आंध्रप्रदेश: 8 सफाई कर्मचारियों की मौत का जिम्मेदार कौन, क्यों मानव आयोग खामोश?
By: Sushil Kumar
अरुणाचल प्रदेश के चित्तूर जिले में 8 सफाई कर्मचारियों की मौत सीवर सफाई के दौरान हो गई। 8 सफाई कर्मचारियों की मौत हो जाती है लेकिन हमारे देश में इसे गंभीर मुद्द ही नहीं समझा जाता। सीवर में सफाई कर्मचारियों की मौत की लंबी फेहरिस्त है। लेकिन सवाल कई हैं. आखिर क्यों आधुनिकता के इस दौर में गंदगी से भरे 15 फिट गहरे गड्डे में जाकर सफाई करने पर मजबूर किया जाता है? क्यों तमाम लोगों की मौत के बाद भी व्यवस्था में सुधार नहीं किया जाता. ठेकेदारों के पाले में डालने के बाद इन मजदूरों का खूब शोषण किया जाता है. मुफलिसी के मारे यह लोग कम पैसे में ही जान दांव पर लगाकार सीवर में घुस जाते हैं. सीवर में मिथेन, कार्बनडाइ मोनो आक्साईड, हाइड्रोजन सल्फाईड जैसे दम घोंटू गैस होते हैं और मजदूर इन गैस के चपेट में आकर असमय ही काल के गाल में समा जाते हैं।
इन कर्मचारियों को गंदगी में काम करने से चर्म रोग, सांस एवं आंखों की बीमारी सहित कई तरह कि बीमारियां होती हैं। गंदगी में काम करने के कारण वे शराब और अन्य नशों के लत में फंसते चले जाते हैं। जल बोर्ड में सीवर सफाई कर्मचारियों को आवंटित सरकारी मकान देने में भेद-भाव किया जाता है। उन्हें फ्लैट नहीं मिलता है। एक अध्ययन के अनुसार हर महीने 200 सफाईकर्मियों की मौतें हो जाती हैं। सफाई कर्मचारी आंदोलन के अनुसार 1993 से अब तक उनके पास ऐसे 1370 सीवर मजदूरों के नाम हैं जिनकी मृत्यु काम करने की खतरनाक परिस्थितियों में हुई. इनमें से 480 मजदूरों के उनके पास पूरे रिकॉर्ड हैं.
लेकिन सरकार इन मौतों पर मौन क्यों है जबकि 1996 में मुम्बई कोर्ट और सन् 2000 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कहा कि सीवर में काम करने वालों को प्रशिक्षण के साथ-साथ पूरा सुरक्षा उपकरण मुहैया करवाये। देश का सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि सीवरों की सफाई के लिए मशीन का प्रयोग किया जाये।
आपको बता दें 1993 में सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय सन्निर्माण प्रतिषेध अधिनियम 1993 नाम से एक कानून बनाया गया जिसके तहत मल ढोने, शौचालय की सफाई कराने पर सजा का प्रावधान किया गया। उसके बाद सितंबर 2013 में इससे संबंधित दूसरा कानून बनाया गया जिसके तहत मजदूरों को सीवर में घुसकर सफाई कराने के काम को अपराध की श्रेणी में रखा गया। कानून के अनुसार मैला प्रथा या मानव मल सफाई का काम दण्डनीय अपराध है। जो भी इस कार्य को करने के लिए बाध्य करता है उसके लिए अधिकतम सजा पांच साल की जेल या पांच लाख रुपये जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।
तो क्यों ऐसे में सुप्रीम कोर्ट, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को मामले में संज्ञान नहीं लेना चाहिए? क्या स्वच्छ भारत हाशिये पर पड़ी जनता और समुदाय की कुर्बानियों पर ही होना है? अंधेरे नाले ने हाशिये पर पड़ी समुदाय को और अंधेरा में डाल दिया है। सीवरेज की मौत के जिम्मेदार किसको माना जाये? जिन्दगी की कुर्बानियां देकर हमें स्वच्छ रखने वाले समाज में अछूत कहें जाते हैं। हमें उन्हें अपने घरों के अन्दर या अपने बर्तन उनके साथ साझा नहीं करते। क्या यही सभ्य समाज है जो कि दूसरे कि गंदगी को साफ करे वही गंदगी में रहे, उसी को हम अछूत मानते रहें? आखिर कब तक यह होता रहेगा?
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