सरकारी विश्विद्यालयों के निजीकरण से गरीब, पिछड़ों से दूर होती शिक्षा, पढ़िए शानदार विमर्श
By: Ankur Sethi
विमर्श। भारत की जेएनयू, एएमयू और बीएचयू समेत 62 यूनिवर्सिटी और कॉलेज यूजीसी के नियत्रंण से बाहर हो रही हैं। जिन्हें सरकार द्वारा बिल्कुल स्वतंत्र किया जा रहा है। जो मर्जी से फीस बढ़ा सकेंगी, विदेशी अध्यापक रख सकेंगी, मर्जी से विषय और कोर्स के पाठ्यक्रम में बदलाव कर सकेंगी और प्राइवेट प्रोफेसर रख सकेंगीं। इसके पीछे सरकार हवाला दे रही है कि शिक्षा का अंतर्राष्ट्रीयकरण किया जा रहा है। गुणवत्त्ता सुधारी जा रही है। विदेशो के उच्च संस्थानों की जैसी शिक्षा को छूकर, भारत की यूनिवर्सिटीज को भी उनसे ऊपर निकाला जाएगा। जिसके लिए सरकार निजीकरण को खुली छूट दे रही है और कह रही है कि वह बड़ी शिक्षा का भार नहीं सम्हाल सकती। इसलिए छात्रों से जैसे मर्जी फीस लीजिये और यूनिवर्सिटी को आगे बढ़ाइए यानी यूनिवर्सिटी की बढ़ने वाली फीस पर सरकार का नियंत्रण खत्म।
भूख हड़ताल करो, मार्च निकालों जो मर्जी करो। यूनिवर्सिटी को जो करना है वो वही करेगी और इसके लिए सरकार से गुहार लगाओगे तो वह कहेगी की हम इसमें कुछ नहीं कर सकते, यह यूनिवर्सिटी का निजी मामला है। जिसमें यूनिवर्सिटी आरक्षण व्यवस्था भी खत्म करे तो सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि हवाला निजीकरण के नियमों का देने के लिए कायदे कानून बनकर तैयार हो जाएंगे। जिसके बाद साफ हो गया है कि 140 करोड़ के लगभग जनसंख्या वाले भारत में जहाँ ग्रेजुएशन 5 से लेकर 20 हजार में हो जाती थी अब उसके लिए लाखों तक खर्च करने होंगे। जो गरीब बच्चे कड़ी मेहनत की बदौलत उच्च संस्थान में पहुंच जाते थे, अब वे बढ़ी फीस के कारण यूनिवर्सिटी की दहलीज पर कदम भी नहीं रख पाएंगे। सरकारें इन 62 यूनिवर्सिटी को स्वायत्तता का अधिकार दे रही हैं।
स्वायत्तता का अर्थ समझना बेहद जरूरी है इसका अर्थ है दूसरों से हस्तक्षेप किए बिना हमारे स्वयं के फैसले लेने की शक्ति। मतलब सरकार साफ कह रही है। हमारे नियम कानूनों से निकलो, हमारे पैसे पर मत रहो, अपना संसाधन खुद जुटाओ, फीस बढ़ाओ, सीट बढ़ाओ, प्राइवेट प्रोफेसर रखो यानी जो मर्जी करो। मतलब भारत देश जो विश्व गुरु बनने का सपना देखता है। दुनिया में अपना डंका बजाने के लिए तत्पर रहता है उसके लिए सीढ़ियां इस तरह से खोली जाएंगी, सब कुछ अमीरों के हाथों में देकर ? क्या अब सिर्फ अमीर व्यक्ति शिक्षित हो पायेगा? जिस पर पैसे की कमी है वो बिना लोन लिए पढ़ पाएगा ?
ये 21वीं शताब्दी है, और गरीबी आज भी लगातार बढ़ रही है। भारत की लगभग 1.38 अरब जनसंख्या में से 29.8% से भी अधिक जनसंख्या आज भी गरीबी रेखा से नीचे है जिसके बाद के 40% लोग सिर्फ रोटी-कपड़ा-मकान के लिए संघर्ष करते नजर आ रहे हैं। तो ऐसे में सरकारें इस देश को और अधिक गरीब बनाने पर क्यों तुली हैं इससे तो गरीब अमीर के बीच की खाई और अधिक चौड़ी हो जाएगी। एक तरफ तो सरकार बड़े-बड़े आर्थिक विकास के दावे कर रहे हैं वहीं 21वीं शताब्दी में भी शिक्षा पर खर्च बढ़ाने से डर रहे हैं। इसमें पिछड़ा, दलित- आदिवासी वर्ग सबसे ज्यादा कुचला जाएगा। जो आज भी बुनियादी जरूरतों के लिए लड़कर अपने बच्चों को पढ़ाना चाहता है उच्च संस्थाओं तक पहुँचाना चाहता है पर अब उसका यह सपना ध्वस्त होना तय है।
स्कूली शिक्षा को पहले ही निजीकरण की भेंट चढ़ाया जा चुका है. अब स्थिति ऐसी ही बनाई जा रही की आने वाले समय में विश्वविद्यालय शिक्षा का भी वही हाल होगा जो स्कूली शिक्षा का हुआ है… यानी गरीब, पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों से शिक्षा कोसो दूर कर दी जाएगी। जबकि इस गरीब देश को बुलेट ट्रेन, उच्च हवाई उड़ान सेवाओं, स्मार्ट सिटीज से अधिक.. उच्च शिक्षा संस्थानों, उच्च सरकारी स्कूलों को अधिक बढ़ावा देकर, कम फीस पर हर गरीब पिछड़े तक शिक्षा पहुँचाना होना चाहिए।
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