अरविंद केजरीवाल की लोकप्रियता के ग्राफ पर फैसला देंगे दिल्ली के लोग
इसी माह होने वाले MCD चुनाव एक तरह से मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के लिए विश्वास मत की तरह माने जा रहे हैं. इन चुनावों के जरिये दिल्ली की जनता यह फैसला देगी कि उसने दो साल की दिल्ली सरकार को कितने नंबर दिए या फिर उन्होंने जिस विश्वास और प्रचंड बहुमत के साथ केजरीवाल की दिल्ली के सीएम पद पर ताजपोशी कराई थी, उस पर वे आंशिक रूप से ही खरे उतर पाए हैं या नहीं. फरवरी 2015 में केजरीवाल ने जब आम आदमी पार्टी की जीत के बाद दूसरी बार कमान संभाली तो लोगों को एक नई किस्म की सियासत की सुगबुगाहट दिखी थी. लोगों को लगा था कि कांग्रेस और बीजेपी की सरकार के इतर अब उन्हें ऐसी सरकार मिलेगी जो भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त रुख के साथ जनता की आकांक्षाओं पर खरी उतरेगी. इस विश्वास के पीछे कारण भी थे. अपने पहले कार्यकाल के दौरान केजरीवाल जब कांग्रेस के समर्थन से पहली बार दिल्ली के सीएम बने थे तो सहयोगी दल के ‘असहयोग’ के कारण उन्हें दो माह में ही अपना पद छोड़ना पड़ा था. स्वाभाविक है ऐसे में लोगों की सहानुभूति अरविंद के साथ थी और यह अगले विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को हर वर्ग के भारी संख्या में वोट के जरिये दिखाई भी दिया.
दो साल पूरे होने के बाद अरविंद केजरीवाल के खुद के कामकाज और उनकी सरकार के प्रदर्शन पर नजर डालें तो ज्यादातर लोगों को निराशा भी हुई है. लोगों के बीच यह आम धारणा बनती जा रही है कि अपना परफॉर्मेंस काम के जरिये दिखाने के बाद आप और इसके मुखिया, किसी विपक्षी दल के नेता की ही तरह अपना समय जाया कर रहे हैं. ऐसा कोई दिन बमुश्किल ही जाता हो जब इस सरकार के मुख्यमंत्री, मंत्री अथवा नेता केंद्र सरकार, इसकी संस्थाओं,प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या उनके मंत्रियों पर कोई आरोप न लगाते हों. रोज-रोज की इस ‘चिकचिक’ के कारण लोगों की खीझ बढ़ रही है. एक तरह के केजरीवाल के नेतृत्व वाली सरकार की तुलना आप 70 के दशक में केंद्र और विभिन्न राज्यों में बनी जनता पार्टी की सरकार से कर सकते हैं. देश की अवाम ने कांग्रेस के विकल्प के तौर पर जनता पार्टी की सरकार को चुना था लेकिन अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरने के कारण इन सरकारों का बाद में क्या हश्र हुआ था, केजरीवाल इससे भलीभांति अवगत होंगे.
MCD चुनाव, वैसे तो दिल्ली की तीन महानगरपालिकाओं के चुनाव हैं, लेकिन इन्हें केजरीवाल के लिए कठिन चुनौती माने जाने के कई कारण हैं. पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण तो यह है कि दिल्ली को भले ही राज्य का दर्जा हासिल है, लेकिन यह एक महानगर है. ऐसे में यह चुनाव लोगों के बीच केजरीवाल के प्रति अब तक कायम विश्वास (अगर यदि बरकरार है तो) का ‘टेस्ट’ होगा. दूसरी बात यह है कि आम आदमी पार्टी हाल ही में पंजाब और गोवा में मिली हार के जख्म को अभी भी सहला रही है. इन दोनों राज्यों में पार्टी ने बढ़-चढ़कर सरकार बनाने के दावे किए थे, लेकिन लंबी-चौड़ी बातों के बावजूद वह लोगों का विश्वास नहीं जीत सकी. ऐसे में एमसीडी चुनाव के परिणामों पर उसका बहुत कुछ दांव पर लगा है. पार्टी को यदि कामयाबी मिली तो केजरीवाल की विजय दुंदभी फिर बजनी शुरू हो जाएगी, लेकिन इसके विपरीत स्थिति में उनके नेतृत्व के खिलाफ उठ रही आवाजें और जोर पकड़ लेंगी. आम आदमी पार्टी के लिए एमसीडी चुनाव लिहाज से आदर्श स्थिति यह है कि इस समय एमसीडी पर बीजेपी काबिज है और सत्ता विरोधी रुझान (एंटी इनकमबेंसी) कांग्रेस और आप जैसी विपक्षी पार्टियों के लिए अनुकूल साबित हो सकता है. बहरहाल, इस स्थिति का आप फायदा ले पाएगी, इस पर निश्चित ही सबकी नजर होगी.
दिल्ली में सत्तासीन होने के बाद आम आदमी पार्टी या यूं कहें अरविंद केजरीवाल का ‘साम्राज्य’ धीरे-धीरे दरक रहा है. लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद दो आप सांसद ने पार्टी से दूरी बनाई.दिल्ली में आप के सत्ता में आने के बाद योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे विश्वस्त साथी साथ छोड़ गए. कुछ मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार, आपत्तिजनक आचरण और फर्जी डिग्री जैसे मामले सामने आए. पार्टी अपने खाते में आए इस अपयश का जवाब अपने काम के जरिये दे सकती थी, लेकिन शिक्षा सुधार और मोहल्ला क्लीनिक जैसी उपलब्धियों को छोड़ दें तो सरकार को परफार्मेंस खाता कोई खास उपलिब्ध वाला नहीं है. पार्टी के विधायकों में भी मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की कथित तौर पर निरंकुश शैली को लेकर गुस्सा आम होने लगा है.
कुछ विधायकों का तो यह भी मानना है कि केजरीवाल और उनके इर्दगिर्द रहने वाले सहयोगियों के अति आत्मविश्वास के कारण ही पंजाब और गोवा में पार्टी के खाते में हार आई. एक नया मामला अरुण जेटली मानहानि मामले में मशहूर वकील राम जेठमलानी की फीस दिल्ली सरकार के खाते से वसूले जाने संबंधी दिल्ली सरकार के पत्र से आया है. यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि केजरीवाल और उनके कुछ सहयोगियों से व्यक्तिगत तौर पर संबंधित इस मामले का आर्थिक खामियाजा सरकार यानी दिल्ली के जनता से खाते से क्यों चुकाया जाए. केजरीवाल के लिए समय तेजी से निकलता जा रहा है. जनता के विश्वास की कसौटी पर खरा उतरने के लिए उनकी सरकार को अभी बहुत कुछ करना होगा. उन्हें दिल्ली की जनता का ‘साथ’ हमेशा मिलते रहने की ग्रंथि से भी बाहर निकलना होगा…
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