घर राज्य दिल्ली-एनसीआर ओमर खालिद किंवा राज्यघटनेपेक्षा काही महत्त्वाचे?

ओमर खालिद किंवा राज्यघटनेपेक्षा काही महत्त्वाचे?

अदलाबदल केली. भारतीय मीडिया अपने सामाजिक ताने-बाने के साथ काम करती है। उसके लिए कौन सी बात महत्वपूर्ण है या फिर किस बात को कितना महत्व देना है, यह सब खबर से अधिक खबर की सामाजिक पृष्ठभूमि मायने रखती है। उसके शब्द और शब्दों की परिभाषा भी इसी हिसाब से बदलती रहती है। यह कोई नई बात नहीं है। यह होता रहा है। लेकिन आश्चर्य तो तब होता है जब स्वयं को प्रगतिशील कहने वाले मीडिया संस्थानें भी ऐसे मौकों पर मुंह छिपाकर चुप बैठ जाती हैं। संभवत: उनकी कोशिश यह होती है कि वे अपनी प्रगतिशीलता का प्रदर्शन निर्बाध रूप से करते रहें और वह भी जो परोक्ष रूप से अपने वर्चस्वकारी समाज के लिए करते रहते हैं।

दो मामले हैं। पहला मामला जंतर-मंतर पर संविधान की प्रतियां जलाने की घटना से जुड़ा है तो दूसरा मामला संसद भवन से थोड़ी ही दूरी पर उमर खालिद के उपर जानलेवा हमला से।

निश्चित तौर पर दोनों मामलों में एक समानता है। जंतर-मंतर की दूरी भी संसद भवन से अधिक नहीं है। दूरी इसलिए भी नहीं है कि वहां सरकार और उसका तंत्र हमेशा प्रदर्शन करने वालों पर नजर बनाये रखता है। फिर संविधान जलाये जाने की घटना हो या उमर खालिद पर हमला दोनों मामले में सरकार अपने पूरे अस्तित्व में मौजूद थी। जो हुआ सरकार की आंखों के सामने हुआ।

इसके अलावा दोनों मामलों में मीडिया भी मौजूद थी। संविधान जलाये जाने के समय भी और उमर खालिद पर हुए हमले के समय भी। लेकिन जिस शीघ्रता से उमर खालिद पर हुए हमले की रिपोर्टिंग हुई वह पहले वाली घटना के मामले में नहीं दिखी। किसी भी बड़े मीडिया संस्थान ने इस खबर को दिखाने से परहेज किया। इनमें जनसत्ता, हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, अमर उजाला आदि भी शामिल रहे।

सनद रहे कि आज इंटरनेट के जमाने में ये अखबार केवल कागजी अखबार मात्र नहीं रह गये हैं जिन्हें खबर प्रकाशित करने में 12 या 16 घंटे का समय लगता है। सभी अखबार आजकल अपना वेबपोर्टल चलाते हैं और हर समय इस आपाधापी में रहते हैं कि कौन किस खबर को पहले ब्रेक करता है। लेकिन जंतर-मंतर पर संविधान की प्रतियां जलायी जा रही थी, किसी को खबर ब्रेक करने की फिक्र नहीं थी।

चलिए इन अखबारों को छोड़ते हैं। जरा न्यूज चैनलों की टोह लेते हैं। अंबानी-अडाणी के स्वामित्व वाले चैनलों यथा जी न्यूज, न्यूज 18 को अपने आकाओं के प्रति उनकी प्रत्यक्ष और परोक्ष जवाबदेही के कारण छोड़ भी दें तब भी एनडीटीवी की रिपोटिंग पर सवाल तो बनता है। यह सवाल इसलिए भी कि एनडीटीवी ने स्वयं को सबसे अधिक प्रगतिशील चैनल परोक्ष रूप से घोषित किया है।

एनडीटीवी की प्रगतिशीलता का एक उदाहरण देता हूं। आपकी स्मृतियों में भी होगा ही। दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में एक स्वघोषित वामपंथी सवर्ण को बोलने से रोका गया तब एनडीटीवी ने एक घंटे के अंदर सभास्थल पर अपनी मुख्य टीम को भेज कर पूरे दिन खबर को प्रसारित करता रहा।

लेकिन जब जंतर-मंतर पर संविधान जलाया गया तब क्या हुआ? इस सवाल का जवाब बाद में। पहले दूसरा उदाहरण देखिए। जब उमर खालिद पर हमला हुआ तब एनडीटीवी की नींद कैसे खुल गयी? क्या उमर खालिद पर हुआ हमला और संविधान जलाये जाने की घटना में उन्नीस-बीस का फर्क था?

बहरहाल इन सारे सवालों का जवाब बहुत सीधा है। सवर्ण मीडिया संविधान जलाये जाने की खबर को प्रमुखता से नहीं दिखाकर एक तीर से दो निशाने साध रहे थे। पहली तो यह कि उनके अपने संविधान जलाने के पाप के कलंक से बचे रहें और दूसरा यह कि वे उन्हें अपना मौन समर्थन दें। उमर खालिद उनके लिए हॉट केक के जैसा है। एक तो अशराफ मुसलमान यानी सवर्ण मुसलमान और उपर से वामपंथी। प्रेम प्रदर्शन तो बनता ही है

By-Santosh Yadav

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