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Social - State - Uttar Pradesh & Uttarakhand - October 18, 2017

ये यूपी निकाय चुनाव में भेदभाव नहीं तो फिर क्या है ?

2017 निकाय चुनाव में उत्तर प्रदेश अमरोहा जिले की 5 नगर पालिका और 3 नगर पंचायत में से एक भी सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित नहीं हुई जबकि 2012 में जिले की गजरौला नगर पंचायत सीट अनुसूचित जाति में रही थी तो इस बार प्रशासन ने कौन सा गणित लगाया की जिले को एक भी सीट अनुसूचित में नहीं मिली।

 

अगर एक सीट हसनपुर नगर पालिका (जिला-अमरोहा) की बात करें तो 1956 से 1987 तक नगर पालिका अध्य्क्ष वार्ड सभासद के द्वारा चुनते हुए आ रहे हैं उसके बाद जनता द्वारा उनका चुनाव होता है ।

यदि बात यहां के आरक्षण की करें तो 2012 में सामान्य, 2007 में पिछड़ा, 2002 में पिछड़ा, 1997, 1992, 1987 में पिछड़ा व सामान्य का तालमेल बनता रहा है जबकि यहां 5500 से ज्यादा अनुसूचित जाति के लोग व 3500 से अधिक वोट हैं तो फिर भी अनुसूचित जाति की अनदेखी क्यों की जा रही है, इतना भेदभाव क्यों किया जा रहा है ??

 

अब बात करें जिले की अन्य सीटो के बारे में तो 5 सीट महिलाओं के लिए तो है पर अनुसूचित जाति की महिलाओं के लिए कुछ भी नहीं !!

अब आप खुद से आकलन करें की क्या कोई पार्टी सामान्य सीट पर अनुसूचित जाति के पुरुष/महिला को टिकट देती है ?

जी, ऐसा कभी नहीं होता!

बहुजनों को सिर्फ अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट पर ही मौका दिया जाता है बाकी कभी नहीं ।

जब बात चल रही है तो मंडल मुरादाबाद पर गौर जरूर फरमाइए- 1 नगर निगम, 27 नगर पालिका, 24 नगर पालिका कुल मिलाकर 52 सीट में से दो सीट नगर पालिका हल्दौर (बिजनोर), नगर पालिका चंदौसी (सम्भल) ही अनुसूचित में शामिल की गई है बाकी 50 सीट में कोई सीट अनुसूचित को नहीं मिली।

 

तो 52 में से सिर्फ 2 सीट अनुसूचित जाति को!!

क्या यह न्याय है ?

क्या यह सही आरक्षण है ??

क्या बहुजनों को उनका हक दिया जा रहा है ??

 

अब इन 50 में से एक भी अनुसूचित जाति/जनजाती का मेयर, चैयरमैन होगा क्या? नहीं बन पाएगा!

ये है आज का भारत और न्यू इंडिया, निचले वर्ग को कभी उठने नहीं दिया जाता तो भारत क्या खाक तरक्की करेगा।

 

तो अब आप खुद के दिल से पूछे कि दलितों के साथ भेदभाव कब तक, उनका हक उनको क्यों नहीं मिलता।

 

दलित होने का दर्द सिर्फ दलित जानता है, उसके लिए सिर्फ सरकारी नॉकरी के रास्ते तो खुले है। पर न उस पर व्यापार है न ही राजनीति. जहाँ से असल मायने में मजबूत होकर हक़ की बात उठायी जा सके।

 

एक दलित को सिर्फ अनुसूचित रिज़र्व सीट पर टिकट दिया जाता है बाकी वो हाशिये पर ही पड़ा रहता है और अपने हक़ के लिए इस तरह के लेखों से चिल्लाता रहता है पर उसकी इस चीख को सब अनदेखा कर देते है सब जान बूझकर मूक बन जाते है।

 

ऐ सरकारों ! इस हक़ की चिंगारी को आग का गोला मत बनाओ, दलितों को उनके हिस्से का हक़ उनको दे दो।

-यह लेख हमें पत्रकार अंकुर सेट्ठी ने भेजा है, लेख में दिखाए आंकड़े या संबंधित किसी भी जानकारी के लिए नेशनल इंडिया न्यूज जिम्मेदार नहीं है.

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