हिन्दू-मुस्लिम वहशीपने से आज़ाद होने की कोशिश कीजिए : रवीश कुमार
नई दिल्ली। डाउन टू अर्थ हिन्दी में आने लगा है। यह पत्रिका खुलते ही दूसरी दुनिया में ले जाती है जहाँ पहली दुनिया के ख़त्म होते नज़ारे आँखों को चुभते हैं। हिन्दी की दुनिया में जब हिन्दी में कुछ आता है तब भी चुप्पी होती है और जब कुछ नहीं आता तो रोने नाम की चुप्पी छा जाती है।
जब हर शाम चैनलों में सरकार का प्रोपेगैंडा कर रहे न्यूज़ एंकरों के जुमलों में उलझे रहते हैं तब इसी दौर में कोई अर्चना यादव पटना से फ़रक्का की यात्रा कर रही होती हैं, बाढ़ के कारणों को समझने के लिए। तस्वीरों के ज़रिये बाढ़ का सौंदर्यीकरण और रिपोर्टिग के सतहीकरण की दीवारों को तोड़ डाउन टू अर्थ ने जुलाई महीने के अंक के लिए फ़रक्का को कवर स्टोरी के रूप में छापा है।
” 1950 के दशक में पश्चिम बंगाल के इंजीनियर कपिल भट्टाचार्य ने चेतावनी दी थी कि फ़रक्का के कारण बंगाल के मालदा व मुर्शीदाबाद और पूर्णिया हर साल पानी में डूबेंगे। ”
अर्चना यादव की स्टोरी इस बयान से शुरू होती है और उनकी हर पड़ताल बार बार इसी बयान को सही साबित करती है। बाढ़ के बारे में सब जानते हैं। सबने लिखा है। चर्चा हुई है मगर कारणों पर फोकस कम है, NDRF और बीस किलो चूड़ा पर ज़्यादा है। राजनीतिक दलों में समस्याओं को दूर करने की इच्छाशक्ति कम और नौटंकी ज़्यादा है। पिछले साल भी बिहार में बाढ़ से 250 लोग मरे थे। चूँकि मरता ग़रीब है इसलिए वो संख्या में बदलकर जीवित हो जाता है और किसी को फर्क नहीं पड़ता।
आई आई टी के प्रोफेसर राजीव सिन्हा गंगा का हवाई सर्वे करने के बाद बताते हैं कि गाद का बहाव सचमुच में बहुत ज़्यादा है। यह अविश्वसनीय है। गाद की सफाई के नाम पर नेताओं के पास यही सफाई है कि हमने मुद्दा उठाया है।
अर्चना जब मुंगेर के मछुआरों की बस्ती में जाती हैं तो वे बताते हैं कि पहले तीस से चालीस हाथ पानी होता था। अब तो आठ से दस हाथ गहरी रह गई है। बताइये कौन सा चैनल कौन सा अखबार बाढ़ से पहले बाढ़ की रिपोर्ट करने निकला था ।
जुलाई की यह रिपोर्ट है। अगस्त में बिहार दह रहा है। हम फिर से बाढ़ की पुरानी कहानी सुन रहे हैं। नई बात यह है कि मरने वाले इस बार भी नए लोग हैं ।
हिन्दी के पाठकों को अपनी दिलचस्पी का विस्तार करना चाहिए। राजनीतिक ख़बरों के नाम पर हिन्दू मुस्लिम वहशीपने से आज़ाद होने का प्रयास कीजिए। डाउन टू अर्थ हिन्दी में सब्सक्राइब कीजिए, नियमित रूप से पढ़िये। पचास रुपये की यह पत्रिका कूड़ा छाप रहे हिन्दी अखबारों से कहीं बेहतर है। अख़बार और टीवी सूचनाओं की विविधता को ख़त्म कर आपको एक सुरंग में रखना चाहते हैं। सुरंग से निकलिए।
(ये पोस्ट मूलत: रवीश कुमार के फेसबुक पेज पर पोस्ट की गई है।)
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