जेएनयू आपको थोड़ा और संवेदनशील मनुष्य बनाता है!
दिल्ली के जाने-मानेविश्विद्यालय में फीस वृद्धि को लेकर जेएनयू छात्रों ने विरोध प्रदर्शन कर रहे है. वही जेएनयू छात्र जयंत जिज्ञासु ने खत लिखा मुझे 5000 की फ़ेलोशिप मिलती है. रहने का खर्च लगभग नगण्य है. हॉस्टल में तीन वक़्त के भोजन पर 22-24 सौ रुपये खर्च होते हैं. हज़ार रुपये दोस्तों के साथ चाय-नाश्ते पर पांच सौ के आसपास यातायात पर और हज़ार रुपये कलम-काग़ज़-किताब पर. दोस्त अगर साथ लेकर चल पड़े तो कपड़े साल में एकाध बार ख़रीद लिए तो ठीक ही काम चल जाता है. साइकिल से चलता हूँ इसका अपना ही आनंद है. पिताजी मिड्ल स्कूल के टीचर के रूप में सेवा देने के बाद जब से रिटायर हुए हैं. अपनी ज़रूरतें सीमित कर ली हैं मैंने और इस लाइफ़स्टाइल से कोई ख़ास दिक्कत हुई हो ऐसा भी नहीं है. हां जब बाहर रहता था तो हर महीने पांच हज़ार रुपये रूम का किराया देना पड़ता था. स्कूली शिक्षा व्यवस्था के लचर वित्तीय प्रबंधन में पापा को समय पर वेतन नहीं मिलने के चलते कई बार दिल्ली के मकान मालिक के सामने लज्जित होना पड़ता था. जब आवश्यकताएं बढ़ेंगी तो उपार्जन भी कर लूंगा पर संचय नहीं करना मुझे.
बहनें स्वभावत: शुरू से मितव्ययिता से चलती हैं. ढ़ाई व ज़रूरी खर्च के अलावे उनके खर्च नगण्य हैं. पर अब यही जीवन मेरे भाई नहीं अपना सकते तो चाह कर भी पिताजी उन्हें सादगी के लिए बाध्य नहीं कर सकते. एक भाई घर पर है. दूसरा भागलपुर में रहता है हॉस्टल उसे भी मिला हुआ है. पर उसके अपने खर्च हैं उसको बाइक में पेट्रोल के लिए पैसे चाहिए. उसके जीवन के अपने मायने हैं अपने मूल्य हैं. मैंने पिताजी से कहा कि देखिए आप उसे डांटिए मत बस इतना कहिए कि एक वक़्त के बाद उसे जीवन में ख़ुद से अर्जित कर खर्च करना होगा तो उस हिसाब से मेहनत कर ऐसे मकाम पर पहुंचे जहाँ बगैर किसी भ्रष्ट आचरण के अपना खर्च वहन कर सके.हमें बच्चों के साथ प्यार से पेश आना चाहिए. मेरे साथ शुरू से था कि मुझे कोई डांटे-फटकारे जान-बूझ कर इग्नोर करे तो मेरे कई दिन ख़राब हो जाते. इसलिए ऐसे हर काम से बचता था जो ऐसी स्थिति पैदा करे. सुमन्त-हेमन्त के साथ है कि जो होगा देखा जाएगा पापा ही तो है. मैंने अपने माता-पिता को कभी मुझे मारने या गाली नहीं देने दिया.
एक दोस्त ने 6 साल की उम्र में ‘सुहाना’ नामक गुटखा खिला दिया. किसी ने देख लिया फिर पापा ने प्यार से पूछा कि कैसा लगा. इससे नुकसान होता है पर मैंने कहा कि आशुतोष भैया पापा के दोस्त के बेटे जो पढ़ने में बहुत तेज़ थे और पापा के प्रिय छात्र थे भी तो ये सब खाते हैं. किसी तरह मुझे कन्विंस करते हुए बोले देखो खाना तो उसे भी नहीं चाहिए पर वह बहुत बड़ा है. उसके स्वास्थ्य पर उतना असर नहीं पड़ेगा पर तुम अभी कितने छोटे हो. मुझे देखो मैंने कभी हाथ नहीं लगाया एक तो पैसे नहीं थे और जब हुए तब भी नहीं. लाख अच्छा दोस्त हो इच्छाशक्ति होनी चाहिए कि ये काम नहीं करना तो नहीं करना. आज मेरे सामने संकल्प लो कि कभी यह नहीं खाओगे. ऐसा नहीं कि मेरे मन में कुछ चीज़ों के प्रति कोई लोभ-लालच नहीं बस उनकी एक नसीहत याद रहती है. जो बचाती है .ऐसा कोई काम नहीं करना जिससे दुनिया में तुम्हें सर झुका के चलना पड़े नज़र चुरा के निकलना पड़े.
