पायल तड़वी और उसके खूबसूरत सपनों की दास्तान
महाराष्ट्र समता और न्याय का सपना देखने वाले फुले, शाहू जी और डॉ. आंबेडकर की जन्मभूमि-कर्मभूमि है, लेकिन यह वर्ण-जाति व्यवस्था और इससे पैदा होने वाले अन्यायों के समर्थक रामदास, तिलक, सावरकर और गोडसे जैसे चितपावन ब्राह्मणों की जन्मभूमि- कर्मभूमि भी है। यह क्रूर पेशवा ब्राह्मणों की भूमि भी है, जिन्होंने अतिशूद्रों को गले में हड़िया और कमर में झाडू बाधकर चलने के लिए बाध्य कर दिया। जो महारों, मांगों और चमारों का सिर काटकर गेंद बनाकर खेलते थे। इन्हीं चितपावन ब्राह्मणों की परंपरा ने एक आदिवासी लड़की और उसके खूबसूरत सपनों की हत्या कर दी। फुले, शाहू जी और डॉ. आंबेडकर की बेटी और उसके सपनों को मार दिया।
रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद पायल तड़वी की हत्या ने पूरे देश के बहुजनों में दुख और आक्रोश भर दिया है। एमबीबीएस करने के बाद पायल जलगांव के चोपड़ा तालुका के धनोरा गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में 2017 में मेडिकल ऑफिसर के रूप में नियुक्त हुई थी। महाराष्ट्र का जलगांव जिला, उन जिलों में शामिल है, जहां आदिवासी भील समुदाय के सबसे अधिक लोग रहते हैं। जलगांव में करीब 6 लाख भील आदिवासी निवास करते हैं। तड़वी इसी भील समुदाय की एक उप-शाखा है। धनौरा गांव के जिस प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में उसकी नियुक्ति हुई थी। वह भील बहुल गांव है। वहां के आस-पास के गांवों में भी बड़ी संख्या में भील समुदाय के लोग रहते हैं। पायल ने प्रयास करके अपने भील बहुल इलाके में अपनी नियुक्ति कराई थी। क्योंकि वह भील समुदाय के लोगों के लिए काम करना चाहती थी। वह मरीजों को बचाने के लिए अपनी जी-जान लगा देती थी। ऐसे कई सारे उदाहरण उसके सहयोगी बताते हैं। वह प्रतिदिन सरकारी बस या अन्य किसी साधन से करीब 30 किलोमीटर की यात्रा कर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचती थी। वह खुद को भील समुदाय के लिए समर्पित करने की योजना बना रही थी। उसके पति सलमान बताते हैं कि वह स्त्री रोग विशेषज्ञ का कोर्स पूरा करके जलगांव वापस आने की योजना बना रही थी। जहां वह (तड़वी) भील समुदाय के लिए एक अस्पताल खोलना चाहती थी। इस तथ्य की पुष्टि पायल के भाई रितेश भी करते हैं। वे बताते हैं कि पायल का कहना था कि वह भील समुदाय के पिछड़े इलाके में काम करना चाहती है। उसके साथ काम करने वाली तनुजा बताती हैं कि “वह अपने काम को लेकर आवेग से भरी रहती थी। वह कठिन से कठिन समय में भी धैर्य बनाए रखती थी। उसकी इच्छा शक्ति बहुत मजबूत थी। लेकिन ऐसी मजबूत लड़की भी जातीय प्रताड़ना के सामने टिक नहीं पाई। आखिर जातिवादी उत्पीड़न ने उसकी जान ले ली। धनौरा गांव और आस-पास के गांवों में सन्नाटा पसर गया, जब उन्हें इस बात की सूचना मिली कि दिन-रात दौड़-दौड़कर उनकी चिकित्सा करने वाली पायल नहीं रही। 22 मई का मनहूस दिन लोगों के लिए दुख का सैलाब लेकर आया। लोगों के लिए वह केवल एक डाक्टर नहीं थी। वह किसी की दीदी थी, किसी की बेटी और किसी की छोटी बहन थी। वह उनकी अपनी थी। वह उनके भील समुदाय की थी। वह उनकी बोली भीली में बोलती थी। उनके सुख-दुख को जानती थी। उनके दिलों से जुड़ी थी। पायल जैसा बनने की चाह रखने वाली लोहरा गांव की 8 वर्षीय सना कहती है ‘कोई पायल दीदी जैसा नहीं हो सकता।’ फिर वह बोल पड़ती है “मैं भी पायल दीदी जैसी डॉक्टर बनूंगी।”
पायल की संस्थागत हत्या ने जिस व्यक्ति को सबसे अधिक तोड़ दिया, सच कहें तो बेसहारा बना दिया, वह हैं, पायल का बड़ा भाई रितेश। रितेश दोनों पैरों से विकलांग हैं। रितेश कहते हैं कि मेरी बहन को मेरी विकलांगता ने भी डॉक्टर बनने को प्रेरित किया। पायल ने अपने माता-पिता से वादा किया था कि वह आजीवन अपने विकलांग भाई की देख-रेख करेगी। पायल की माता अबेदा तड़वी और पिता सलीम तड़वी अपनी लाडली बेटी के डॉक्टर बनने का कभी ख्वाब भी नहीं देखे थे। उसका डाक्टर बनना उनके लिए असंभव से सपने का पूरा होना था। आस-पास का भील समुदाय भी उस पर गर्व करता था। वह समुदाय के लड़के-लड़कियों के लिए कुछ ऐसा करने की प्रेरणास्रोत थी, जो अब तक समुदाय के किसी ने न किया हो। पायल अपने माता-पिता के लिए एक बड़ा संबल थी।
