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Social - November 16, 2019

बिरसा मुंडा को भारत रत्न, सब तरफ़ से बहुजनों की एक ही अवाज!

सुगना मुंडा और करमी हातू के बेटे बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को झारखंड में राँची के उलीहातू गाँव में हुआ था. साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढ़ाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढ़े. एक अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को एकत्र कर अंग्रेजों के खिलाफ लगान माफी का आन्दोलन किया. 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में 2 साल के कारावास की सजा दी गयी. 1898 में तांगा नदी के किनारे बिरसा मुंडा की अगुआई में आदिवासियों ने अंग्रेज सेना को मात दी. गुस्साए अंग्रेजों ने बाद में उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं को गिरफ्तार किया और प्रताड़ित किया.

आदिवासियों का संघर्ष 18वीं शताब्दी से चला आ रहा है. 1766 के पहाड़िया-विद्रोह से लेकर 1857 के ग़दर के बाद भी आदिवासी लड़ते रहे.1895 से 1900 तक बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘ऊलगुलान’ चला आदिवासियों को जल-जंगल-ज़मीन और प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल करने का विरोध हुआ. 1895 में बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों की लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-ज़मीन की लड़ाई छेड़ी थी. बिरसा मुंडा ने सूदखोर महाजनों के ख़िलाफ़ भी जंग का ऐलान किया. ये महाजन जिन्हें वे दिकू कहते थे क़र्ज़ के बदले उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेते थे. बिरसा मुंडा का संघर्ष मात्र विद्रोह नहीं था. यह आदिवासी अस्मिता स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए लड़ा गया संग्राम था.

एक तरफ ग़रीबी थी और दूसरी तरफ ‘इंडियन फारेस्ट एक्ट’ 1882 ने आदिवासियों के जंगल छीन लिए थे. जो जंगल के दावेदार थे. वही जंगलों से बेदख़ल कर दिए गए. यह देख बिरसा मुंडा ने हथियार उठा लिए और हो गया उलगुलान शुरू. 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे. बिरसा और उनके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था. अगस्त 1897 में बिरसा मुंडा और उनके 400 सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला था. संख्या और संसाधन कम होने की वजह से बिरसा मुंडा ने छापामार लड़ाई का सहारा लिया.

रांची और उसके आसपास के इलाकों में पुलिस उनसे आतंकित थी. अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए उस समय “500 रु” का इनाम रखा था. बिरसा मुंडा और अंग्रेजों के बीच अंतिम और निर्णायक लड़ाई 1900 में रांची के पास दूम्बरी पहाड़ी पर हुई. हज़ारों की संख्या में मुंडा आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े. 5 जनवरी, 1900 में स्टेट्समैन अखबार के मुताबिक इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए थे. हालात आज भी वैसे ही हैं जैसे बिरसा मुंडा के वक्त थे. आदिवासी खदेड़े जा रहे हैं. दिक्कत अब भी हैं. जंगलों के संसाधन तब भी असली दावेदारों के नहीं थे और न ही अब हैं.

(महेंद्र नारायण यादव)

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