बंगाल : यह हश्र तो होना ही था….
~ नवल किशोर कुमार
बीते 14 मई 2019 को पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की चुनावी रैली में हिंसा हुई। भाजपा समर्थकों और तृणमूल कांग्रेस के समर्थक आपस में जमकर लड़े। जाहिर तौर पर इस घटना के बाद आरोप-प्रत्यारोप का दौर होना ही था। ममता बनर्जी और अमित शाह दोनों एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी हिंसा के पीछे ममता बनर्जी का हाथ बताया है।
भाजपा के समर्थकों ने बंगाल के महान समाज सुधारक ईश्वरचंद विद्यासागर की एक प्रतिमा को भी तोड़ दिया है।
कोलकाता में अमित शाह की पिटायी का दर्द चुनाव आयोग ने भी महसूस किया है। उसने पश्चिम बंगाल में धारा 324 लगाने का आदेश दिया है। इसके तहत पश्चिम बंगाल के नौ लोकसभा क्षेत्रों जहां 19 मई को चुनाव होने हैं, वहां चुनाव प्रचार की समयसीमा में 20 घंटे की कमी की गयी है। हालांकि आयोग ने इसका खास ख्याल रखा है कि यह रोक पश्चिम बंगाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों के बाद रात दस बजे से प्रभावी हों।
कहना गलत न होगा कि चुनाव आयोग को बंगालियों द्वारा अमित शाह की पिटायी बिल्कुल पसंद नहीं आयी। तभी उसने पश्चिम बंगाल के गृह सचिव अत्रि भट्टाचार्य और एडीजी सीआईडी राजीव कुमार को उनके पद से हटाने का आदेश दिया है। उसका यह आदेश भी अमित शाह की पिटायी के बाद आया है।
अब सवाल उठता है कि बंगाल में जो कुछ हो रहा है, उसके मायने क्या हैं? जाहिर तौर पर यह एकआयामी नहीं हैं। इसके कई आयाम हैं।
पहला आयाम राजनीतिक है। भाजपा ने पश्चिम बंगाल में अपनी जड़ों को मजबूत किया है। उसने हिंदुत्व का उपयोग करते हुए यह कारनामा किया है। इसकी एक वजह वामपंथियों का खूंटा उखड़ना भी है। भाजपा ने वामपंथियों के बाद राजनीति में हुई रिक्तता पर अधिकार कर लिया है और वामपंथियों की हैसियत महज वोटकटवा की रह गयी है। कांग्रेस पहले से ही बंगाल में मरणासन्न है।
बंगाल लंबे समय से आरएसएस के रडार पर था। दो वर्ष पहले जब आरएसएस ने अपने एक समारोह में प्रणव मुखर्जी को आमंत्रित किया था, तभी यह संकेत मिल गया था कि आरएसएस भद्रलोक बंगाल में अपनी जड़ों को मजबूत करने को तैयार है।
एक दूसरा आयाम सामाजिक है। इसका समाज शास्त्र है। बंगाल में प्रारंभ से ही सवर्ण जातियों का बोलबाला रहा है। फिर चाहे वह राजनीति हो, साहित्य हो या फिर कुछ और। कुछ और का मतलब समाज सुधारकों से है। ईश्वरचंद विद्यासागर, राजा राममोहन राय से लेकर रवींद्रनाथ टैगोर सभी सवर्ण रहे। सुभाष चंद्र बोस का उदाहरण भी अलग नहीं है। आजादी के बाद कांग्रेस सत्तासीन हुई तब भी सवर्ण ही हावी रहे। दलितों और पिछड़ों का सवाल तब भी हाशिए पर रहा जब नक्सलवाड़ी आंदोलन ने पश्चिम बंगाल को कांग्रेस से मुक्त कर दिया और सत्ता पर प्रभु वर्ग ही काबिज रहा।
दुनिया में कुछ भी स्थायी नहीं होता है। बंगाल में वामपंथियों का वर्चस्व भी स्थायी नहीं रहा। बुद्धदेव भट्टाचार्य ज्योति बसु की विरासत संभाल नहीं सके और इसका श्रेय ममता बनर्जी को गया। कुल मिलाकर वर्चस्व प्रभु वर्ग का ही रहा।
अब भाजपा को पश्चिम बंगाल में सेंधमारी करने में सफलता मिल चुकी है। बंगाल के सवर्णों का मूड भी बदल रहा है। दुर्गा की अराधना करने वाले बंगाली अब जय श्रीराम के नारे से लहालोट हो रहे हैं। इनमें बड़ी संख्या में गैर सवर्ण भी हैं जो कांग्रेसी सवर्णों और वामपंथी सवर्णों के साथ सत्ता में साझेदार बनने को तैयार हैं। उनकी महत्वाकांक्षा को भाजपा ने हवा दे दी है।
ऐसे में यह हश्र तो होना ही है। कहना गैरवाजिब नहीं होगा कि जिस तरह 1976 में जिस तरह इंदिरा गांधी ने मिजोरम में वायुसेना का उपयोग कर अपने ही देश के नागरिकों पर बम बरसाया था, वैसे ही आने वाले समय में (यदि नरेंद्र मोदी सरकार बनाने में सफल हो सके) बंगाल में भी बम गिराए जाएंगे।
~ नवल किशोर कुमार
~लेखक फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक हैं
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