सभी मेनस्ट्रीम मीडिया के संपादकों को मनीषा बांगर का खुला पत्र, बहुजनो के मुद्दों पर चुप्पी साध कर लोकतंत्र को बचाया नहीं जा सकता।
मुमकिन है कि मेरे इसे खुले पत्र के पहले भी आप उस घटना से वाकिफ होंगे जो हाल ही में बिहार के सुदूर मोतिहारी जिले के महात्मा गांधी सेंट्रल यूनिवर्सिटी में घटित हुई। एक बार फिर मैं आपका ध्यान उसी घटना की तरफ आकर्षित करना चाहती हूं। सत्ता के मद में अंधे हो चुके लोगों ने एक भीड़ की शक्ल में संस्थान के असिस्टेंट प्रोफेसर संजय यादव के उपर हमला बोला। वह अपने कमरे में थे और मॉब खींचते हुए सड़क पर ले गयी। वे उनके उपर लात-घूंसे बरसा रहे थे। उनके शरीर के कपड़े फाड़ डाले और यहां तक कि उनके गुप्तांग पर भी प्रहार किया। वे लोग उनकी जान लेने को उतारू थे। मारते-पीटते जब थक गये तब उनलोगों ने प्रो. संजय यादव के उपर पेट्रोल डालकर जिंदा जलाने की कोशिश की। वह तो संयोग रहा कि स्थानीय लोगों और उनके साथियों की पहल पर उनकी जान बच गयी। लेकिन वे बुरी तरह जख्मी हो गये।
इस दौरान हमलावरों ने जातिसूचक अपशब्दों का इस्तेमाल भी किया जिसका उल्लेख प्रो. संजय यादव ने अपनी प्राथमिकी में किया है। उनके अनुसार हमलावरों ने कहा कि तुम गोवार(यादव) हो और जाकर गाय-भैंस चराओ। ज्यादे पढ़ाई-लिखाई करोगे तो ऐसे ही मार खाओगे।
घटना के बाद प्रो. संजय को स्थानीय सदर अस्पताल ले जाया गया जहां चिकित्सकों ने उनकी नाजुक स्थिति को देखते हुए पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल भेज दिया। वहां भी जब उनकी स्थिति में सुधार नहीं हो सका तब उन्हें एम्स, दिल्ली रेफर किया गया। प्रो. संजय अभी दिल्ली के एम्स में मौत से संघर्ष कर रहे हैं।
इस घटना के पीछे दो पृष्ठभूमियां बतायी जा रही हैं। पहली तो यह कि प्रो. संजय ने हाल ही में दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर अपने फेसबुक वॉल पर पोस्ट किया था। इससे संघ के कार्यकर्ता उग्र हो गये और उनलोगों ने प्रो. संजय यादव के साथ हैवानियत की। दूसरी पृष्ठभूमि में मोतिहारी स्थित महात्मा गांधी सेंट्रल यूनिवर्सिटी के कुलपति अरविन्द अग्रवाल की कथित गुंडागदी है। आपको बताते चलें कि 29 मई 2018 से ही विश्वविद्यालय परिसर में छात्र कुलपति द्वारा फैलायी जा रही अराजकता के खिलाफ आंदोलनरत हैं। प्रो. संजय ने इस आंदोलन में सक्रिय भूमिका का निर्वहन किया है।
अब सवाल यह नहीं है कि प्रो. संजय यादव पर हमला करने वाले कौन हैं। वजह यह कि वीडियो वायरल हो चुका है और अपने एफआईआर में भी पीड़ित प्रो. संजय यादव ने 12 अभियुक्तों का उल्लेख किया है। असल में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या प्रो. संजय यादव पर किया गया हमला केवल एक व्यक्ति विशेष पर नहीं बल्कि सोचने-समझने और समाज में अपनी बात रखने के अधिकार पर किया गया हमला है?
जाहिर तौर पर इसका जवाब सकारात्मक है। यदि इसके खिलाफ प्रतिकार नहीं किया गया तो अभिव्यक्ति की आजादी की लड़ाई लड़ने के हमारे और आपके दावे को जनता सीधे तौर पर खारिज करेगी। प्रो. संजय यादव पर हमला एक संगठित सामाजिक और राजनीतिक हमला था। यह एक कोशिश है कि ओबीसी समाज का दूसरा कोई व्यक्ति अपनी जुबान न खोले।
आप भी यह मानते हैं कि इन दिनों पूरे देश में बहुसंख्यक जनता की आवाज को दबाने का उपक्रम चल रहा है। फिर चाहे वह तामिलनाडु में एक निजी कंपनी के हितार्थ निर्दोष मजदूरों पर गोली चलवाने की घटना हो या आदिवासी बहुल राज्यों में पत्थलगड़ी आंदोलन चला रहे आदिवासियों पर झूठे मुकदमे लादने का। गौ तस्कर कहकर मुसलमानों की हत्या या फिर मजदूरी करने से इंकार करने पर किसी दलित की हत्या। सभी घटनाओं को एक-एककर कड़ी के रूप में जोड़ें तो आप भी स्थिति की भयावहता को समझ सकेंगे। जो भीड़ लोगों की जान लेने तक आमादा है, वह असल में केवल भीड़ नहीं बल्कि एक राजनीतिक भीड़ है। अब उसके निशाने पर देश का ओबीसी है।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि खबर को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया जाय। मुख्य धारा की मीडिया पर अभी भी अभिजात्य वर्ग का ही कब्जा है। अनुसूचित जाति पर होने वाले अत्याचार संबंधी खबर में कई अवसरों पर खासकर तब जब अत्याचार करने वाला ओबीसी वर्ग का हो तो अभिजात्य वर्ग की मीडिया पूरी घटना को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करती है। लेकिन जब अत्याचार करने वाला कोई अभिजात्य वर्ग यानी सवर्ण समुदाय का हो तब खबरों को दूसरे तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। प्रयास किया जाता है कि अत्याचारी की जाति का उल्लेख न हो।
यह कैसा दोमुंहापन है। गैर बराबरी के अन्य मुद्दों के जैसे ही जाति का सवाल आज भी हमारे समाज में महत्वपूर्ण है। फिर सच बताने में परहेज कैसा? क्या यह भी उन वजहों में शामिल नहीं है कि आज भारतीय मीडिया की साख पर सवाल उठ रहे हैं?
बहरहाल इस खुले पत्र के जरिए आपसे अनुरोध करती हूं कि चाहे वह ऊना की घटना हो या हापूड़ या फिर मोतिहारी की, आप खुलकर न्याय के पक्ष में खड़े हों। देश की जनता हमें लोकतंत्र का चाैथा स्तंभ कहकर सम्मान करती है। हमारा भी फर्ज बनता है कि हम जनता से मिले इस सम्मान की लाज रखें।
आपसे उपरोक्त मामले में संवेदनशील होने की अपेक्षा तो बनती ही है। आखिर हम सभी मीडियाकर्मी इंसान ही तो हैं।
-मनीषा बांगर
संपादक, नेशनल इंडिया न्यूज
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