Home Social केवल सीमा पर मरने के लिए पैदा नहीं हुए हैं देश के OBC/SC/ST और अल्पसंख्यक
Social - State - February 21, 2019

केवल सीमा पर मरने के लिए पैदा नहीं हुए हैं देश के OBC/SC/ST और अल्पसंख्यक

Published by- Aqil Raza~

पिछले 14 फरवरी 2019 को जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में सीआरपीएफ के 40 जवानों की मौत आतंकी हमले में हो गई। यह एक ऐसी घटना है जिससे हर भारतीय आहत है। हालांकि कई राजनीतिक दलों के नेता इसी युद्धोन्माद फैला रहे हैं। भाजपा के नेताओं ने तो इसे चुनाव का मास्टर स्ट्रोक करार दिया है।

लेकिन इन सबके बीच जो बात सबसे उल्लेखनीय है , वह शहीद जवानों की सामाजिक पृष्ठभूमि है। इनमें से 19 ओबीसी हैं। SC 7, आदिवासी 5, सवर्ण 3 और मुसलमान 1 हैं। शहीद जवानों में 4 सिक्ख और 2 राजपूत हैं। ब्राह्मण की संख्या केवल 1 है। इस प्रकार 40 में से केवल तीन सवर्ण हैं। प्रतिशत के हिसाब से यह साढ़े सात प्रतिशत है। जबकि ओबीसी की हिस्सेदारी 47.5 फीसदी है। यदि सभी गैर सवर्णों को जोड़ लें (सिक्ख और मुसलामन को छोड़कर) तो चालीस में से 31 जवान बहुजन समाज से आते हैं। शहादत में यह हिस्सेदारी 77.5 फीसदी है।

अब सवाल उठता है कि जब सरकार के अन्य सेवाओं में (सीना पर गोली खाने वाली सेवाओं को छोड़कर) सवर्ण जातियों के लोग बहुसंख्यक हैं, फिर सीना पर गोली खाने में पीछे क्यों? क्या इसकी कोई खास वजह है?

जाहिर तौर पर इसका जवाब सकारात्मक है। दरअसल सेना में लड़ने का काम प्रारंभ से ही निचली जातियों के लोगों द्वारा किया जाता रहा है। तब भी जब इस देश में राजपूत राजा होते थे। पैदल सेनाओं में सबसे अधिक हिस्सेदारी समाज के निचले तबके के लोगों की होती थी। वे गुलामों की तरह जीते थे। बाद में जब मुगल आए तब उन्होंने भी यही तरीका अपनाया। सवर्ण समाज के लोगों को मुगलों ने जागीरें और सूबे दिए जबकि लड़ने और मरने की जिम्मेवारी दलितों और पिछड़ों को दी। अंग्रेज भी कुछ अलग नहीं थे। लेकिन अंग्रेजों में मानवीयता थी। वे अपने सैनिकों को गुलाम नहीं समझते थे। इसी का परिणाम रहा कि 1818 में 500 महार सैनिकों ने पेशवाओं की भारी भरकम सेना जिसमें 25 हजार से अधिक सैनिक थे,को मार गिराया। भीमा-कोरेगांव में इसी विजय का प्रतीक स्तंभ है।

आजादी के बाद कई चीजें एक साथ हुईं। जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार कानूनों के बावजूद उत्पादन के संसाधनों पर वर्चस्व सवर्ण समाज का ही बना हुआ है। बाद के दिनों में लोकतांत्रिक संविधान के कारण राजनीति में गैर सवर्णों की हिस्सेदारी बढ़ी परंतु रोजी-रोजगार का सवाल जस का तस बना है। पिछड़े, आदिवासी और SC अब भी रोजगार के लिए या तो भूस्वामी सवर्णों पर आश्रित हैं या फिर पूंजीपति सवर्णों पर। पूंजी का समुचित वितरण नहीं हो पाना इसकी एक मुख्य वजह है। ऐसे में न तो वे अपनी शिक्षा पूरी कर पाते हैं और न ही कोई योग्य बन पाते हैं ताकि विश्व के रोजगार जगत में अपने लिए कोई जगह बना सकें। सरकारी सेवाओं में आरक्षण का हाल यह है आज तक ओबीसी जिसकी आबादी में हिस्सेदारी 54 फीसदी है, सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व 15 फीसदी से कम ही है।

बहरहाल, 40 में से 31 गैर सवर्ण एक महत्वपूर्ण आंकड़ा है। उम्मीद है कि आज देश का बहुजन समाज इसे सकारात्मक रूप से लेगा। वह केवल गोलियां नहीं खाएगा, केवल गंदी नालियों को साफ नहीं करेगा, चपरासी और बहुत हुआ तो क्लर्क नहीं बनेगा। वह इस देश की सत्ता में अपना हक लेगा।

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