बहुजन समस्या और भेदभाव की राजनीति
कौशल किशोर
आज बहुजनों के सवाल पर पूरा देश आंदोलित है। यह सिलसिला मंगलवार, 20 मार्च को शुरू हुआ। उस दिन उच्चतम न्यायालय ने डा. सुभाष काशीनाथ महाजन की अपील का निर्णय सुनाया था। एक बार फिर जस्टिस आदर्श कुमार गोयल और जस्टिस उदय उमेश ललित की अदालत ने चौंकाने वाला फैसला सुनाया है। दहेज उत्पीडऩ मामले में हुई फजीहत के बाद अब इस अदालत ने अनुसूचित जाति व जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम में नया दिशा-निर्देश जारी किया है।
उन्होंने बहुजन उत्पीडऩ के मामले में बिना जांच-पड़ताल के होने वाली तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगा दी है। अब सरकारी मुलाजिमों से जुड़े मामलों में पहले नियोक्ता की संस्तुति आवश्यक है। अन्य मामलों में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की स्वीकृति लेनी होगी। इस आदेश के प्रभावी रहने की दशा में डी.एस.पी. स्तर के अधिकारी द्वारा जांच के बाद ही एफ.आई.आर. दर्ज की जा सकेगी। साथ ही अभियुक्तों की अग्रिम जमानत भी अब सहज संभव है।
न्यायालय का सम्मान करने वाली बहुजन जनता सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के विरुद्ध खड़ी है। कांग्रेस अध्यक्ष ने सत्ताधारी भाजपा पर बहुजन विरोधी होने का आरोप लगाया है। भीम सेना जैसे राजनीतिक संगठन सड़क पर उतर आए हैं। बिहार समेत देश के कई हिस्सों में न्यायालय और सरकार के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हुए। सभी जगह हलचल हो रही है। सरकार के मंत्रियों की प्रतिक्रियाएं सामने आती रही हैं। मोदी सरकार के कई मंत्री और सांसद इस निर्णय से क्षुब्ध हैं। इसकी गंभीरता को समझ कर सरकार भी इसमें पुनॢवचार याचिका दाखिल करने का विचार करती है।
दुनिया भर में चर्चा होती है कि भारत में प्रतिदिन कितने बहुजन व आदिवासी ज्यादती का शिकार होते हैं। बहुजन हितैषी संगठनों में बराबर इन आंकड़ों पर चर्चा होती है। यहां रोजाना 3 बहुजन महिलाओं के साथ बलात्कार और 11 बहुजनों की पिटाई होती है। हर हफ्ते बहुजनों की हत्याएं, उनके घरों को आग के हवाले करने और उनके अपहरण की खबरें आती हैं। हर साल हजारों मुकद्दमे दर्ज होते हैं। इनमें पैरवी करने वाले न के बराबर हैं। बड़ी मुश्किल से सजा हो पाती है। क्या इनका मतलब यह है कि इस कानून का दुरुपयोग नहीं हो रहा है?
