क्या है ब्राह्मणवादी पितृसत्ता, क्यों हो रहा है इस पोस्टर का विरोध, पढिए!
पितृसत्ता वो सामाजिक व्यवस्था है जिसके तहत जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों का दबदबा क़ायम रहता है. फिर चाहे वो ख़ानदान का नाम उनके नाम पर चलना हो या सार्वजनिक जीवन में उनका वर्चस्व. वैसे तो पितृसत्ता तक़रीबन पूरी दुनिया पर हावी है लेकिन ब्राह्मणवादी पितृसत्ता भारतीय समाज की देन है.. ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को समझने के लिए हमें भारत के इतिहास में झांकना होगा. वैदिक काल के बाद जब हिंदू धर्म में कट्टरता आई तो महिलाओं और शूद्रों (तथाकथित नीची जातियों) का दर्जा गिरा दिया गया.महिलाओं और शूद्रों से लगभग एक जैसा बर्ताव किया जाने लगा. उन्हें ‘अछूत’ और कमतर माना जाने लगा, जिनका ज़िक्र मनुस्मृति जैसे प्राचीन धर्मग्रथों में किया गया है.
ये धारणाएं बनाने और इन्हें स्थापित करने वाले वो पुरुष थे जो ताक़तवर ब्राह्मण समुदाय से ताल्लुक रखते थे. यहीं से ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ की शुरुआत हुई.. ब्राह्मण परिवारों में महिलाओं की स्थिति पिछड़े वर्ग के परिवारों की महिलाओं से बेहतर नहीं कही जा सकती.
आज भी गांवों में ब्राह्मण और तथाकथित ऊंची जाति की औरतों के दोबारा शादी करने, पति से तलाक़ लेने और बाहर जाकर काम करने की इजाज़त नहीं है. महिलाओं की यौनिकता को काबू में करने की कोशिश भी ब्राह्मण और सवर्ण समुदाय में कहीं ज़्यादा है.हालांकि ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि पिछड़े वर्ग के परिवारों में पितृसत्ता है ही नहीं. लेकिन वो कहते हैं कि ‘मूलनिवासी-बहुजन पितृसत्ता’ और ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ में एक फ़र्क है.
‘मूलनिवासी -बहुजन पितृसत्ता’ में भी महिलाओं को दूसरे दर्जे का इंसान ही माना जाता है लेकिन ये ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के मुकाबले थोड़ी लोकतांत्रिक है. वहीं, ब्राह्मणवादी पितृसत्ता औरतों पर पूरी तरह नियंत्रण करना चाहती है, फिर चाहे ये नियंत्रण उनके विचारों पर हो या शरीर पर.
अगर एक मूलनिवासी बहुजन महिला पति के हाथों पिटती है तो कम से कम वो चीख-चीखकर लोगों की भीड़ इकट्ठा कर सकती है और सबके सामने रो सकती है लेकिन एक ब्राह्मण महिला मार खाने के बाद भी चुपचाप कमरे के अंदर रोती है क्योंकि उसके बाहर जाकर रोने और चीखने से परिवार की तथाकथित इज़्ज़त पर आंच आने का ख़तरा होता है।
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