मुट्ठी भर सवर्ण कैसे डरा ले जाते हैं सत्ताधीशों को?
Published by- Aqil Raza
By- Sanjeev Chandan
13 प्वाइंट रोस्टर के खिलाफ भाजपा सरकार ऑर्डिनेंस लाने में भी हिचक रही है और सुप्रीम कोर्ट का आरक्षण-विध्वंसक निर्णय के बाद विभिन्न विश्वविद्यालयों में हो रही नियुक्तियों को रोकने के लिए सर्कुलर लाने को भी तैयार नहीं है. इसके पहले इसी सरकार ने सवर्ण गरीबों को 10% आरक्षण की व्यवस्था भी दी है. सवाल है कि इन निर्णयों के खिलाफ देश का बहुजन समाज उद्द्वेलित है लेकिन सरकार इस बड़े वोट बैंक की परवाह न कर एक छोटे वोट बैंक के लिए दवाब में है. ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ भाजपा का मसला है., ऐसा पहले कांग्रेस भी कर चुकी है, और उसका स्टैंड भी प्रायः यही है. सीपीएम शुरू से ही मंडल के विरोध में रहा है.
दलित-बहुजन नेताओं द्वारा अपनी कांस्टीट्यूसी विस्तार की आकांक्षा में अपने मूल वोट बैंक की नाराजगी के बावजूद सवर्ण आरक्षण की मांग भी लगभग इसी दवाब से संचालित है. ऐसा इसलिए है कि मुट्ठी भर सवर्ण पब्लिक स्फीअर पर काबिज हैं. वे अपने हित में नैरेटिव बनाने में माहिर हैं. कल लल्लन टॉप पर मंडल कमिशन पर एक डॉक्यूड्रामा देख रहा था,वह शायाद एबीपी पर चले प्रधानमंत्री एपिसोड का एक हिस्सा था. पूरा प्रसंग ओमपुरी की आवाज में मंडल कमीशन की रिपोर्ट के अनुरूप आरक्षण लागू होने को सवर्ण नजरिये से देखा गया प्रसंग था. यद्यपि इस निणर्य ने भारत की तस्वीर बदलने में अहम भूमिका निभाई. दफ्तरों में, शिक्षण संस्थाओं में डायवर्सिटी बढी लेकिन सवर्ण आज भी वीपी सिंह को खलनायक और इस निर्णय को जातिवादी मानते हैं. ओमपुरी की आवाज के साथ रामविलास पासवान, शरद यादव, लालू प्रसाद आदि को खलनायक की तरह पेश किया गया है. इसी ताकत के बल पर मुट्ठी भर सवर्ण समुदाय सत्ताधीशों को डराता है.
हालांकि आज हालात बदले हैं. अट्रोसिटी एक्ट के मामले में एक दिन भारत बंद कर इसका सन्देश भी दिया गया है, लेकिन वह इतना स्थायी नहीं रहा और सत्ता के लोग पुनः अपने प्रभाव और भय के पुराने फोल्ड में आ गये. वे आज भी संभवतः आश्वस्त हैं कि पिछले 30 से 70 सालों में बना बहुजन मध्यवर्ग, उसकी आकांक्षाएं, उसका फैलाव, राजनीति में बढी व्यापक दखल उतना प्रभावकारी नहीं है कि वह अपने वर्ग के बहुमत को प्रभावित कर सके. वे आज भी बहुसंख्य भारत की गरीबी से अभिभूत लोग हैं और उन्हें विश्वास है कि सबके खाते में 2000 रूपये डलवाकर उनसे वोट लिया जा सकता है और शिक्षण संस्थानों में, नौकरियों में उनकी स्थायी खुशहाली को नष्ट कर उनकी कमर तोडी भी जा सकती है.
मुझे लगता है कि जरूरत है देश भर में बहुजन शिक्षित युवा घर-घर अपना सन्देश पहुंचाये और राजनीति में एक दवाब समूह बना सके.
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