राजपूतों का अहंकार छोड़ दशरथ मांझी से जुड़ा सच स्वीकार करिए हरिवंश जी!
By-Santosh Yadav
विमर्श। राज्यसभा के नवनिर्वाचित उपसभापति अच्छे पत्रकार रहे हैं। एक प्रमाण तो इनके द्वारा अर्जित की गई करोड़ों की संपत्ति है। इसके अलावा भी प्रभात खबर के संपादक के रूप में मीडिया में जिस तरह का जातिवाद हरिबंश जी ने फैलाया है, उसका उदाहरण अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। हालांकि अन्य अखबारों में भी जातिवाद है लेकिन हरिबंश जी का जातिवाद सबसे अलहदा है।
अलहदा यानी सबसे अलग इसलिए कि हरिबंश जी चाहे जिस ऊंचाई को प्राप्त कर लें, राजपूतानी कुंठा का परित्याग नहीं कर सकते हैं। हाल ही में जब उन्हें उपसभापति चुना गया तब अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सारी सीमाओं का उल्लंघन किया। सभापति वेंकैया नायडू ने पीएम के कथन को सदन की कार्यवाही से बाहर निकालने का आदेश दिया। यह भारत के इतिहास की पहली घटना है। लेकिन यहां लगातार झूठ बोलने वाले पीएम से अधिक महत्वपूर्ण हरिबंश जी का अपराध है।
दरअसल पीएम ने हरिबंश जी को इस बात के लिए क्रेडिट दिया कि दशरथ मांझी से शेष दुनिया का परिचय उन्होंने ही कराया। जबकि सच कुछ और ही है। दशरथ मांझी के बहाने बहुत कुछ कहने की कोशिश की जा रही है। काल के हिसाब से बात करें तो गया जिले के वजीरगंज प्रखंड के गेलहौर में 1982 के आसपास दशरथ मांझी ने पहाड़ काटकर रास्ता बनाया था। उसके बाद से वे जिला मुख्यालय की दौड़ लगाते रहे। कोई उनके काम को देख ले। जिलाधिकारी को वे तैयार कर सके। उन्हें पुरस्कृत भी किया गया। इस खबर की एक कतरन जोकि तत्कालीन प्रतिष्ठित अखबार आर्यावर्त की थी- मैंने उनके पास देखी थी। एक कॉलम और 6-7सेंटीमीटर की खबर। कहीं अंदर के पन्नों में छपी हुई।
बाद में रिपोर्ट 1 जनवरी 1989 के धर्मयुग में छपी थी। लेखक थे अरूण सिंह। इसके पहले जनशक्ति में पुरूषोत्तम जी ने एक खबर लिखी थी। अरूण सिंह ने अपने फेसबुक वाल पर हरिबंश जी को आईना दिखाया है। दशरथ मांझी से मुलाकात के बारे में वह लिखते हैं कि कैसे दशरथ मांझी ने अपनी कहानी बताई। ‘हां, हमने ही पहाड़ी काट कर रास्ता बनाया है।’ उनके चेहरे पर मासूम सी मुस्कुराहट आती है, उसमें थोड़ी झिझक भी शामिल है, मानों किसी बच्चे ने गलती से कोई अच्छा काम किया हो और अब उसे स्वीकार करने में झिझक रहा हो। फिर वे अपनी छोटी सी कथा सुनाते हैं।
पहाड़ की तराई में बसे गेहलौर गांव में दशरथ मांझी पैदा हुए। पिता मंगरु मांझी खेत मजदूर थे। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी सो दशरथ मांझी पढ़ नहीं सके। बचपन से ही पिता के साथ खेतों में काम करने लगे। बड़े हुए तो पिता ने उनकी शादी फगुनी देवी के साथ कर दी। मजदूरी कर दशरथ घर चलाते रहे। एक बार उन्हें पहाड़ के दूसरी ओर की घाटी में काम मिला। यह 1960 के आस-पास की बात है। वे रोज मजदूरी करने उस गांव में जाते। पत्नी कलेवा (दोपहर का खाना) और घड़े में पानी लेकर उनके पास जाती। उस पार घाटी में जाने का एक ही रास्ता था- पहाड़ में डेढ़ फ़ीट चौड़ी एक दरार! सारे लोग, जिन्हें उस पार घाटी के गांवों में जाना होता, उसी रास्ते से जाते थे। संकरा रास्ता होने के कारण लोगों को तिरछे हो कर उसमें से गुजरना होता था। इससे कई बार उनके बदन पर खरोचें भी लग जातीं।
