‘एल्गार परिषद के आयोजकों का आंबेडकरी आंदोलन से कोई रिश्ता नहीं है’
विमर्श। हर साल की तरह इस साल भी भारी संख्या में बहुजन समाज के लोग अपने वीर पुर्वजों को अभिवादन करने भीमा कोरेगांव पहुंचे थे। 1 जनवरी को लाखों की तादाद में इकठ्ठा हुए बहुजन समाज के इन निहत्थे लोगों पर ब्राम्हणी विचारधारा से पीड़ित संगठनों के सदस्यों ने कायराना हमला किया था। उस समय पूरे देश में बहुजनों ने संवैधानिक तरीके से इस घटना का विरोध किया था। उस कायराना हमले के विरोध में हुए आंदोलनों में नक्सली नेताओं का हाथ होने का दुष्प्रचार यहां की ब्राम्हणवादी मीडिया और सरकार करने लगी। इसी आरोपों के तहत बीते महीनें विद्रोही मासिक पत्रिका के संपादक सुधीर ढवले, नागपुर के वकील सुरेंद्र गडलिंग, माओवादी नेता होने के आरोपी दिल्ली के रोनी विल्यम्स साथ में कबीर कला मंच के सदस्यों के घर में छापेमारी हुई थी। इस कार्रवाई के बाद पुलिस ने चार लोगों को गिरफ्तार किया है। यह गिरफ्तारी भीमा कोरेगांव में हुए दंगों के आधार पर की गई है ऐसा बताया जा रहा है। जो चार लोग गिरफ्तार हुए उनमें विद्रोही मासिक पत्रिका के संपादक सुधीर ढवले, इंडियन एसोसिएशन ऑफ पिपुल्स लॉयर संगठन के महासचिव एडवोकेट सुरेंद्र गडलिंग, प्रोफेसर शोमा सेन, कमिटी फॉर द रिलीज ऑफ पॉलिटीकल प्रिजनर्स के जनसंपर्क सचिव रोना विलियम और भारत जनआंदोलन के महेश राऊत हैं। इन लोगों की गिरफ्तारी का सीधा संबंध आंबेडकरी आंदोलन से जोडा जा रहा है जो सरासर गलत है। आंबेडकरी आंदोलन को नक्सलवादी-माओवादी नेताओं- कार्यकर्ताओं से जोडकर बदनाम करना ब्राम्हणी मीड़िया को अब रोक देना चाहिये। साथ ही आंबेडकरी आंदोलन से जुडे साथियों को भी इनके साथ कोई सहानुभूती न रखकर इनका प्रचार करना रोक देना चाहिए।
भीमा कोरेगांव हमले के खिलाफ बौद्ध-आंबेडकरी, बहुजन साथियों ने जो आंदोलन किये थे, उसमें बहुत ही कम पत्थरबाजी जैसी घटनाएं हुई थी। इस प्रकार की घटनाएं किसी भी संगठनों के आंदोलनों में देखी जा सकती हैं। घटित इन छोटी घटनाओं को ब्राम्हणी मीडिया ने बड़ा-चढाकर पेश किया था। इन आंदोलनों के खिलाफ पुणे के विश्रामबाग पुलिस थाने में 8 जनवरी को किसी ने रिपोर्ट लिखवाई थी। इस रिपोर्ट में लिखा गया था कि पुणे में 31 दिसंबर के एल्गार परिषद में आयोजकों द्वारा दिए भड़काऊ भाषणों की वजह से भीमा कोरेगांव का हिंसक हमला हुआ है। इसी रिपोर्ट के आधर पर ही इन पांचो लोगों को गिरफ्तार किया गया। इसी आधार पर मामले भी दर्ज किये गए। इन गिरफ्तारियों का सीधा संबंध आंबेकडरी आंदोलन से जोडा गया और आंबेडकरी कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया है ऐसी कहानी ब्रम्हणी प्रचार तंत्र एवं मीडिया द्वारा गढ़ी गई।
आंबेडकरी आंदोलन आज तक संवैधानिक तरीकों से ही आंदोलन करते आया है। इस आंदोलन से जुडे कार्यकर्ता कभी भी गैरसंवैधानिक तरीके से आंदोलन नहीं करते या फिर उनमें शामिल नहीं होते। यह इतिहास रहा है। पुणे में आयोजित एल्गार परिषद प्रचलित आंबेडकरी संगठनाओं में से किसी भी संगठन ने आयोजित नहीं करवाई थी। जिन्होंने यह परिषद आयोजित करवाई थी, उन संगठनों में कोई भी संगठन अनुसूचित जाति, जनजाति, बौद्ध या किसी भी आंबेडकरवादी समूहों के सवालों पर लढ़ती दिखाई नहीं देती गिफ्तार हुए सुरेंद्र गडलिंग, रोनी विलयम, शोमा सेन, महेश राऊत ये लोग अनुसूचित जाति जनजाति के सवालों पर, सांस्कृतिक मुद्दों पर, राजनैतिक विषयों पर स्कॉलरशिप, आरक्षण, उच्च शिक्षा में होते जातीय भेदभाव, नौकरियों में होते जातीय भेदभावों पर कभी भी आंदोलन करते हुए नहीं दिखेंगे। फिर ये लोग आंबेडकरवादी कैसे हुए..?
