Home Opinions हमारे देश में सामाजिक सुरक्षा न के बराबर है। वकील और अस्पताल के ख़र्च से ही आत्मा की अंतरात्मा ग़ायब हो जाती है।- रवीश कुमार
Opinions - Social - August 10, 2017

हमारे देश में सामाजिक सुरक्षा न के बराबर है। वकील और अस्पताल के ख़र्च से ही आत्मा की अंतरात्मा ग़ायब हो जाती है।- रवीश कुमार

वर्तमान में देश में समाचारों और समाजिक स्थिति पर रवीश कुमार का लेख-

मालगाड़ी के आख़िरी डिब्बे में बैठकर लंबी यात्रा करने का मन कर रहा है। बहुत हुआ तेज़ सफ़र, धीरे धीरे गुज़रना चाहता हूँ। रेडियो, ख़ूब सारा खाना और दूरबीन लेकर। गार्ड साहब के पास स्टूल लगाकर बैठ रास्तों में छूटते गाँव घरों और पटरी पर अकेले काम करते लाइन मैन को जी भर कर देखना चाहता हूँ। पता है ये सब रोमांटिक ख़्याल हैं मगर हैं तो सही। दिल्ली और न्यूज़ की दुनिया से कैसे और कहाँ चला जाऊँ, इसी सोच में डूबा रहता हूँ। जहाँ अखबार पढने की बेचैनी न हो और टीवी देखने की बाध्यता ।

कोई ऐसा पुरस्कार नहीं है जिसमें पेंशन और रेल पास मिले, वही दिलवा दो। एक बार के लिए आँख बंद कर ले लूँगा। मैं उतने में काम चला लूँगा। क्या करें, हमारे देश में सामाजिक सुरक्षा न के बराबर है। वकील और अस्पताल के ख़र्च से ही आत्मा की अंतरात्मा ग़ायब हो जाती है। बहुत सीमित ख़र्च करता हूँ तब भी महीने की ज़रूरत के लिए एक निश्चित आय ज़रूरी है। बाकी निवेश वगैरह से कमाने का दिमाग़ भी नहीं है।

मुझे ये बैल की तरह काम नहीं करना है। जो कर रहा हूँ उससे भयानक ऊब हो गई है। काश, जो लोग बीस साल बाद नौकरी छोड़ना चाहें उनके लिए अच्छी पेंशन होती। किसी नए को मौका भी मिलता और मुझे मन का करने का वक्त। जीवन कभी अपने लिए जीया ही नहीं। न ढंग की छुट्टी न आराम। सुबह से रात तक वही प्राइम टाइम। बाकी एंकर कैसे कर लेते हैं, आज तक समझ नहीं आया। शायद relevant बने रहना चाहते होंगे। लिखने के बाद भी लोगों ने सभा-सेमिनार में बुलाना नहीं छोड़ा, शुभचिंतकों की यह क्रूरता नहीं झेली जाती है।

बीस साल में यही सीखा है कि गदहे की तरह काम नहीं करना चाहिए। अंत में न वो काम बचता है और न आप। मुझे ही याद नहीं कि कितने शो किए, क्या लिखा, क्या बोला। जबकि हर शो पर हाड़तोड़ मेहनत की।आठ घंटे कुर्सी पर बैठ कर रोज किसी विषय को पढ़ना, अब जानने और बताने का सुख नहीं देता है। बोझ लगता है। सज़ा हो गई है।

ख़ुद से हैरान हूँ कि अकेले कैसे कर लेता हूँ । कैसे कस्बा पर लिखता हूँ, कब यहाँ लिख देता हूँ । अब टीवी में वो हो ही नहीं सकता जिसके लिए टीवी बना है। आप कहेंगे निराश हूँ । बिल्कुल नहीं। होश में हूँ तभी जैसा लग रहा है वैसा लिख रहा हूँ । यह लिखते हुए अजनबी का गाना सुन रहा हूँ । हम दोनों दो प्रेमी दुनिया छोड़ चलें ।

मुझे कहीं दूर जाना है। ख़ुद के पास। जानता हूँ मुश्किल हो गया है लेकिन ऐसे ख़्याल दवा का काम करते हैं। लिख कर ही लगता है, थोड़ा सा जी लिया। अक्सर अफ़सोस होता है कि मेरा अकेलापन इस टीवी ने छिन लिया। उसी की अब तलाश
रहती है।दरबान की तरह पहचान हर वक्त सामने खड़ी रहती है। बाहर जाने ही नहीं देती।

– रवीश कुमार

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