रमाबाई सरस्वती के विचारोक्त भाषणों से बंगाल के तथाकथित समाज सुधारक ब्राहम्ण परेशान हो उठे थे
By_Manish Ranjan
रमाबाई सरस्वती एक प्रतिष्ठित धर्मांतरित ईसाई थीं। वह लेखिका और कवयित्री, क्रांतिकारी समाज सुधारक , महिला उत्थान की प्रबल समर्थक और लिंगभेदी ब्राह्मणी व्यवस्था की घोर विरोधी थीं।1907 में प्रकाशित ‘ए टेस्टीमोनी’ नामक किताब में रमाबाई लिखतीं हैं,
“महिलाओं के प्रति भेदभाव हिंदुवादी दर्शन में आंतरिक रूप से ही निहित है। ब्राह्मण धर्म शास्त्र, ग्रंथ, पुराण और आधुनिक कवि व लोकप्रिय उपदेशक और उच्च जाति के रूढ़िवादी लोग, दो बातों पर सभी सहमत हैं कि पहला, सभी औरतें बहुत बुरी और दुष्ट होती हैं तथा दूसरा, की वे राक्षसों से भी गई-गुजरी हैं और झूठ कि तरह अपवित्र हैं.” रमाबाई सरस्वती का यह निष्कर्ष केवल किसी अध्ययन का परिणाम नही था वल्कि अपने जीवन मे उनने एक स्त्री होने के कारण जो दुश्वारियाँ झेली थी, कलंक भोगा था , उसका मुख्य योगदान था इसमें।
शिक्षक पिता द्वारा रमा को शिक्षित करने पर अड़े रहने के कारण पोंगा-पंडितों के कोप का भाजन बनना पड़ा और गाँव से बहिष्कृत होना पड़ा। कोढ़ में खाज यह कि अलग-थलग कर दिया गया रमा का परिवार 1877 में आए भीषण अकाल का सामना करने में विफल रहा और रमा के माता पिता की मृत्यु हो गई। संबंधी के नाम पर बचे एकमात्र बड़े भाई की भी जल्दी ही मौत हो गई। उसके बाद रमाबाई ने बंगाली वकील, बिपिन बिहारी दास से अंतर्जातीय-अन्तरक्षेत्रीय शादी कर ली। पति का साथ भी ज्यादा नही मिल सका। शादी के दो साल बाद ही इनके पति का भी देहांत हो गया। उक्त सभी घटना पांच से छह साल के दरम्यान घट गई। रमा पर जैसे पहाड़ टूट गया । उधर रूढ़िवादियों ने इस सबका कारण किसी न किसी तरह रमाबाई को ही ठहराया था। खैर, इन अनंत बाधाओं ने भी रमाबाई के दृढ़ संकल्प को डिगा न सके और वे जीवन भर नर-नारी समता के अपने लक्ष्य पर निरंतर अड़ी रहीं तथा लिंग भेद के सभी रूपो का पर्दाफाश करती रहीं, उसे दूर करने के लिए संघर्ष करती रहीं।
19वीं शताब्दी के दौरान गुलाम भारत में स्त्री समाज की दशा बेहद दयनीय थी। ऐसे समय में एक ऐसी विदुषी महिला ने समाज को आईना दिखाने का काम किया, जो खुद सामाजिक बहिष्कार का शिकार थीं। 23 अप्रैल 1858 को मैसूर रियासत के गंगमूल में पैदा हुईं रमाबाई के बचपन का नाम रमा डोंगरे था। यह वह दौर था जब ब्राह्मणवादी समाज महिलाओं को पढ़ने की इजाजत नहीं देता थ। लेकिन इनके शिक्षक पिता अपने बच्चों को पढ़ाने पर अड़े रहे, नतीजतन इनके पूरे परिवार को गांव से बाहर कर दिया गया। पिता भी समाज सुधारक थे, उन्होंने इतने पर भी हार नहीं मानी और बच्चों को अच्छी शिक्षा देनी जारी रखी।
इसी बीच 1877 में भयंकर अकाल पड़ा और इनके माता-पिता असमय काल के गाल में समा गए। अब केवल रमाबाई और उनके भाई ही जीवित बचे थे। इस कलंक के साथ कि धर्म विरुद्ध शिक्षा ग्रहण के कारण ही इनके माता-पिता की मृत्यु हुई। स्त्री शिक्षा के समर्थक उनके पिता तो नहीं रहे, लेकिन पिता द्वारा दी गई शिक्षा ने उन्हें आगे पढ़ाई के लिए प्रेरित जरूर किया। भुखमरी के कगार पर पहुँच गए भाई-बहन के लिए जीने का सहारा भी शिक्षा ही था। धर्म विरुद्ध शिक्षा हासिल करने के वजह से ही इन्हें अपने गांव से निकाला गया था पर वही शिक्षा अब इनके जीवन का आधार बन गया था। दोनों भाई बहन घूम घूम कर शिक्षा देने लगे । इस दौरान समाज की दुर्दशा को अपनी आंखों से देखकर इन्हें सामाजिक बुराई की वास्तिविक स्थिति का और नजदीकी साक्षात्कार हुआ।