ढाई साल पहले ये बातें लिखीं उनमें ग़ौरतलब बदलाव महज इतना हुआ कि भाई सुमन्त ने बीएससी कंप्लीट कर ली. जबसे जेएनयू की तहज़ीब उसने देखी उसके मन में भी पढ़ने की ललक पैदा हुई. देर रात तक वह लाइब्रेरी में बैठने लगा. पहले अपने से बड़ों की अच्छी बातों की भी बहुत परवाह नहीं करता था. पर यहाँ आकर मेरे दोस्तों के साथ उसने बहुत सलीक़े से बर्ताव किया उसके अंदर भी कुछ बेहतर करने की भावना जगी. बाहर रूम लेकर रहने लगा पर पढ़ने के लिए कैंपस आ जाता था और कोई कॉर्नर ढूंढ कर स्वाध्याय में जुट जाता था. उसका एडमिशन तो नहीं हो सका पर उसके अंदर भरोसा जगा कि नहीं पढ़ने से भी बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है.
मैं समझता हूँ कि यह एक बच्चे के अंदर कोई मामूली परिवर्तन नहीं है. सच पूछिए तो जेएनयू इसी जीवन-पद्धति का नाम है. जेएनयू तहज़ीबो-तमद्दुन का नाम है. यह कैंपस आपको थोड़ा और मनुष्य बनाता है. आप संवेदनशील बनते हैं. सरकार की जनविरोधी नीतियों के चलते मौजूदा कोलाहल ने हमारी रचनात्मकता को प्रभावित करने की कोशिश की है. इस फी स्ट्रक्चर में तो मेरे जैसे अधिकांश निम्न मध्यवर्ग परिवार के लोगों के लिए बड़ा भारी संकट खड़ा हो जाएगा. इसकी ज़द में सिर्फ़ बीपीएल वाले नहीं आएंगे बल्कि वो तमाम लोग जो हॉस्टल मेस के भोजन के अलावे कभी शंभु ढाबा की मछली या राम सिंह ढाबा का चिकन खाने के लिए महीने में एकाध बार सोच पाते हैं.
हर शिक्षण संस्थान आपको कुछ न कुछ देता है. थोड़ा मेरे हाइ स्कूल ने तराशा थोड़ा टीएनबी कॉलेज ने निखारा थोड़ा आइआइएमसी ने दुनियादारी बतलाया थोड़ा सेंट स्टीवन’स ने युगबोध का भान कराया थोड़ा हंसराज कॉलेज ने लोकव्यवहार का धनी बनाया तो थोड़ा इस जेएनयू परिसर ने वैश्विक दृष्टि को पैना किया. जेएनयू को हम न बचा पाए तो हमेशा एक बोझ रहेगा दिलो-दिमाग़ पर जब से कैंपस आया, कोई न कोई बखेड़ा ही चल रहा है. 2015 में नॉन नेट फेलोशिप ख़त्म किये जाने के ख़िलाफ़ ऑकुपाय युजीसी मूवमेंट, 2016 में अनावश्यक प्रायोजित विवाद, 2017 में मैसिव सीट कट के ख़िलाफ़ ब्लॉकेड, स्ट्राइक, आंदोलन, जीएसकैश को डिस्मेंटल किया जाना, 2018 में कंपलसरी अटेंडेंस का झमेला, और 2019 में ये मैसिव फी हाइक की एक्सक्लुजनरी पॉलिसी.हमने कई लड़ाइयाँ जीतीं और कुछ में करारी शिक़स्त खाई. रिसर्च प्रोग्रैम्स की सीटें रिस्टोर नहीं हो पाईं जीएसकैश की तबाही के ख़िलाफ़ आज भी लोगों में आक्रोश है और फी हाइक के विरोध में पूरा कैंपस खड़ा है. मसला यह नहीं है कि आगे क्या होगा मसला यह है कि आने वाली नस्लें जब पन्ने पलटें तो हमारी कायरता के क़िस्सों से उन्हें शर्मसार न होना पड़े. जेएनयू को बचाना मनुष्यता को बचाना है. देश के हर संस्थान को बचाना अपनी सभ्यता को बचाना है.
~जयंत जिज्ञासु
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