चंद्रशेखर रावण: हर रिहाई का मतलब आजादी नहीं होती
By- Santosh Yadav
विमर्श। हंगामा और सियासत तो होनी ही थी। आखिरकार यह चंद्रशेखर रावण की रिहाई का मामला है। वहीं चंद्रशेखर रावण जिन्होंने उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में जहां ठाकुरों का घोषित और अघोषित दोनों राज कायम है, वहां ‘द ग्रेट चमार’ का नारा बुलंद किया। जाहिर तौर पर उनके उपर से रासुका हटाने का मामला इतना आसान नहीं है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आखिर क्यों भला रातों-रात चंद्रशेखर रावण के उपर से रासुका हटाने का निर्णय लिया? क्या उन्हें कोई सपना आया था जो आधी रात के बाद चंद्रशेखर को रिहा किया गया? क्या योगी सरकार इस बात से डर गयी थी कि यदि दिन के उजाले में चंद्रशेखर को रिहा किया गया तो हंगामा हो सकता है? वे दलित जिनके योद्धा को सरकार ने करीब 16 महीने तक कैद में रखा, वे कहीं अपना धैर्य न खो दें? या फिर यह कि चंद्रशेखर रावण को राजनीति करने का मौका न मिले?
खैर ये सवाल तो बहुत छोटे हैं। बड़े सवालों की सूची लंबी है। सबसे पहला सवाल तो यही कि क्या चंद्रशेखर को रिहा करने का विचार योगी आदित्यनाथ को सपने में आया था? तकनीकी रूप से जवाब नहीं है। राजनीतिक रूप से भी इसका जवाब नकारात्मक ही है। बीते 6 सितंबर 2018 को चंद्रशेखर के परिजनों की ओर से एक निवेदन मुख्यमंत्री से किया गया था जिसमें रासुका हटाने और रिहा करने की मांग की गयी थी। सरकारी बयानों में इसी निवेदन को आधार बताया जा रहा है, जिसके उपर दया करते हुए योगी आदित्यनाथ ने चंद्रशेखर को रिहा किया। ज्यादा तकनीकी तरीके से इस बात को समझने का प्रयास करें तो रासुका लगाने अथवा हटाने की अनुशंसा संबंधित जिलाधिकारी द्वारा किया जाता है जो सीधे-सीधे मुख्यमंत्री के हाथ से नियंत्रित होता है। इस मामले में भी यही हुआ जबतक योगी आदित्यनाथ ने चाहा चंद्रशेखर पर रासुका लगाया जाता रहा और जैसे ही उन्हें इस बात की भनक लगी कि चंद्रशेखर सपा और बसपा के बीच बन रहे राजनीतिक गंठजोड़ के लिए खतरा बन सकता है जिसका लाभ भाजपा उठा सकती है, राष्ट्र सुरक्षा का सवाल खत्म हो गया और परिणामस्वरूप रासुका हटा लिया गया।
अब असल सवाल यह भी नहीं है कि राजनीति में चंद्रशेखर के सक्रिय होने से किसको क्या लाभ मिलेगा और किसको कितना नुकसान होगा। सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश में बहुजन राजनीति किस दिशा में आगे बढ़ेगी। अभी तक जो बात सामने दिख रही है, उसके अनुसार यह तो कहा ही जा सकता है कि चंद्रशेखर के जेल में रहने से मायावती की राजनीति भी कमजोर हो रही थी और उसे एक मौका भी मिल रहा था। कमजोर इस मायने में कि बहुजनों में यह बात चर्चा का विषय बन चुकी थी कि मायावती चंद्रशेखर रावण के पक्ष में नहीं खड़ी हैं। यदि वे उनके साथ खड़ी हो जातीं तो योगी आदित्यनाथ उन्हें गिरफ्तार कर जेल में रखने की हिम्मत न जुटा पाते। चंद्रशेखर के जेल में रहने से मायावती के पास एक मौका भी था। मौका यह कि बहुजनों में एक नया नेतृत्व उभर रहा था, वह किसी मुकाम तक पहुंचने के पहले ही नेस्तनाबुद हो गया। जाहिर तौर पर चंद्रशेखर की भीम आर्मी कोई आर्मी नहीं बल्कि वन मैन टीम के रूप में सामने आयी। ठीक वैसे ही जैसे अन्य क्षेत्रीय पार्टियां हैं। फिर चाहे वह अखिलेश यादव – समाजवादी पाटी, लालू प्रसाद – राजद, मायावती – बसपा या फिर शिवसेना या रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया।
बहरहाल चंद्रशेखर की रिहाई एक महत्वपूर्ण घटना है। लोकसभा चुनाव के पहले उनका रूख किधर रहेगा, उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए तो महत्वपूर्ण होगा ही, देश की राजनीति के लिए भी खासा दिलचस्प होगा। यदि वे भाजपा के एजेंट के रूप में काम करते हैं तो नुकसान सपा और बसपा को होगा ही, यह कहना जल्दबाजी होगी। वहीं यदि वे भाजपा के खिलाफ रहकर मायावती की राजनीति में शामिल होते हैं तो उनका राजनीतिक रूप से खात्मा निश्चित है। इसलिए हर रिहाई का मतलब आजादी नहीं होती। यह बात चंद्रशेखर भी बखूबी समझ रहे होंगे।
लेखक-संतोष यादव
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