देश और भारत की जनता के साथ सिंधिया परिवार के शर्मनाक गद्दारी की कहानी
BY- Shamsul Islam
सिंधिया परिवार की संतानों का भारतीय प्रजातंत्र के किसी भी राजनैतिक दल में होना शर्मनाक और राष्ट्र विरोधी है। समकालीन सरकारी दस्तावेज़ों के माध्यम से सिंधिया राजघराने की 1857 की आज़ादी की जंग के खिलाफ की गयीं ग़द्दारी की दास्तान जानें मत भूलें कि रानी लक्ष्मी बाई की शहादत सिंधिया राज घराने और अंग्रेज़ों की संयुक्त सेना के हाथों हुई थी। इतना ही नहीं 1857 के महानतम नायकों में से एक, तात्या टोपे को इसी राजघराने ने छलपूर्वक गिरफ्तार कराके 18, अप्रैल 1859 को शिवपुरी, ग्वालियर राज्य में फांसी दी गयी।
हम यह भूल गए कि ये उन्हीं राजघरानों से आते थे, जिन्होंने विद्रोहियों का क़त्लेआम कराया था और जब वे शहीद हो गए थे, तो उनकी ज़मीन-जायदादें इन्हें इनाम स्वरूप मिली थीं। होना तो यह चाहिए था कि स्वतंत्रता के बाद हम इन ग़द्दारों से जवाब तलब करते, इन्हें जो ज़ब्तशुदा जागीरें मिली थीं, उन्हें शहीद बाग़ियों के परिवारों को वापस दिलाते। यह सब तो दूर रहा, हमने तो इन्हें एक प्रजातांत्रिक भारत में भी राज करने का मौक़ा दिया।
ब्रिटिश सरकार की उस समय की दस्तावेज़ों को इस उम्मीद के साथ यहाँ पेश किया जा रहा है कि स्वतंत्रता के बाद भी बाग़ियों के साथ जो धोखा हुआ और जो अब भी जारी है, उसको समझा जा सके और इन ग़द्दार परिवारों से हिसाब चुकता किया जा सके। अगर हम यह नहीं करते हैं, तो उसका मतलब सिर्फ़ यह होगा कि अंग्रेज़ और उनके दलालों ने तो विद्रोहियों को एक बार मारा था, हम रोज़ उनकी हत्या कर रहे हैं। ये सारे ब्यौरे अंग्रेज़ों द्वारा छापे गये सरकारी गज़टों से लिए गए हैं।
ग्वालियर के सिंधिया परिवार ने ‘म्यूटिनी’ में अंग्रेज़ों की जो सेवा की, उसके बारे में उस समय के ब्रिटिश सरकार के दस्तावेज़ बताते हैं – “जब ‘म्यूटिनी’ हुई तो सिंधिया जवान थे और यह महत्वपूर्ण सवाल था कि वे क्या करेंगे। सिंधिया कम उम्र होने के साथ-साथ आएगी स्वभाव के थे और उनके दरबार की आम राय ब्रिटिश विरोधी थी। लेकिन, उनके सलाहकारों में दो बहुत मज़बूत इरादे वाले सलाहकार, मेजर चार्टर्स मैकफ़र्सन रेज़ीडेंट और सर दिनकर राव के रूप में मौजूद थे। उन्होंने सूझ-बूझ और सख़्ती से सिंधिया को यह समझा दिया कि चाहे हालात जितने भी ख़राब हों, आख़िर में जीत अंग्रेज़ों की ही होगी। सिंधिया ने तुरंत अपनी निजी सुरक्षा सैनिक टुकड़ी को जनाब कॉलविन के पास आगरा सहायता के लिए भेज दिया।
30 मई को तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई, झांसी की रानी ग्वालियर के सामने आए और सिंधिया से आह्वान किया कि वे उनके साथ आ जाएं। जियाजी राव ने न केवल साफ़ मना कर दिया, बल्कि आगरा से कुमुक आने से पहले ही, पहली जून को उन पर हमला बोल दिया, लेकिन उनके मराठा निजी अंगरक्षकों को छोड़कर पूरी सेना बाग़ियों से जा मिली और सर दिनकर राव को भागकर आगरा में पनाह लेनी पड़ी। 16 जून (1858) को सर हियु रोज़ सेना के साथ ग्वालियर पहुंचे और दो दिन की लड़ाई के बाद क़िला, ग्वालियर शहर और लश्कर नगर पर क़ब्ज़ा कर लिया और 20 जून (1858) को सर हियु रोज़ और मेजर मैकफ़र्सन की अगुवाई में सिंधिया को दोबारा गद्दी पर बिठाया गया।
सिंधिया द्वारा ‘म्यूटिनी’ में अंग्रेज़ों के लिए की गईं सेवाओं से ख़ुश होकर तीन लाख रुपये के लगान वाले क्षेत्र को उन्हें इनाम में दिया गया। उन्हें अपनी पैदल सेना को तीन हज़ार से बढ़ाकर पांच हज़ार करने और 32 तोपों की जगह 36 तोपें रखने की अनुमति दी गई। 1861 में जियाजी राव को जी.सी.एस.आई. (ग्रैंड नाइट ऑफ़ स्टार ऑफ़ इंडिया) की उपाधि प्रदान की गई।
सौजन्य- हस्तक्षेप डॉट कॉम
ये लेख Dr. Shamsul Islam, Political Science professor at Delhi University के अपने निजी विचार है, इससे नेशनल इंडिया न्यूज का कोई संबंध नही है ।
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