एक दिन उनकी पत्नी उस संकरे रास्ते में फंस गयी। घड़ा फूट गया और उन्हें चोट भी आयी। रोती-बिसूरती, खाना लेकर अपने पति के पास पहुंची। उन्हें सारी बात बताई। उस दिन दशरथ मांझी को प्यासा रह जाना पड़ा। उस रात उन्हें नींद नहीं आयी। दिमाग में विचारों की आंधी चल रही थी और उससे एक नया निश्चय पैदा हो रहा था। तब दशरथ जी ने बताया था, ”उस रात किसी ने कहा,’तुम्हें यह काम करना होगा।’ मैं चौंक कर जाग गया। आसपास कहीं कोई नहीं था। तब लगा, यह आवाज अपने ही अंदर की आवाज थी।”
सुबह हुई तो वे बदल चुके थे। एक दृढ निश्चय उनके अंदर पैदा हो चुका था- पहाड़ को काट कर पार जाने के लिए चौड़ा रास्ता बनाने का निश्चय! वे चुपचाप उठे और पत्नी को बताये बगैर हथौड़ी उठा कर पहाड़ की ओर चले गये। वहीं चट्टान पर बैठ कर उन्होंने छेनी तैयार की और कटाई का काम शुरू किया। तीन-चार घंटे बाद वे वापस घर आ गये। पत्नी को इस बारे में कुछ भी नहीं बताया। नाश्ता कर खेतों में काम करने चले गये। अगले दिन वे पहाड़ काटने के काम में जुट गये। गांव के लोग अब तक उन्हें पहाड़ काटते देख चुके थे। उनमें काना-फूसी होने लगी। किसी ने उनकी पत्नी को जाकर कह दिया कि तुम्हारा पति तो पागल हो गया है। पहाड़ को काट कर रास्ता बनाना चाह रहा है ! ऐसा कहीं हो सकता है भला !
उस दिन जब वे घर आये तो पत्नी ने झिड़का, ‘तुम पागल हुए हो क्या ? तुम्हीं को चिंता है रास्ता बनाने की ? और फिर यह दरार तो तबसे है, जबसे यह धरती बनी. तुम पागल मत बनो, चुपचाप जाकर खेतों में काम करो…’जवाब में वे हंसकर रह गये। अब यह उनकी दिनचर्या बन गयी। गांव के लोग उन्हें पागल कहने लगे। वे सुनते और हंसकर रह जाते। वे सुनते और हंसकर रह जाते। सूरज निकलने के पहले ही वे पत्थर काटने में लग जाते। तीन चार घंटे काटने के बाद वे खेतों में काम करने चले जाते। चांदनी रात होती तो रातों में भी वे कटाई करते। धन की रोपाई के बाद जो खाली वक्त होता, वह भी इसी में बीतता। धीरे-धीरे उनके ‘पागलपन’ की चर्चा आस पास के गांवों में भी होने लगी। एक दिन पिता ने भी समझाना चाहा। तब दशरथ मांझी ने अपने पिता को कहा, ‘आज तक हमारा खानदान मजदूरी करता रहा है। मजदूरी करते-करते लोग मर गये। खाना-कमाना और मर जाना! इतना ही तो काम रह गया है। सिर्फ यह एक काम है, जो मैं अपने मन से करना चाहता हूं। आप लोग मुझे रोकिये मत, करने दीजिए।’
पत्नी भी समझाते-समझाते चुप हो गयी। वह अपने भोले-भाले पति के ‘पागलपन’ पर तरस खाकर रह जाती। दिन गुजरते गये, काम जारी रहा। लोगों को विस्मय होने लगा। सचमुच वहां धीरे-धीरे रास्ता बनता जा रहा था। मजाक बंद हो गया। लोग विस्मय के साथ वहां आते और उनका काम देखते। इसी बीच पिता मंगरू मांझी का देहावसान हो गया। जिस पत्नी के लिए पहाड़ी काट कर रास्ता बनाना शुरू किया था, वह भी गुजर गयीं। उस क्षण वे विचलित जरूर हुए, लेकिन फिर भी उनका काम चलता रहा। दिन-महीने-वर्ष बीतते गये।