पायल के माता-पिता बताते हैं कि वह तैरने की शौकीन थी। वह स्कूल के प्रत्येक मैराथन में शामिल होती थी। लेकिन उसको सबसे अधिक डांस का शौक था। उसने डांस इंडिया डांस में ऑडिशन भी दिया था। पायल के पिता की जिंदगी का बड़ा हिस्सा मेहनत-मजदूरी करते बीता। बाद में उन्हें जिला परिषद में क्लर्क की नौकरी मिली। जिंदगी की बहुत सारी कठिनाईयों के बीच भी पायल ने पढ़ना जारी रखा। दसवीं की परीक्षा में उसने 87 प्रतिशत अंक हासिल किया। बारहवीं पास करने के बाद 2011 में उसने मेडिकल प्रवेश परीक्षा दिया। उसमें वह पास हो गई। उसे मिराज के मेडिकल कॉलेज में एडमिशन मिला। उसके एडमिशन फीस के लिए माता-पिता ने लोन लिया। आंखों में आंसू भरे पायल की मां अबेदा कहती हैं कि जब उसने कहा कि वह डाक्टर बनेगी, तो हमारी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। पायल के भाई रितेश बताते हैं माता-पिता के रिटायर होने के बाद वही एकमात्र परिवार के लिए आर्थिक सहारा थी।
पायल की मां बताती हैं कि बेटी के बड़ी होते ही हमें उसकी शादी की चिंता सताने लगी थी। हम चाहते थे कि उसकी शादी जल्द से जल्द कर दें। ताकि कोई हमें यह न कह सके कि हम अपनी बेटी को अपने घर रखकर उसकी कमाई पर जीना चाहते हैं। इसी बीच जून 2014 में पायल ने सलमान से परिचय कराया। उस समय पायल की उम्र 21 वर्ष थी और एमबीबीएस कोर्स के तीसरे वर्ष में थी। अगस्त 2014 में सलमान के साथ उसकी एंगेजमेंट हुई और एमबीबीएस का कोर्स पूरा करने के बाद फरवरी 2016 में उनकी शादी हुई। शादी के बाद सलमान एनेस्थीसिया में अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन पढ़ाई पूरा करने के.इ.एम. अस्पताल चले गए और पायल एक वर्ष के लिए सांगली मेडिकल कॉलेज चली गई। जहां एक वर्ष की अनिवार्य चिकित्सा सेवा सरकारी अस्पातल में देना था। 2017 में वह धनौरा के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में मेडिकल ऑफिसर के तौर पर नियुक्त हुई। इसी दौरान वह पोस्ट ग्रेजुएशन की तैयारी भी जारी रखी। 2018 में पायल को मुंबई के टी.एन. टोपीवाला नेशनल मेडिकल कॉलेज के गायनोलॉजी ( स्त्री रोग विशेज्ञ) विभाग में प्रवेश मिल गया। इसी बीच उसके पति सलमान का भी पोस्ट ग्रेजुएशन का कोर्स पूरा हो गया और उन्हें मुंबई में लेक्चर की नौकरी मिल गई। दोनों खूबसूरत समाज और खूबसूरत जिंदगी का सपना देख ही रहे थे कि जातिवादी मानसिकता की तीन महिला डाक्टरों ने पायल को मरने के लिए विवश कर दिया। एक तरह उनकी हत्या कर दिया। पायल और उसके खूबसूरत सपनों का अंत कर दिया। जातिवादी मानसिकता के बीमार समाज ने उसकी हत्या कर दी। फिर भी मुझे पायल से यह कहना है कि-
पायल! तुमने ये अच्छा नहीं किया
पायल!
तुमने ये अच्छा नहीं किया
अभी हम रोहित वेमुला का दर्द छिपाए
सिसक ही रहे थे कि
तुम भी हमें दर्द के सागर में डुबो गई
माना
रोज-रोज अपमानित होना असहनीय होता है
जाति-समुदाय के नाम पर ताने सुनना
भीतर तक तोड़ देता है
कैरियर खत्म करने की धमकी
मारक होती है
फिर भी तुम्हें लड़ना था
खुद के लिए
अपनी प्यारी मां के लिए
तुम्हारे लिए सपने सजोए पिता के लिए
आदिवासी भील समुदाय के लिए
इस देश के करोड़ों- अपमानित वंचितों के लिए
माना कि तुम शंबूक-एकलव्य की बेटी थी
तुम बिरसा, फुले. आंबेडकर, पेरियार की भी बेटी थी
तुम्हारे करोड़ो भाई-बहन लड़ रहे हैं
बिरसा- शंबूक-एकलव्य के वंशज
दिकुओं- राम-द्रोण के वंशजों को चुनौती दे रहे हैं
हमने हार नहीं मानी है
तुम्हें भी हार नहीं माननी चाहिए थी
तुम्हें लड़ना था
तुम्हें लड़ते हुए जीना था
तुमने ठीक नहीं किया
हमने तुम्हें खोकर संघर्ष का एक साथी खो दिया
तुम्हारी याद हमें ताकत देगी
हम तुम्हें भूलेंगे नहीं
शंबूक की तरह याद रखेंगे
-सिद्धार्थ, संपादक, फॉरवर्ड प्रेस
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