बीजेपी ने निकाला लोगों का दिवाला
देश में औपचारिक रोजगार के घटते विकल्प और श्रम सुधारों में रुकावट के बीच संगठित क्षेत्र में कैजुअल कर्मचारियों यानी बिना कॉन्ट्रैक्ट वाले कर्मचारियों को रखने को अधिक तरजीह दी जा रही है. दरअसल प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद् की तरफ से जुटाए आंकड़ों के आधार पर की गई स्टडी के अनुसार साल 2012 से 2018 के बीच भारतीय कंपनियों ने बिना कॉन्ट्रैक्ट के कर्मचारियों को रखने को अधिक तरजीह दी है.

इंडियन एक्सप्रेस ने जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के अमरेश दुबे और इंडिकस फाउंडेशन के लवीश भंडारी द्वारा लिखित ‘इमर्जिंग इम्पलॉयमेंट पैटर्न ऑफ 21st सेंचुरी इंडिया’ शीर्षक वाली रिपोर्ट के हवाले से खबर दी है. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2004 के बाद रोजगार की तुलना में जनसंख्या वृद्धि की दोगुनी रफ्तार से हुई.
स्टडी में नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन एनएसएसओ द इम्पलॉयमेंट-अनइम्पलॉयमेंट सर्वे में पाया गया कि पिछले 15 साल की अवधि में रोजगार में बढ़ोतरी की दर 0.8 फीसदी रही जबकि इस दौरान जनसंख्या वृद्धि दर 1.7 फीसदी रही।बिना कॉन्ट्रैक्ट वाले रोजगार एक तरह से घरेलू नौकर के समान है. इसमें आपको श्रम के बदले में कम पैसा देना होता है. इसके साथ ही काम का माहौल और जॉब सिक्योरिटी और भी कॉन्ट्रैक्ट तुलना में नहीं के बराबर होती है. बिल्कुल असंगठित क्षेत्र की तरह जहां न तो काम की जगह रजिस्टर्ड होती है और ना ही किसी भी तरह के श्रम कानूनों का पालन करना पड़ता है. इसलिए कंपनियां बिना कॉनट्रैक्ट वाले कर्मचारियों को अधिक तरजीह देती हैं. वहीं ये भी सोचना लाजिमी होगा कि उन बेरोजगार लोगों के सपने में मोदी जी आते होंगे, जिनकी सरकार के एक सनक भरे फैसले के कारण नौकरियां चली गईं.
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