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Hindi - Language - Opinions - February 13, 2022

हिजाब विवाद, मुद्दा एक नज़रिए अनेक

सामाजिक पहचान, जातिगत हो या धार्मिक, उसका निर्माण सामाजिक प्रक्रिया से ही होता है। सामाजिक पहचान के निर्माण की प्रक्रिया में बहुत सारे ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनैतिक फैक्टर शामिल होते हैं। किसी भी सामाजिक पहचान को मज़बूत होने के लिए समाज के ही कुछ हिस्सों को अपने अंदर से निकाल कर बुनियाद बनानी होती है जिसपे वो खड़ी हो सके। इसका मतलब है कि किसी भी सामाजिक पहचान का वजूद में आना तभी संभव हो पाता है जब कोई और पहचान उसके बाहर लेकिन उसके साथ साथ तैयार हो जिसपे वो अपने पैरों को मज़बूती से रख सके। इसलिए हर सामाजिक पहचान के बरअक्स कोई और पहचान भी ज़रूर बनती है। एक तरह से दोनों पहचाने एक दूसरे के कंधे पे टिकी रहती हैं। इसलिए अगर एक पहचान ज़रा सा हिल जाय तो दूसरी पहचान भी झटके खाने लगती है। एक पहचान के वजूद का ख़तम होना दूसरी पहचान की मौत का एलान जैसा होता है। इसीलिए हर पहचान कुछ प्रतीकों के ज़रिये एक वैचारिक वर्चस्व स्थापित करती है। चुनावी लोकतंत्र के मैदान में जीत-हार का फैसला अक्सर सामाजिक समूहों के संख्या बल पर होता है। इसलिए लोकतंत्र की छत्र छाया में सामाजिक पहचान के निर्माण और निरंतरता की प्रक्रिया सत्ता, शक्ति और संसाधनों पे नियंत्रण के संघर्ष से जुडी रहती है। इस नियंत्रण को हासिल करने के लिए छोटे-छोटे समूह हमेशा एक बड़ी सामाजिक पहचान बनाने और बचाने में लगे रहते हैं।

भारत में भी हिन्दू और मुस्लिम पहचान के बनने और लगातार चुनावी राजनीति के केंद्र में बने रहने की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। अंग्रेज़ों के शासन काल में जैसे जैसे सत्ता में हिस्सेदारी के लिए संख्या बल महत्वपूर्ण होने लगा वैसे वैसे उच्च जाति के वर्ग, हिन्दू और मुस्लिम पहचान के ठेकेदार बनने लगे। इस सन्दर्भ में जहाँ एक ओर सनातन धर्म के प्रतीकों को लेकर ब्राह्मण-सवर्ण हिन्दू पहचान को प्रोत्साहित करने लगे वहीं दूसरी ओर सय्यद-अशराफ इस्लामिक प्रतीकों को लेकर मुस्लिम पहचान के अलमबरदार बन गए। इन प्रतीकों में खान-पान से लेकर, भाषा बोली, नियम कानून, कपड़े लत्ते, मंदिर मस्जिद, नारे ताने सबका खूब इस्तेमाल किया गया। अँगरेज़ शासकों ने इस प्रक्रिया में शासक होने के नाते बहुत अहम् भूमिका निभाई। नतीजा ये हुआ की हिन्दू और मुस्लिम पहचान की राजनीति एक दूसरे के कन्धों पे मज़बूती से टिक गयी। ये राजनीति ब्राह्मण-सवर्ण और सय्यद-अशराफ वर्ग के हितों की भरपूर रक्षा करने लगी। इस राजनीति में दलित, पिछड़े, आदिवासी, अजलाफ, अरजाल और महिलाओं के हितों का दमन निहित है। संख्या बल के हिसाब से ये ब्राह्मण-सवर्ण और सय्यद-अशराफ भारत की पूरी आबादी का 15 % भी नहीं ठहरते लेकिन साधन संसाधनों पर इनका कब्ज़ा 85-90 % तक पहुँच जाता है।  

हिन्दू और मुस्लिम पहचान के प्रतीकों को लेकर खूनी संघर्ष इसी कब्ज़े को बनाय रखने की रणनीति का हिस्सा है। इन पहचानो को कुदरती जामा पहनाने के लिए इनके प्रतीकों को हिन्दुत्व और इस्लामवाद की चाशनी में डुबो कर अल्लाहु अकबर और जय श्री राम के नारो से हथियारबंद किया जाता रहा है। इन हथियारों की धमक से पसमांदा बहुजन समाज की लोकतांर्तिक आवाज़ें दबाई जाती रही हैं। धार्मिक पहचान की इस राजनीति का सबसे भयानक परिणाम बंटवारे और उसकी हिंसा के रूप में सामने आया। उसके बाद से सय्यद-अशराफ की संख्या और नैतिक बल में ज़रूर कमी आयी लेकिन हिन्दू-मुस्लिम पहचान की राजनीति को अपने कन्धों पे टिकाने की उनकी हैसियत जस की तस बनी रही। इसीलिए बंटवारे और संविधान के लागू होने के बावजूद भी हिन्दू और मुस्लिम पहचान की राजनीति बदस्तूर जारी रही।

