प्रेम आणि बहुजन विचारसारणी
By-डॉ मनीषा बांगर
प्रेम एक अनमोल अहसास है। प्रेम चाहे वह किसी भी रूप में क्यों न हो। चाहे वह माता-पिता का अपने बच्चों से प्यार हो या फिर पति-पत्नी के बीच का प्यार। प्यार न हो तो जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है और न ही समाज की।
प्रेम की व्याख्या और ऐहसासात भी समय के साथ बदले है. आधुनिकता जागरूकता शैक्षणिक विकास के आते प्रेम की अनुभूति सिर्फ एक तरफा या पुरुष केंद्रित न होकर दोनों व्यक्तियों ने एक दुसरे का सम्मान करना सहयोग करना , एक दुसरे से ईर्ष्या जलन न करके एक दुसरे को अपने अपने व्यक्तिमत्व को फूलने फलने की स्वतंत्रता देना, इन मापदंडों से भी आँखि जाती है. साथ ही साथ जब पुरुष और स्त्री के बीच प्रेम की बात हो तो polygamy और polyandry के रिश्तों को नाकारा जाना इस पुख्ता समझ के साथ की उपरोक्त संबद्ध महिला या पुरुष दोनों के लिए ही मानसिक और शारीरिक स्तर पर हानिकारक साबित होते है और प्रेम के निश्छल निर्मल सूंदर एहसास और उच्चतम शिखर के मानसिक एवं शारीरिक सुख से दोनों को अलग रखते है.
कई बार इन सब की अभिव्यक्ति शब्दों में नहीं ही की जा सकती है। लेकिन ये भी सच है कििई प्रेम वैसा तो बिल्कुल भी नहीं है जैसा कि हिंदू धर्म ग्रंथों में दिखाया गया है।
भारत में जहाँ ब्राह्मण वैदिक धर्म की नींव पर आधुनिक विचारो को बसना पड़ा, इसीलिए यहाँ mutual love या engaged love , या प्रफुल्लित आनंदित और gratifying fulfilling love की संकल्पना भी पैठ नहीं जमा पाई. और तो और बहुपत्नीत्व को खुला मैदान मिला था.
इससे स्त्री पुरुष दोनों को ही नुक्सान हुआ है. एक बेहतरीन एहसास से दोनों को महरूम रहना पड़ा.
पारंपरिक या ब्राह्मणी धर्म ग्रंथों में जो महिला की छवि बनायीं गयी है , एक संपत्ति , एक भोग वस्तु, एक निम्न स्तर की चालक बहकाने वाली प्रजाति, एक कामुक षड्यंत्रकारी , नरक का द्वार , शूद्र, ताड़ना के योग्य, बददिमाग , अक्ल से दूर, दुष्ट , बदचलन, हमेशा निगरानी में रखने योग्य , इस प्रतिमा ने प्रेम के सुन्दर जज्बे को जन्म लेने के पहले ही मार दिया. वह गुलाम रही, कमतर रही , दुबकी हुई डरी हुई रही, खाली रही ,आत्मविश्वास नहीं कुछ नहीं .
द्वेष दुत्कार अवहेलना हिंसा प्रताड़ना उसके हिस्से में आयी और ऐसी सूरत में वह पूरी तरह से स्त्री के रूप में पनप नहीं पायी. वह इंसान भी नहीं बन पाई . जब वो कुछ और ही बनी रही, कभी पत्थर जैसी , कभी गुलाम तो कभी जानवर जैसी या उससे भी बद्दतर तब फिर पुरुष को वो स्त्री भी कहाँ मिली जिसके साथ उसे प्रेम की अनुभूति हो. इस माहौल में , कुरीतियों और कुविचारों के जंगल में स्त्री तो स्वयं को जैसे तैसे जिन्दा ही रख पायी तब उसकी वैचारिक स्वतंत्रता और शारीरिक स्वतंत्रता का प्रश्न कहाँ से उठता? इस तरह आधा आसमान अधूरा ही रहे तब दूसरा आधा भी क्या अधूरा न रहेगा ? दोनों अधूरे रहे.
और इसीलिए प्रेम वैसा कतई नहीं है जैसे की ब्राह्मणी हिन्दू की संकल्पना से प्रेरित आचरण में नज़र आता है.
