता है। यह फ़िल्म ‘काला’ जो धर्मग्रंथ, साहित्य, सिनेमा, राजनीति सब पर भारी है अब समज में आ रहा है न कि सेन और सैनी के दृष्टिबिन्दु में क्यों फर्क है?

वर्तमान समय बहुजनों पे दमन चक्र कहर बरसा रहा है उना, शब्बीरपुर (सहारनपुर), सापर (राजकोट), लेकर कोरेगांव तक की कराहती चीखें पूरे भारत की आवाज़ हो जा रही है। तब साहित्य और सिनेमा की ज़िम्मेदारी है कि वह वक़्त की आवाज़ को दर्ज करे। ताज्जुब इस बात का है कि पिछले दिनों ढेर सारी फ़िल्मों का फ़न कुचलने की कोशिश करने वाले यथास्थितिवादी सेंसर बोर्ड ने इसे रोकने की कोशिश क्यों नहीं की?

कुछ भी हो समाज की मुख्यधारा में फुले, अम्बेडकरी विचारधारा आधारित विमर्श अपनी जड़े गाड़ चुका है तब एक दबाव सा बन रहा है। शायद यही दबाव सेंसरबोर्ड को इस फ़िल्म का फ़न कुचलने से रोक रहा है। और इसके लिए गर मैं बामसेफ, बसपा या द्रविड़ियन मूवमेंट को थोड़ा बहोत श्रेय दे भी दूं तो कुछ भी गलत नहीं होगा।

भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे अलग फिल्म है, राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने और सदैव एक महानायक या Super Hero की चाह रखने वाले समाज में कहानियों की अपनी भूमिका होती है। ऐसे में हर समाज को अपनी नयी कहानियाँ गढ़नी चाहिए। इन कहानियों में हमारा आज होना चाहिए।

आज फिल्मों में बहुजन विमर्श के प्रश्न गौण हैं, जबकि समाज में बहुजन प्रश्न मुखर होके सामने खडा हैं ओर उसका विरोध भी इसी कारण से हो रहा है। पहले की फिल्मों में 60 – 70 के दशक की फिल्में व साहित्यिक कृतियों मे अछूत आदिवासी, पिछडों को एक लाचार बेबस दिखाया जाता था। लेकिन आज वह ब्राह्मणवाद से लड़ता हुआ दिखाई देता है जो देश की राजनीति के केंद्र में भी जल्द ही दिखाई देगा। लेकिन हम फिलहाल विमर्श का यह पक्ष जो कि कला के माध्यम से समाज को दर्पण दिखा रहा है वह लाजवाब है। जिसके लिए पा रंजीत को सलाम!!

 

By: Dr. Jayant Chandrapal

(सामाजिक चिंतक, एवं समीक्षक, गुजरात)

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