वस्तुस्थिति क्या है, इस पर संसद तक में चर्चा हो चुकी है। कोर्ट के सामने अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के साथ विशेषज्ञों की राय भी मौजूद है। सत्य और न्याय की रक्षा करना ही न्यायपालिका का धर्म है। क्या सचमुच अदालत ने यही काम नहीं किया है? यहां झूठा मुकद्दमा दर्ज कराने के दोषी को मुकम्मल सजा देकर दूरगामी संदेश दिया जा सकता था किंतु नया विधान रचने के क्रम में हुई भूल यहां साफ दिख रही है। यह दलीलों और आंकड़ों के जाल में उलझ कर भावना में बहने का नतीजा हो सकता है। इस निर्णय को त्रुटिहीन कराने की नीयत से रामदास अठावले और रामविलास पासवान के दलों ने पुनॢवचार याचिका दाखिल करने का फैसला किया है। मोदी सरकार के रविशंकर प्रसाद और थावरचंद गहलोत जैसे जिम्मेदार मंत्रीगण इस कार्य में लगे हैं। उन्हें पता है कि 16वें लोकसभा चुनाव में बहुजनों के बड़े वर्ग के समर्थन से ही भाजपा गठबंधन सत्तारूढ़ हो सका है।
वस्तुत: यह कानून का दुरुपयोग कर प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए जिम्मेदार लोगों को परेशान करने का मामला है। यह महाराष्ट्र के सतारा जिले के कराड तालुका का एक दशक पुराना मामला है। राज्य सरकार द्वारा संचालित फार्मेसी कालेज में कार्यरत अनुसूचित जाति के एक स्टोरकीपर के ईमान और चरित्र का जिक्र विभागीय अधिकारी द्वारा गोपनीय वार्षिक रिपोर्ट में किया गया। इसका पता लगने पर तथाकथित बहुजन कर्मचारी ने थाने में उत्पीडऩ की शिकायत दर्ज करा दी। फिर सी.आर.पी.सी. की धारा 197 की प्रक्रिया कई सालों बाद पूरी हुई।
आखिरकार 28 मार्च, 2016 को इस मामले में एफ.आई.आर. दर्ज की गई। न्यायालय के समक्ष मौजूद तथ्यों से साफ है कि इस केस में प्रथम दृष्टया बदनीयती साबित नहीं होती है। क्या महज इस कानून के प्रयोग की संभावना को आधार मानकर किसी सरकारी अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है? महाराष्ट्र के तकनीकी शिक्षा विभाग के कई निर्दोष अधिकारी एक दशक से इस मुकद्दमे में उलझे हैं। इन निर्दोष प्रशासनिक अधिकारियों की रक्षा कौन करेगा? इस फैसले में साफ कहा गया है कि किस तरह इस कानून के दुरुपयोग से अदालतों का समय खराब होता रहा है। वस्तुत: यह बहुजन उत्पीडऩ रोकने के लिए बनाए गए कानून के दुरुपयोग का संवेदनशील मामला है परंतु कोई यह नहीं बता रहा कि ऐसे मामलों से निपटने के लिए पीड़ितों को क्या करना चाहिए? इन प्रश्नों को निरुत्तरित छोडऩे से बहुजनों को भी नुक्सान ही होगा।
आज सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना करने में लगी जमात के लोग अप्रत्यक्ष रूप से भेदभाव की राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं। क्या सचमुच बहुजनों के बीच निराशा का माहौल नहीं है? इस एक्ट के नियमों में ढील होने पर बहुजनों के खिलाफ अत्याचार के मामले बढऩे की आशंका निर्मूल नहीं है। पहले गिरफ्तारी के भय से लोग कमजोर बहुजन लोगों पर अत्याचार करने से दूर रहते थे मगर गिरफ्तारी में मुश्किल और जमानत के नए प्रावधान के बाद लोगों का यह डर खत्म हो गया है। नख और दंतविहीन होने के बाद इस कानून की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। फलत: भविष्य में ऐसे मामलों में होने वाली वृद्धि को रोकना सहज नहीं होगा।
मेरी समझ से जस्टिस गोयल और जस्टिस ललित को भीम की तरह गदा भांजने की अपेक्षा अर्जुन की तरह पैने तीर से निशाना साधना चाहिए। यदि यह मामला इतना ही खराब था तो फर्जी मुकद्दमा दायर करने वाले तथाकथित बहुजन को मुकम्मल सजा देना क्यों नहीं मुनासिब समझा गया। ऐसा करने से सटीक संदेश जाता। पिछले साल जुलाई में भी इसी अदालत ने दहेज पीड़ित महिलाओं के मामले में ऐसा ही एक निर्णय सुनाया था। बाद में उस आदेश को मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली 3 सदस्यीय पीठ ने खारिज कर दिया था। बहुत संभव है कि इस मामले में भी वैसी ही कोई प्रक्रिया दोहराई जाए। भविष्य में इस मामले में क्या और कैसे होता है, यह जानना सचमुच बेहद दिलचस्प होगा।
The Rampant Cases of Untouchability and Caste Discrimination
The murder of a child belonging to the scheduled caste community in Saraswati Vidya Mandir…