मसलन राधा और कृष्ण का ही उदाहरण लें। कृष्ण गोपियों के संग रास रचाते हैं। जेंडर के विमर्श को लेकर बात करें तो यह कितना हास्यास्पद है कि राधा कृष्ण से प्यार करती है वह भी उम्र की सारी सीमाओं को तोड़कर। इसके बावजूद वह अकेली रह जाती है। रह क्या जाती है कृष्ण उसे छोड़ देता है और वह वृंदावन के जंगलों में भटकती रहती है। कृष्ण उसके पास अपना दूत भेजकर यह साबित करना चाहता है कि वह राधा को अब भी प्यार करता है, परंतु खुद जाने की हिम्मत नहीं करता है।
खैर कृष्ण तो छलिया है ही जैसा कि कृष्ण को रचने वालों ने बताया है। लेकिन उस राम को भी देखिए जिसे मर्यादा पुरूषोत्तम का खिताब दिया गया है। जब राम ने सीता को अपनी यौन पवित्रता साबित करने के लिए अग्नि परीक्षा के लिए कहा था तब प्रेम कहां था? जब सीता को उसने अपने घर से निकाला था तब प्रेम कहां था और क्या उसका आचरण कथित तौर पर भी पुरूषोचित था?
पाखंड और अंधविश्वास से भरे हिंदू धर्म ग्रंथों से अलग बहुजन विचारधारा है। बुद्ध ने प्रेम की परिभाषा को हकीकत में लागु करने के लिए दुनिया में पहली बार स्त्री को समानता का हक़दार समझ आध्यात्मिक से लेकर तो स्त्री पुरुष संबंधों तक. नानक गुरु गोबिंद सिंह, संत तुकाराम, शिवाजी महाराज ने इसी परंपरा को आगे बढ़ा कर उसे राजनितिक क्षेत्र में शामिल किया शास्त्र दिए , कलम दी और स्त्री पुरुष संबंधों में उसका निर्णायक स्थान क़ुबूल किया.
आधुनिक भारत सबसे पहला उदाहरण तो जोतिबा फुले का है। विवाह के पहले दिन जोतिबा फुले ने सावित्रीबाई फुले को पढ़ाना शुरू किया। स्त्री को बराबरी का सम्मान दिए बगैर प्रेम कैसे किया जा सकता है? जोतिबा फुले ने इसे साबित किया। समाज से लड़कर अपनी पत्नी को आगे बढ़ने का मौका प्रदान किया। यहां तक कि अपने माता-पिता का भी विरोध झेला।
महिलाओं के आत्मसम्मान की बात हो तो आंबेडकर और रमाबाई को कैसे भुलाया जा सकता है। उनका प्यार भी कितना निश्छल था। एक तरफ बाबा साहब के लोग और उनके अधिकार की लड़ाई तो दूसरी ओर रमाबाई का त्याग। स्वयं बाबा साहब ने भी माना है कि आधाी आबादी को उनका अधिकार दिए बगैर कोई भी देश या समाज आगे नहीं बढ़ सकता है।
पति-पत्नी के बीच प्रेम की अवधारणा कैसी होनी चाहिए, इसकी बेहतरीन व्याख्या पेरियार ने की है। उन्होंने तो साफ कहा है कि विवाहित दम्पतियों को एक-दूसरे के साथ मैत्री भाव से व्यवहार करना चाहिए। किसी भी मामले में, पुरुष को अपने पति होने का घमंड नहीं होना चाहिए। पत्नी को भी इस सोच के साथ व्यवहार करना चाहिए कि वह अपने पति की दासी या रसोइया नहीं है। पेरियार महिलाओं के यौन अधिकारों भी चर्चा करते हैं। वे महिलाओं को भोग्या नहीं मानते हैं।
तो यह है प्रेम की बहुजन अवधारणा, जिसमें बराबरी है, अपनापन है, एक-दूसरे के प्रति सम्मान है।
ज्योतिराव फूले और सावित्री बाई के खत जो उन्होंने एक दुसरे को लिखे, ज्योतिराव की शिष्या मुक्ता जिसने स्त्री पुरुष संबद्ध और तुलना पर किताब लिखी , बाबासाहेब आंबेडकर का रमाबाई को इंग्लैंड से लिखा हुआ खत, पेरियार रामासामी का स्त्री पुरुष संबधो पर लिखे हुए लेख वह अनमोल दस्तावेज है जिससे की हमें प्रेम के इस अवधारणा की पहचान होती है. ये हमारे बहुमूल्य संपत्ति है.
आइए, प्रेम की इस अवधारणा का अनुकरण करें ताकि हम बेहतर समाज के निर्माण में अपनी भूमिका का निर्वहन कर सके .
डॉ मनीषा बांगर~
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