जितना डरोगे उतना मरोगे – कलकत्ता के पैदल रिक्शा खीचनेवाले की कहानी
अमित रोहिला
“अरे, बाबू जी कलकत्ता घूमने आए हो …क्या बात है वाह ! चलिए आइए, बैठो…अपनी रामप्यारी में आपको कलकत्ता घुमाऊ।” उसके कहते ही मैंने भी कहा “हाँ हाँ, चलिए….मुझे सब जगह दिखा दीजिए…ताकि मैं दिल्ली जाकर दोस्तो को बता सकू कि पूरा कलकत्ता घूमा है।” मैं बैठ गया और वो लेकर चल पड़ा। दरसल वो जिसे रामप्यारी कह रहा था, वो उसका ‘रिक्शा’ था। कलकत्ता पैदल खीचने वाली रिक्शा के लिए मशूहर है।
“हाँ तो भईया, जहां से आप बैठे है वो है पार्क स्ट्रीट…अब हम न्यू मार्केट होते हुए कलकत्ता की सबसे मशहूर जगह कॉलेज स्ट्रीट जाएंगे।” इतना कहने के बाद वो मुझे कलकत्ता के बारे में बताने लगा। वो बहुत कुछ जानता था कलकत्ता के बारे में, उसने बीस से भी ज़्यादा साल यहां गुज़ारे है…ऐसा उसने मुझे बताया । हम दोनों बात करते चले जा रहे थे। कोई उसकी रिक्शा के आगे आता तो उसके हाथ में कुछ घुंघरु थे जिसका उसने हॉर्न बनाया हुआ था…वो बजाना शुरू कर देता था। मुझे वो बहुत दिलचस्प इंसान लगा तो मैंने उससे बात करना शुरू किया। उसका नाम दया शंकर था….वो कलकत्ता का रहने वाला नही था। बिहार से काम की तलाश में यहां आया और यही का होकर रह गया।
जैसे-जैसे हम चले जा रहे थे…वो मुझे हर चीज़ के बारे में बताए जा रहा था। जल्दी ही न्यू मार्केट आ गया। उसने बताया कि “जैसे दिल्ली में चाँदनी चौक का मार्किट है, ये ठीक वैसा ही मार्किट है। बहुत सस्ता समान मिलता है।” रविवार का दिन, मार्किट में बहुत भीड़…हम मार्किट से निकल रहे थे..इतने में उसका रिक्शा एक कार वाले से थोड़ा सा टकरा गया। मैं उसकी बातों में और बाज़ार की चकाचौंध में इतना खो गया था कि मुझे समझ ही नही आया कि हुआ क्या। कार वाला, कार से उतर कर तेज़ी से उसकी तरफ आया, तो मुझे लगा कि अब तो पका रिक्शे वाला पिटेगा। अब ऐसा सोचने में मेरा क्या कसूर, हम देखते ही है कि “गलती किसी की भी हो, पिटेगा वही जो गरीब होगा।” अब यहां गरीब था रिक्शे वाला..तो उसी का पीटना तय था। मैं रिक्शे पर ही बैठा सब देख रहा था, दया शंकर से आकर कार वाला लड़ाई करने लगा। उसने बंगाली में क्या कहा मुझे समझ नही आया। लेकिन दया शंकर क्या कह रहे थे वो मुझे समझ आ रहा था उसके शरीर के एक्शन से…क्योंकि दया शंकर कार वाले कि आँखों मे आँखे डाल कर बात कर रहे थे उससे। जिस वजहसे कार वाले ने हाथ उठाने की हिम्मत तो नही की। जल्दी ही वहां लोगो की भीड़ जमा हो गई और लोगो ने लड़ाई खत्म करा दी। कार वाला चला गया और दया शंकर भी मुझे लेकर चल पड़े..कॉलेज स्ट्रीट की तरफ। मैंने पूछा “क्या हो गया था ? क्या कह रहा था वो ? और उसने आप को ऐसे ही छोड़ दिया….मतलब माफ़ करना, लेकिन दिल्ली में होते तो अब तक आपको बहुत मार चुका होता कार वाला, लेकिन यहां तो आपने उस से क्या हिम्मत दिखाते हुए बात की और उसने कुछ कहा भी नही।”
“भईया, ये बात नही है…मारने को तो यहां भी लोग मार ही देते है। लेकिन वो कहते है न कि “जितना डरोगे उतना मरोगे” बस इसी बात पर हम टिक गए है…ज़िन्दगी एक ही है, कब ख़त्म हो जाए क्या मालूम, लेकिन जब तक जिएंगे शान से लोगो से आँखों मे आँखे डाल कर बात करके जीएंगें। हम रिक्शा चलाते है, गरीब है तो इसका ये मतलब थोड़ी है कोई भी हमे पेल कर चला जाएगा।”
उसने ये बात बहुत साहस से कही,जो मुझे अच्छी लगी। हम बात करते करते चले जा रहे थे।
“अच्छा, चाचा एक बात कहे..अबसे हम आपको चाचा कहेंगे, हाँ तो बात ये की आप बहुत अच्छे लगे हमे। सबसे मस्त तो आपका बात करने का अंदाज़, आप जो दिलेरी से, आँखों मे आँखे डाल कर जवाब देते है न…वो हमे बहुत अच्छा लगा।”
ये सुनकर वो हँसने लगे। कॉलेज स्ट्रीट आ गया था…”लीजिए भईया, ये है आपका कॉलेज स्ट्रीट…।
कितने पैसे बने चाचा यहां तक के ?
तीस रूपए हुए है।
अच्छा….एक फ़ोटो लेलेे आपके साथ।
हाँ, लो न…देखना फ़ोटो अच्छा आए।”
मैंने फ़ोटो ली और बैग से पैसे निकाल कर तीस रुपए देने लगा। उन्होंने पैसे लिए और गिनने लगे। “अच्छा, चाचा…ज़िन्दगी में होगा तो मिलेंगे कभी..ख़्याल रखिएगा।” मैं इतना कह कर चल पड़ा… पांच-सात क़दम दूर आकर मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो, वो अपने गमछे से..अपने मुँह पर आया पसीना पोछ रहे थे।
मैं उनके पास फिरसे गया…”चाचा एक बात बताओ।”
वो मुझे देख कर बोले “हाँ बोलो…
“चाचा, आप दिन भर ऐसे रिक्शा लेकर चलते है…थकते नहीं हो ?”
ये सवाल सुनते ही उन्होंने अपना चेहरा मेरी तरफ से नीचे कर लिया और बोले “नही बेटा…” और हल्के से मुस्कुरा दिए।
मैं अब अपने घर आ गया हूँ…अपने साथ एक सवाल लेकर “उस दिन चाचा ने हर बात का जवाब बिल्कुल दमदार तरीक़े से, आँखों में आँखे डाल कर दिया…फिर मेरे उस सवाल का जवाब उन्होंने आँखों मे आँखे डाल कर क्यों नहीं दिया।”
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