धीरे-धीरे उस पहाड़ी में एक चौड़ा रास्ता शक्ल लेने लगा। दूर-दूर से लोग देखने आने लगे। कुछ लोगों ने मदद भी करनी चाही, लेकिन दशरथ मांझी ने नर्मतापूर्वक हाथ जोड़ दिये। इसी तरह निकल गए 15-16 वर्ष और-और निकल आया पहाड़ी में से रास्ता! दशरथ मांझी ने करीब साढ़े तीन सौ फीट लंबी और बारह फीट उंची पहाड़ी को काट कर, उसमें से सोलह फीट चौड़ा रास्ता बना दिया, लेकिन यह सब देखने के लिए उनकी पत्नी नहीं बची थीं- वही जिसके लिये उन्होंने रास्ता बनाना शुरू किया था।’
‘अच्छा बताइये, आपने भी तो अपनी पत्नी के लिए पहाड़ी काटना शुरू किया था। वे बीच में ही मर गयीं। जब वे ही नहीं रहीं, तब भी आपने कटाई बंद क्यों नहीं की?’ ‘हां, मेरी पत्नी जब मरीं, तो मैं बहुत दुखी हुआ था। मुझे लगा, जब वे ही नहीं रहीं, तो पहाड़ क्यों काटूं? लेकिन फिर मुझे लगा मेरी पत्नी नहीं रही तो क्या हुआ? रास्ते के बन जाने से कितने लोगों की पत्नियों को फायदा होगा! हजारों-लाखों लोग इस रास्ते से आयेंगे जाएंगे।’ वे सीधे-सादे शब्दों में बहुत गहरी बात बोल गये।
दशरथ मांझी अब धीरे धीरे मशहूर होने लगे थे। उन दिनों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया शैशवास्था में था। न्यूज़ चैनल इतने लोकप्रिय नहीं हुए थे। अखबार तो पढ़े ही जा रहे थे, पत्रिकाएं भी खूब पढ़ी जा रही थीं। अखबार तो खैर अभी भी पढ़े जा रहे हैं, पत्रिकाओं के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। दशरथ मांझी को अख़बारों और पत्रिकाओं के माध्यम से खूब प्रसिद्धि मिलने लगी थी। अख़बारों और पत्रिकाओं की कतरनों को वे बड़े जतन से एक प्लास्टिक की शीट में जमा कर रखते थे। वे अख़बारों, पत्रिकाओं के दफ्तरों के चक्कर लगाने लगे। वे चाहते थे कि किसी तरह बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद से उनकी भेंट हो जाय। वे उन्हें उस रास्ते के बारे मे बताना चाहते थे और चाहते थे कि सरकार उस पर पक्की सड़क बना दे ताकि लोगों को आने जाने में आसानी हो। एक पत्रकार ने उनकी मुलाकात लालू प्रसाद से करवा दी।
लौटे तो बहुत खुश थे। लालू जी ने सड़क बनाने का आश्वासन दिया था और सात एकड़ जमीन भी दी थी। बाद में पता चला कि वह जमीन बंजर थी। दशरथ ने एक भेंट में कहा था, ‘हमने तो लालू जी से अपने लिए तो कुछ नहीं कहा था। हमने सड़क के लिए कहा था। जमीन उन्होंने खुद दी। लेकिन जमीन भी दी तो बंजर।’ बाद में उस जमीन पर उन्होंने अस्पताल बनवाने का प्रयास किया।
खैर, हरिबंश जी क्रेडिट लूटने के माहिर खिलाड़ी रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री और जाति के राजपूत चंद्रशेखर के मीडिया सलाहकार के रूप में भी हरिबंश जी ने भी खूब क्रेडिट कमाया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी उन्हें निराश नहीं किया। तभी तो उनके कहे प्रभात खबर का स्लोगन ‘अखबार नहीं आंदोलन’ से बदलकर ‘बिहार जागे, देश आगे’ हो गया है। बहरहाल हरिबंश जी अब देश के सबसे बड़े सदन के शीर्ष पर बैठ गए हैं। इतनी उम्मीद तो बनती ही है कि वे राजपूतों का अहंकार छोड़ सच स्वीकार करें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से तो इसकी कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती।
-संतोष यादव
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