रमाबाई की स्मृति बहुत तीब्र थी, उन्हें बचपन मे ही हजारों पाठ कंठस्थ हो गए थे और देशाटन के क्रम में अनेक भाषाओं , मराठी, कन्नड़, हिन्दी, बांग्ला आदि पर उनकी अच्छी पकड़ बन गई । 20 साल की उम्र में रमाबाई संस्कृत की ज्ञाता बन गईं। और अपने बड़े भाई के साथ कोलकाता में रहने लगीं। रमाबाई की ज्ञान से कलकत्ता का बौद्धिक समाज आश्चर्यचकित था। वहां उन्हें भाषणों के लिए बुलाया जाता। उनके परिवर्तनकारी विचारों से बौद्धिक बंगाली समाज बहुत प्रभावित था।
रमाबाई ने समाज को अंदर से देखा था, इसलिए उनकी क्रांतिकारिता उनके भाषणों और कार्य कलापों में स्पष्ट झलकती थी। इसी दौरान 1878 ई. में कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें सरस्वती उपाधि से विभूषित किया गया। अब रमा डोंगरे रमाबाई सरस्वती बन चुकी थीं। इसी बीच उनके भाई की मृत्यु हो गई। उन्होंने बंगाल में बाल विवाह और विधवाओं की दयनीय स्थिति पर कार्य करना शुरू ही किया था कि उनके प्यारे भाई का देहांत हो गया। माता-पिता की मृत्यु के बाद उनका एकमात्र सहारा और सम्बल बड़े भाई के जाने के बाद अब रमाबाई विल्कुल अकेले थी। कहने के लिए भी इस दुनिया मे उसका कोई नही था, क्योकि गाँव-घर से वे पिता के जीवन मे ही बहिष्कृत हो चुके थे।
ऐसे में अकेली पड़ चुकी रमाबाई ने अपनी शादी की योजना बनाई। 1880 ई. में बंगाल के ही एक वकील बिपिन बिहारी मेधवी से शादी कर लिया। हालांकि इन्हें जाति के बाहर शादी करने के लिए समाज का विरोध भी सहना पड़ा, लेकिन ये अपने फैसले पर अडिग रहीं। यहां तक उनका वैवाहिक जीवन ठीक चल रहा था कि एक रोज हैजा के कारण उनके पति भी दुनिया छोड़ गए। पति की मौत के बाद वे पूना चली गईं। ऐसे समय में महाराष्ट्र का महिला समाज भी दमनकारी नीतियों के नीचे दबा हुआ था। पर पूना में फुले दम्पति ने इस मामले में विरोधियों को पस्त कर रखा था।
रमाबाई ने पूना में आर्य महिला समाज की स्थापना की और स्त्री-शिक्षा पर पुरजोर काम करने लगीं। उन्हें फुले दम्पति के साथ ही पूना के अन्य समाजसेवियों और महिला शिक्षा के लिए कार्य करने वाले महानुभावों का भरपूर साथ मिला। धीरे-धीरे आर्य महिला समाज की शाखाएं पूरे महाराष्ट्र में खुल गईं। सन 1882 में भारत में शिक्षा की पड़ताल करने के लिए आए हंटर आयोग के समक्ष उन्होंने स्कूलों में महिला शिक्षिकाओं की तादाद बढ़ाने और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी ज्यादा महिला को लाने की मांग की थी। इसी बीच रमाबाई पूना में काम करने वाले एक ईसाई मिशनरी के संपर्क में आईं और वहां से उन्हें इंग्लैंड जाने का अवसर मिला। रमाबाई 1883 ई. में इंंग्लैंड गईं और वहां एक कॉलेज में संस्कृत की प्रोफेसर बन गई।
हिंदू धर्म में फैली कुरीतियां, सती प्रथा और विधवा प्रथा से उनका दम घुटा जाता था, क्योकि वे भुक्तभोगी थीं। ऐसे में वे ईसाई धर्म में मिली स्वतंत्रता से काफी प्रभावित हुईं। ब्राह्मणी संस्कृति की रुढ़िवादिता को समय मिलते ही उन्होंने ठोकर मार दिया और ब्रिटेन के अपने प्रवास के दौरान ही हिंदू धर्म को त्याग कर ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। लगभग 2 साल वहां बिताने के बाद वह अमेरिका चली गईं और फिर 1889 में भारत लौट आईं.। यहां आने के बाद उन्होंने बंबई में शारदा सदन की शुरुआत किया। उनकी इस पहल पर हिंदू महिलाओं का धर्मांतरण कराने के आरोप लगे। लेकिन उन्होंने सभी आरोपों को नकार दिय। रमाबाई चाहती थीं कि शारदा सदन की महिलाएं पुरुषवादी विचारधाराओं से मुक्त होकर आर्थिक रूप से स्वावलंबी बने। उनके ऊपर तरह तरह के आरोप लगाए गए लेकिन वे इन आरोपों से कभी घबराई नहीं।
ये लेख मनीष रंजन के फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है.
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