आरक्षण नहीं होता तो पांडेजी का बेटा आईएएस बन जाता ?
By: rahul kotiyal
कई साल मुख़र्जी नगर में कोचिंग करते रहने के बाद भी पांडेजी का बेटा आईएएस न बन सका. 2016 में उसने अपना आखिरी प्रयास किया, लेकिन नैय्या पार न लगी. आखिरकार आरक्षण व्यवस्था को सारा दोष देते हुए लड़का घर लौट गया.
पांडेजी ने लड़के के लिए दुकान खोल दी और सभी से कहने लगे- ‘भैय्या कामयाब होने के लिए तो इन दिनों दलित होना जरूरी है. हमारे बच्चे पढ़-पढ़ के मरे जा रहे हैं और दलित बिना मेहनत के ही आईएएस बन रहे हैं. कलयुग है भाई…’
यूपीएससी में नाकाम होने वाले लाखों अगड़ी जातियों के छात्र और उनके पिता बिलकुल यही तर्क देते दिखते हैं. अपनी नाकामयाबी के लिए वे सीधे आरक्षण व्यवस्था को जिम्मेदार ठहरा देते हैं.
लेकिन एक नज़र ज़रा आंकड़ों पर डालिए:
2016 में यूपीएससी (केंद्रीय लोक सेवा आयोग) की परीक्षा में 1099 लोग सफल हुए थे. जानते हैं इन 1099 सीटों के लिए आवेदन कितने लोगों ने किया था? 11,36,000 लोगों ने. जी हां, लगभग साढ़े ग्यारह लाख लोगों ने.
अब लगे हाथ उस परीक्षा की मेरिट लिस्ट भी जान लीजिए. दो सौ नंबर का प्री एग्जाम होता है. इसमें जनरल की मेरिट गई 116 नंबर, ओबीसी की 110.66 नंबर, अनुसूचित जाति मेरिट 99.34 नंबर और अनुसूचित जनजाति की मेरिट 96 नंबर तक गई. यानी दो सौ नंबर के मार्जिन में भी कट ऑफ का अधिकतम अंतर मात्र 20 नंबरों का था.
यानी जितने भी लोग सफल हुए, चाहे किसी भी जाति के रहे हों, बेहद मेहनती थे और उनके अंकों में कोई भारी फासला नहीं था.
लेकिन सफल तो 11,36,000 में से मात्र 1099 ही हुए थे. बाकी के 11,34,901 लोग, जो सफल नहीं हो सके वो क्या करें? किसी पे तो असफलता का दोष थोपना ही है. तो इनमें से सारी पंडीजी (अगड़ी जातियों) की संताने दोष थोप देती हैं आरक्षण पर. जैसे आरक्षण न होता तो इन 1099 सीटों पर लाखों पंडीजी की संततियां भर्ती हो जाती.
भाई, आरक्षण नहीं भी होगा तो भी 1099 सीटों पर इतने ही तो लोग भर्ती होंगे न? जो लाखों लोग असफल हो रहे हैं और आरक्षण पर दोष मढ़ रहे हैं, वो सभी थोड़े भर्ती हो जाएंगे. और चलिए ये भी मान लेते हैं कि यूपीएससी जैसी परीक्षाओं में 20 अंकों का अंतर ‘मात्र’ नहीं होता और दो-तीन अंकों के अंतर में ही लाखों परीक्षार्थी पीछे छूट जाते हैं. लेकिन इसे ऐसे समझिए कि यूपीएससी की परीक्षा में सफल होने की दर यानी सक्सेस रेट मात्र 0.001 प्रतिशत होता है. यही दर सामान्य वर्ग के लिए भी है और यही दर दलित वर्ग के लिए भी क्योंकि उस वर्ग में भी लाखों लोग आवेदन करते हैं. ऐसे में अगर आरक्षण हट भी जाए तो भी सक्सेस रेट तो यही रहने वाला है.
इन परीक्षाओं में असफल होने वाले सामान्य वर्ग के परीक्षार्थियों को अपना मूल्यांकन इस पैमाने पर करना चाहिए कि वे सामान्य वर्ग में टॉप करने वाले से कितना पीछे हैं. लेकिन वे ऐसा नहीं करते. वे अपनी तुलना आरक्षित वर्ग में सफल हुए परीक्षार्थियों से करते हैं और फिर कहते हैं ‘देखो इससे ज्यादा तो हमारे नंबर थे फिर भी हम नहीं पास हुए और ये आरक्षण वाले पास हो गए.’
ये तुलना खुद को सांत्वना देने से ज्यादा कुछ नहीं है. क्योंकि अगर आरक्षण हट भी जाता है तब भी तो ऐसे छात्रों का मुकाबला सीधा उन्हीं से होगा जो सामन्य वर्ग में टॉप कर रहे हैं. उनकी मेरिट तब भी इन्हीं टॉपर्स के अंकों के आधार पर बनेगी.
लिहाजा यह बात साफ़ है कि आरक्षण ख़त्म होने से सवर्णों को कोई लाभ नहीं होने वाला. किसी भी पद के लिए उनका कम्पटीशन तब भी उतना ही कठिन रहने वाला है जितना आज है. हां, कुछ दलितों को इससे नुक्सान जरूर हो जाएगा. क्योंकि उनका संवैधानिक हक़ मारा जाएगा. संविधान दलितों को आरक्षण देकर ग़ैर बराबरी नहीं करता बल्कि उस ग़ैर बराबरी का समाधान करता है जो हजारों सालों से हमारे समाज ने दलितों के साथ की है.
आईएएस की परीक्षा में दो-चार नंबरों से चूकने वाले परीक्षार्थी दूसरे या तीसरे प्रयास में सफल हो ही जाते हैं. वे आरक्षण को दोष नहीं देते. आरक्षण को दोष सिर्फ वही लोग देते रहते हैं जो खुद जानते हैं कि उनके बस की बात नहीं है.
ऐसे पंडीजी के बेटे अकेले में तो खुद भी जरूर सोचते ही होंगे कि, ‘शुक्र है कि आरक्षण व्यवस्था है वरना अपनी नाकामी का दोष किसे देते और पापा को क्या मुंह दिखाते?
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