BBC और मीना कोटवाल: बहुजन महिला पत्रकार के जातिगत प्रताड़ना की कहानी, पार्ट-10
आज मैं पिछला नहीं बल्कि कल की ही एक ताज़ा सूचना से शुरू करना चाहूंगी. कल मुझे पता चला कि मिस्टर झा ने बीबीसी से इस्तीफ़ा दे दिया है. जैसे ही मुझे पता चला चंद लोगों के लिए रही सही इज्जत भी मेरे दिल से खत्म हो गई. कुछ लोगों पर बहुत विश्वास किया था, जिन्हें मैंने अपनी परेशानी का हर मामला सबसे पहले बताया था और वो मुझे सिवाये आश्वासन के कुछ नहीं देते. हालांकि विश्वास और इज्जत की परत धीरे-धीरे उतरती गई और आज रही सही भी, सब पूरा साफ़ हो गया.
इस सूचना का ज़िक्र इसलिए करना जरूरी है क्योंकि बीबीसी की तरफ़ से आधिकारिक बयान यही दिया जा रहा है कि मेरा कॉन्ट्रैक्ट इसलिए खत्म किया गया क्योंकि मिस्टर झा वापस आ रहे हैं, जिनकी जगह मुझे रखा गया था. वे दो साल की एजुकेशन लीव पर थे.
लेकिन कल अचानक पता चला कि वे तो इस्तीफ़ा दे चुके हैं और ये इस्तीफ़ा उन्होंने कल नहीं बल्कि तीन महीने पहले ही दे दिया था (जिसका दावा मैं नहीं कर रही). मान लिया अगर तीन महीने पहले नहीं भी दिया होगा तो संपादक पदों पर बैठे अधिकारियों को इसके बारे में पूरी जानकारी होगी क्योंकि अचानक कोई इस्तीफ़ा नहीं देता. एक छोटे से संस्थान में भी महीनाभर पहले बताना अनिवार्य होता है और फिर ये तो अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थान है. इसलिए मैं तो बिल्कुल नहीं मान सकती कि इस्तीफ़े की बात अचानक मेरे जाने के बाद पता चली.
जबकि मुझे कल ही वो बात भी याद आई जब मुझे किसी ने कहा था कि मिस्टर झा वापस नहीं आएंगे क्योंकि वो बीबीसी छोड़ रहे हैं. उस समय मैंने उनकी बात हल्के में ले ली क्योंकि मुझे लगा अगर ऐसा होगा तो सबसे पहले संपादक को ही पता चलेगा. वे हमेशा कहते थे, ‘‘मिस्टर झा आ रहे हैं इसलिए कॉन्ट्रैक्ट खत्म कर रहे हैं और अभी हमारे पास कोई नई वैकेंसी भी नहीं हैं, जिसकी जगह रखा जाए.’’ मुझे भी नोटिस तीन महीने पहले ही पकड़ाया गया था यानि अगर मैं सही समझ रही हूं तो पहले मिस्टर झा से कंफर्म किया होगा और उन्हें इस इस्तीफ़े वाली बात को बाहर ना बताने के लिए कहा होगा ताकि मुझे उनके आने का हवाला दे कर निकालने में आसानी हो. तब जाकर पूरी सोची समझी साजिश की तहत इस मामले को पूरे ऑफिशियली ढंग से अंजाम दिया गया है.
लेकिन मेरे बाद भी वहां जॉइनिंग हुई है. मुझे तो ये भी नहीं बताया गया था कि मैं कॉन्टैक्ट पर रहने के बाद अप्लाई कर सकती हूं या नहीं. लेकिन मैंने उसी ऑफिस में अपने संपादक को कई लोगों के पास जाकर ये कहते हुए जरूर देखा है कि ‘‘अरे नई पॉस्ट आई है तुम भर रहे हो ना, अरे नया अटैचमेंट आया है अप्लाई किया या नहीं.’’ हां, ये बात भी सही है कि मैंने खुद जाकर उनसे क्यों नहीं पूछा, वो इसलिए क्योंकि बीबीसी में रहकर इतना तो पता चल ही गया कि यहां पहले लोगों को पसंद किया जाता है, उन्हें सिलेक्ट किया जाता है और फिर उनके लिए वैकेंसी निकाली जाती है और ऐसा सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि बीबीसी का एक गार्ड भी जानता है.
मुझे अपने मामले में ऐसी कोई सकारात्मक रवैया नहीं दिख रहा था. जिस संस्थान में मैं अपने सम्मान की लड़ाई लड़ रही थी, जहां मैं अपनी पहचान बनाने के लिए गई थी, जहां मैं चाह रही थी कि लोग मुझे भी एक्सेप्ट तो कर लें. ये सब हो पाता को ही ना मैं कुछ और सोच पाती! इन्हें मुझे रखना होता तो कुछ कर के रख लेते फिर किसी मिस्टर झा के आने का बहाना ना बनाना पड़ता लेकिन सवाल तो यही है कि इन्हें मुझे रखना ही नहीं था.
नोट: इस पोस्ट से यह निष्कर्ष बिल्कुल न निकाला जाए कि मैं बीबीसी की नौकरी वापस पाना चाहती हूं या फिर मैं बीबीसी से निकाले जाने से खफ़ा हूं. मैं स्पष्ट करना चाहती हूं कि मेरी लड़ाई न्यूज़ रूम में भेदभाव के ख़िलाफ़ है. बीबीसी में शुरुआत से ही मेरी लड़ाई एक्सेप्टेंंस की रही है. मेरा ये अनुभव उसी लड़ाई का हिस्सा है. यहां मैं ‘निकालने’ जैसे शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रही हूं क्योंकि अब तो मुझे भी यही लग रहा है, जबकि इससे पहले मैंने कहीं नहीं कहा था.
To be continued….इससे आगे का वाकया अगले लेख में पढ़े।
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