बीपी मंडल, फूले शाहू अंबेडकर पेरियार विरासत के बहुजन नायक
By-Manisha Bangar
भारत का इतिहास वैसे तो बहुत पुराना है खासकर द्विजों के नजरिए से लेकिन वंचितों के लिए लिहाज से बहुत नया है। खास बात यह कि बदलाव तभी हुए हैं जब शूद्र वर्ग एक साथ हुआ। पहले जोतिबा फुले ने शूद्रों के हक-अधिकार की बात कही। शूद्रों को पढ़ने का अधिकार दिलाया। फिर शाहू जी महाराज ने कोल्हापुर रियासत में शूद्रों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया। उनका जोर भी शिक्षा पर था। बाद में बाबा साहब आंबेडकर ने इसी मार्ग पर चलते हुए संविधान में आरक्षण का अधिकार सुनिश्चित किया। हालांकि वह ओबीसी के लिए अलग से कोटा का प्रावधान नहीं कर पाये। लेकिन संविधान की धारा 16(4) में इसकी बुनियाद जरूर रख दी थी। इसी बुनियाद के आधार पर पहले कालेलकर आयोग बना जिसके ब्राह्मण अध्यक्ष ने पहले तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को रिपोर्ट सौंपी फिर बाद में पत्र के जरिए रिपोर्ट को खारिज करने की बात कही।
इसके बाद मोरारजी देसाई सरकार ने मंडल कमीशन का गठन किया और करीब नौ वर्षों तक ठंडे बस्ते में पड़े रहने के बाद वी पी सिंह ने इसे लागू किया। यह नब्बे का दौर था। मंडल साहब ने ओबीसी को सरकारी नौकरियों एवं उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश हेतु 27 फीसदी आरक्षण का अधिकार देने की अनुशंसा की। यह एक युगान्तकारी घटना थी। इतनी युगांतकारी कि आजादी के बाद भारत के इतिहास का यदि अध्ययन हो तो उसके दो ही भाग अहम होंगे। पहला मंडल के पहले और दूसरा मंडल के बाद।
यहां यह बात समझने की है कि मंडल कमीशन का लागू होने से केवल ओबीसी वर्ग को ही लाभ नहीं हुआ। इसका फायदा दलितों को भी मिला। मंडल के बाद ही बाबा साहेब के बारे में लोग जान सके। इसके पहले बाबा साहेब केवल बहुजन समाज पार्टी की रैलियों में नजर आते थे। भारत रत्न का सम्मान भी मंडल के बाद ही मिला।
कहना अतिश्योक्ति नहीं कि नब्बे के दशक में जब मंडल कमीशन की मात्र एक अनुशंसा लागू हुई तब इसका बहुत फर्क पड़ा। खासकर सामाजिक क्षेत्र में। दलितों का भी सामाजिक सशक्तिकरण हुआ। ऐसा इसलिए हुआ कि पहले आरक्षण रहने के बावजूद दलित उच्च वर्ग के आगे बेबस थे। मंडल कमीशन के अनुशंसा लागू होते ही सवर्णों ने कोहराम मचाना शुरू किया। वे दलितों और आदिवासियों के आरक्षण को स्वीकार कर चुके थे लेकिन बहुसंख्यक ओबीसी को उसका वाजिब हक मिले, उन्हें बर्दाश्त नहीं था।
अदालत में भी उनका यह रवैया सामने आया जब क्रीमीलेयर के जरिए ओबीसी को एक्सक्लूड करने की साजिश को अंजाम दिया गया। जबकि होना तो यह चाहिए था कि उपेक्षित ओबीसी को अधिक से अधिक मौका देकर शासन और प्रशासन में उनकी हिस्सेदारी को बढाया जाता। परंतु सवर्णों की साजिश कामयाब रही। वह तो ओबीसी की राजनीतिक ताकत थी जिसने उच्च शिक्षा में ओबीसी का आरक्षण लागू कराया। जरा सोचिए कि यदि यह नहीं हुआ होता तब क्या हालात होते।
बहरहाल केंद्र सरकार शूद्रों की एकता को खंडित करना चाहती रही है। आज भी वह उपवर्गीकरण के नाम पर ओबीसी को बांटना चाहती है ताकि बहुसंख्यक ओबीसी समाज की राजनीतिक ताकत क्षीण हो सके। दलितों को ओबीसी से दूर करने के तमाम षड्यंत्र रचे जा रहे हैं। जरूरत है कि हम सभी दलित और ओबीसी अपनी एकता से ऊनकी साजिशों को नाकाम करें।
आइए हम फुले को याद करें। शाहूजी महाराज को याद करें। बाबा साहब के प्रति कृतज्ञता प्रकट करें। हम मंडल साहब को भी याद करें जिन्होंने इक्कीसवीं सदी में हमारे लिए हमारी धरती पर हमारा अधिकार सुनिश्चित करने का रास्ता दिया है।
-मनीषा बांगर, संपादक, नेशनल इंडिया न्यूज
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