Home Language Hindi देश धर्म से नही एकता से बनता है, फिर हिंसा क्यों ?
Hindi - Political - Politics - March 2, 2020

देश धर्म से नही एकता से बनता है, फिर हिंसा क्यों ?

यदि आप भारत को हिंदू राष्ट्र-द्विज राष्ट्र बनाना चाहते हैं, तो ऐसी लाखों तस्वीरों को देखने के लिए तैयार रहिए, इसमें सब गैर नहीं होंगे, कुछ अपने भी होंगे। यह रोता बेटा, बिलखती बेटी, पछाड़ खाकर कलेजा जीर देना वाला रूदन करती बीबी और जीते-जी मर जाने वाली मां, आज उसकी है, कल मेरी होगी, परसों आप की भी हो सकती है। यदि आप मनुष्य हैं, तो सभी मनुष्य अपने ही हैं। आदमखोर हैवानों में तब्दील हो गए हाड-मांस के आदमी से दिखते लोगों से मुझे कुछ नहीं कहना है।

इस सब को रोकने की भरपूर कोशिश कीजिए, खुद के भीतर के भरे जहर से मुक्त होइए औरों को भी मुक्त कीजिए। बचा लिजिए, इस देश और मुष्यता को। मुर्दा विचारों, अतीत के बदलने की भावना और भविष्य में विश्व गुरू बनने के सपने दिखाने वालों या पूरी दुनिया पर इस्लामी राज की चाह रखन वालों से खुद को दूर कीजिए। इस तस्वीर को रोजमर्रा की तस्वीर मत बनने दीजिए। आपके बच्चों, बीबी और बूढ़े मां-बाप को यह असहनीय दर्द झेलना पड़े ऐसी नौबत मत आने दीजिए।

ये धर्म के कारोबारी हैं, इनका मुनाफे के कारोबारियों से गठजोड़ हो गया है। ये दानव बन चुके चुके हैं। ये सब कुछ निगल जायेंगे। सबसे पहले हमारी-आपकी इंसानियत को। खुद को बचाइए,मुझे भी बचाइए । हम सब एक एक हैं, हम सब मनुष्य हैं। मनुष्यता का परिचय दीजिए। जो भी मरे हैं, मुसलमान या हिंदू एक बार उनके बारे में सोचिए, उनके चेहरों का खयाल कीजिए और उनके परिवार के बारे में सोच कर देखिए। चंद बूंद आंसू बहाकर देखिए। आपको लगेगा जैसे सब अपने मरे हैं। कोई पराया नहीं मरा है।

कौन गोबर खाने वालों को गाय खाने वालों से से लड़ा रहा है? राहुल सांकृत्यायन मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’- इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना। अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आज तक हमारा मुल्क पामाल क्यों हैं? पुराने इतिहास को छोड़ दीजिए, आज भी हिंदुस्तान के शहरों और गांवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों के खून का प्यासा कौन बना रहा हैं? और कौन गाय खाने वालों को गोबर खाने वालों से लड़ा रहा है। असल बात यह है कि ‘मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना।

भाई को सिखाता है भाई का खून पीना।’ हिंदुस्तानियों की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर। कौए को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसका, मौत को छोड़कर इलाज नहीं है!

यह पोस्ट सिद्धार्त रामू के फेसबुक वॉल से लिया गया है.

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