गिरफ्तार हुए सभी आरोपियों के संबंध सीपीआई(माओवादी) इस प्रतिबंधित संगठना से सक्रियता से है। सुधीर ढवले इन्हें इसी आरोपों के तहत 2011 में गिफ्तार किया गया था। उन्हे 40 महिनों तक बंदी बनाकर रखा गया था। सुधीर ढवलेही एल्गार परिषद के मुख्य आयोजक थे। एल्गार परिषद के लिए कबीर कला मंच और समता मंच के कलाकारों ने पूरे महाराष्ट्र में प्रचार किया था। उन्हें तो आंबेडकवादी बोलने का सवाल ही पैदा नहीं होता। भारतीय संविधान का उनके लिए कोई महत्व नहीं है। उनके प्रचार साहित्यों से यह आसानी से पता लगाया जा सकता है। उनके गानों और भाषणों में आंबेडकरवाद कहीं भी दिखाई नहीं देता। भारतीय संविधान, आंबेडकरी आंदोलन और भारतीय संसदीय लोकतंत्र की आधार शीला है। यह अमुल्य भेंट बाबासाहब ने इस देश को दी है। भारत और इसका संविधान लोकतंत्र के पैरों पर ही निर्माण हुआ है। ब्राम्हणवादी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा जिस तरीके से इसे तोड़ने मरोड़ने में लगी है, और इसे ब्राम्हणी राष्ट्र सिद्ध करने के पीछे पड़ी है। ठीक उसी तरह माओवादियों को भारतीय संविधान और लोकतंत्र नष्ट करना है। इसके बदले में उन्हें साम्यवादी राष्ट्र का निर्माण करना है। यह बात पहले भी वे स्पष्ट कर चुके हैं। इसके लिए वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तर्ज पर ही हिंसा फैलाते हैं। इसलिए यह संगठनाए आंबेडकरी तत्वप्रणाली और भारतीय संविधान की विरोधी संगठनाएं हैं। माओवादी संगठना ब्राम्हणवाद के रक्षण के लिए बनाया गया बच्चा है।
देश में होने वाले चुनावों में साम्यवादी राज स्थापित करने का सपना देखने वाले भाकपा और माकपा का जनाधार कम होता जा रहा है। इसलिए ये राजनीतिक पार्टियां उनकी खाली होती जगह भरने के लिए शसस्त्र क्रांति करके साम्यवादी राज लाना चाहती हैं। यह काम सरकार द्वारा बंद किए गए माओवादी कम्युनिस्ट पार्टियां करती है। इसलिए माओवादी प्रचारक अलग-अलग संगठनों के नाम पर अलग-अलग मुद्दों पर विशेषतः आंबेकडरी जनता को साथ लेकर अपना स्थान सुनिश्चित करना चाहती हैं। फिर भी एक दो बडे नेताओं को छोडकर आंबेडकरी जनता का आधर इन्हें नहीं मिला।
भीमाकोरेगांव मे हुए जातीय दंगल के खिलाफ जो आंदोलन महाराष्ट्र में किया गया था, उसमें कबीर कला मंच और आंबेडकरी आंदोलन के साथ न होने वाली संगठनाएं सक्रियता से उतरी थीं। माओवादी -नक्सलवादी होने के आरोपों पर जो लोग जेल की हवा खाकर आए थे उन्हीं लोगों ने एल्गार परिषद आयोजित की थी। यह संगठनाएं 2 जनवरी के भारत बंद के मौके पर कहीं भी दिखाई नहीं दी। अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछडों के सवालों पर कबीर कला मंच, समाज रचना मंच, विद्रोही सांस्कृतिक आंदोलन उसी प्रकार एल्गार परिषद, एल्गार मोर्चा आयोजित करने वाली वो 250 संगठनाएं आगे आकर आंदोलन में शामिल होते नहीं दिखतें। यह तथाकथित संगठन केवल भावनाओं के आधार पर आंबेडकरी जनता को भड़काती है। इसमें से आंबेडकरी युवाओं को गैरसंवैधानिक तरीके से जाल में फंसाना आसान है। इसलिए आंबेडकरी युवा, कार्यकर्ताओं को छोटी-मोटी संगठनों के माध्यम से उनके समर्थन में खडा होने की कोई जरूरत नहीं है। आज जरूरत है आंबेडकरी आंदोलन को ब्राम्हणवाद और माओवाद से बचाने की।
-सुनील खोबरगड़े, संपादक, महानायक
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