जब दलित, पिछड़े, आदिवासी बहुजन बनाम सवर्ण पहचान को स्थापित कर के साधन-संसाधनों में अपनी हिस्सेदारी की तरफ बढ़ने लगते हैं तब सवर्ण-अशराफ हिन्दू-मुस्लिम राजनीति की आंच तेज़ करने लगते हैं। मानयवर कांशीराम के बहुजन आंदोलन और मंडल कमीशन की हवा चलते ही एक तरफ जहाँ सय्यद-अशराफ शाहबानो आंदोलन करने लगे वहीं दूसरी तरफ ब्राह्मण-सवर्ण मस्जिद गिरा कर मंदिर बनाने का आंदोलन करने लगे। इसका नतीजा ये हुआ कि ब्राह्मण-सवर्ण सत्ता संस्थानों पर अपना एक छत्र नियंत्रण स्थापित करने में कामयाब हो गए। ब्राह्मण-सवर्णो के पास सत्ता पर अपने कब्ज़े को बनाय रखने का इससे आसान तरीका और क्या हो सकता है की वो मुस्लिम पहचान के खोखले प्रतीकों को एक-एक कर के छेड़ते रहें और अशराफ-सवर्ण सारे सत्ता के मुद्दों को हिन्दू-मुस्लिम पहचान की राजनीति से दबा दें। इस काम में लेफ्ट-लिबरल से लेकर तकरीबन हर वैचारिकी के सवर्ण-अशराफ शामिल हैं। वैसे तो ब्राह्मण-सवर्ण अब पब्लिक पटल को हिन्दू-मुस्लिम राजनीति में डुबाये रखने के लिए फ्रीज में घुसने और राह चलते आम आदमी की मॉब लिंचिंग करने-करवाने से भी परहेज़ नहीं करते लेकिन मुस्लिम पहचान के पितृसत्तावादी प्रतीकों पर ये फार्मूला कुछ ज़्यादा ही कारगर साबित होता है।  2017 और 2019 चुनावों से पहले तीन तलाक़ कानून के मुद्दे पे BJP ने ऐसा ही खेल किया जिसमे सय्यद-अशराफ उछल-उछल कर तीन तलाक़ बचाने में लगे हुए थे और BJP आराम से बहुमत की बाज़ीगरी करती रही। सय्यद-अशराफ वर्ग का इस्लामवाद को लेकर हद से ज़्यादा जुनून और संख्याबल के चलते पसमांदा से नेतृत्व में पिछड़ जाने का डर इस वर्ग को खुद लोक्तन्त्र की बहुमत राजनिति करने से रोकता है।

अब UP चुनाव से ठीक पहले हिजाब को लेकर सय्यद-अशराफ तबके ने मुस्लिम पहचान को बचाये रखने का शिगूफा छेड़ा है। इस मुद्दे से ब्राह्मण-सवर्णो को हिन्दू पहचान के प्रतीकों को पब्लिक पटल पर जोशीले तरीके से उछालने का पूरा मौका मिल रहा है। 2022 के चुनावों में ब्राह्मण-सवर्णो की पार्टी BJP कई तरह के आर्थिक, रोज़गार और किसानी मुद्दों की वजह से पूरी तरह से हार की कगार पर है। लेकिन हिजाब बचाने के मुद्दे ने उसे एक बार फिर पब्लिक पटल को चुनाव के दौरान हिन्दू-मुस्लिम पहचान की बहस से भरने का मौका दे दिया है। अब ज़रा हिजाब के मुद्दे को संवैधानिक व्यवस्था के नज़रिये से भी समझा जाय। मज़हब की स्वतंत्रता के अधिकार में सिर्फ मज़हब की एकदम ज़रूरी चीज़ों को ही राज्य की शक्ति के बाहर रखा गया है। इस हिसाब से हिजाब पहनने का अधिकार कभी भी राज्य की शक्ति के बाहर नहीं जा पायेगा क्योंकि ये इस्लाम मज़हब का एकदम ज़रूरी हिस्सा नहीं है। इसका मतलब अगर राज्य ने कानून बनाकर हिजाब को बैन कर दिया तो अदालते भी उस कानून को संवैधानिक रूप से वैध करार देंगी। इसलिए हिजाब बचाने की लड़ाई चित तू जीत और पट मै हार जैसी है।

मुस्लिम महिलाओं पर पितृसत्तावादी हिजाब या बुरका-पर्दा बचाने की कवायद सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम पहचान को अलग बनाय रखने और लोकतान्त्रिक प्रकिरया पे अविश्वास के सिवा और कुछ भी नहीं। इन चुनावों में जहाँ देश के सबसे बड़े राज्य में एक महिला पांचवी बार मुख्यमंत्री बनने का संघर्ष कर रही है वहीं कुछ नादान बच्चियों को अशराफ का इस्लामवादी विमर्श हिजाब बचाने में फंसाये हुए है। वैसे भी पसमांदा बहुजन आंदोलन के मज़बूत होने के साथ ही हिन्दू-मुस्लिम पहचान की सवर्ण-अशराफ राजनीति खतरे में आ गयी है। ऐसे में मुस्लिम पहचान के प्रतीकों के ज़रा से हिलने से हिन्दू पहचान के खेमे में भूकंप सा आ जाता है। पिछले सौ सालों में देश में पहली बार जय भीम, जय कबीर, जय बिरसा जैसे समाजवादी नारों वाले लोकतांर्तिक आंदोलनों से हिन्दू-मुस्लिम राजनीति के पूरे सफाये की परिस्थितियां बन रही हैं। इसलिए ये वक़्त हिन्दू-मुस्लिम राजनीति से हिजाब उठाने का वक़्त है, इसके सवर्ण-अशराफ परों को कतरने का वक़्त है।

लेखक डॉ. अयाज़ अहमद मूलनिवासी कर्मचारी कल्याण महासंघ (MKKM) की सेन्ट्रल एग्जीक्यूटिव कमिटी (CEC) के मेंबर हैं।

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