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Delhi-NCR - Hindi - Political - Politics - February 13, 2020

दिल्ली में ‘AAP’ की जीत पर जातिवादी राजनीति क्यों !

आम आदमी पार्टी ने 2015 की अपनी सफलता को लगभग दोहराते हुए दिल्ली में लंका फतह कर जबरदस्त चुनावी जीत हासिल की. दिल्ली में उनकी यह धमाकेदार जीत 2015 से इस मायने में ज्यादा महत्वपूर्ण है कि तब ‘एक उम्मीद’ को वोट मिले थे और इस बार ‘उस उम्मीद पर खरे उतरने’ को लेकर वोट मिले है.

इससे पहले भी जब 26 जनवरी के बाद से बीजेपी ने दिल्ली में आक्रामक हिंदुत्व का माहौल बनाना शुरू किया तब से आम-तौर पर लग रहा था कि 56-57 सीट के नीचे यदि आम आदमी पार्टी गयी तो यह मान लेना चाहिए कि बीजेपी ने ध्रुवीकरण का अपना गणित साध लिया और उसका खुद का और विपक्षों का यकीन इस फॉर्मूले पर पुख्ता हो जायेगा.

आपको बता दें कि 56-57 सीट कम से कम आम आदमी पार्टी को उसके मोहल्ला क्लिनिक, शिक्षा का बजट ( लगभग एक तिहाई तक ले जाने), अस्पताल की सुविधा, पानी सप्लाई की दुरुस्ती आदि के कारण प्रतिसाद स्वरूप मिलनी थी. साथ ही बिजली-पानी और किराये का मुफ्त होना उसमें सरप्लस है.

यह अलग बात है कि आप के इन कार्यों, बिजली-पानी को बीजेपी ‘मुफ्तखोरी’ बताने में पूरजोर हमेशा से ही लगाती रही है, भले ही खुद उज्ज्वला योजना सहित अनेक सब्सिडी की योजनाएं देती रहे. लेकिन इन सबके बाद भी कुछ लोग ऐसे है जिन्हें अपने खून चाटकर जीने का आनंद आता है और उन्हें बीजेपी का ‘मुफ्तखोरी’ वाला जुमला प्रिय लगने लगा।

वहीं सब्जी खरीदते हुए धनिया, पुदीना मुफ्त में खरीदने वाले या गोलगप्पे खाते हुए एक फ्री की पापड़ी पर ललचाने वाले यह जमात ‘मुफ्तखोरी’ को महापाप बता रही है. आक्रामक हिंदुत्व का राग जब बीजेपी ने छेड़ा तो लगा कि यह अधिकतम उसके अपने उस वोटबैंक को दुरुस्त करने भर का असर पैदा करेगा, जो फ्लोट करने की स्थिति में होगी लेकिन इससे ज्यादा असर नहीं होने वाला.

इन सबके बाद भी कुछ प्रकरणों में तो ठीक उल्टा परिणाम भी हुआ-मसलन अच्छे स्कूलों में भेजते मां-बाप को भला इसके पस्तहाल स्कूल की तस्वीरें क्यों कर भटका पातीं! या जिनके घरों में आ रहा पानी समय और गुणवत्ता, दोनो लिहाज से बेहतर हुआ हो वह रामविलास पासवान के खराब पानी के प्रोपगंडा को क्यों मानेगा? या फिर दो-चार गलत बिजली बिल के कारण मुफ्त बिजली पा रहे लोग यह क्यों यकीन करेंगे कि उनका बिजली बिल माफ नहीं हुआ?

इन छुटपुट से सभी गलत दावों के साथ बीजेपी ने अपने सारे पहलवान मैदान में उतार दिये और जिसके बाद उनके पास कोई तुरुप का इक्का ही नहीं बचा रखा तो उसका नुकसान उसकी छवि पर होना स्वभाविक ही है-क्योंकि दिल्ली की खबरों का प्रसार व्यापक होता है। खैर। आम आदमी पार्टी की जीत सेंटर राइट की जीत है, राइट की पराजय की तरह इसे नहीं लेना चाहिए.

बता दें कि सेंटर राइट जो आम आदमी पार्टी भी है और कांग्रेस का अधिकतम भी। यह किसी विपरीत नैरेटिव की जीत नहीं है। आम आदमी पार्टी अपने उद्भव के साथ ही इससे अधिक रहा भी नहीं है। बल्कि सत्ता प्राप्ति के बाद पिछले 5 -6 सालों में यह थोड़ा और सेंटर की ओर बढ़ा है, राइट से दूरी के लिहाज से। और राइट जो मोदी-शाह काल में अपनी आक्रामकता से एक इंच समझौता नहीं करना चाहता आम आदमी पार्टी से अधिक नफरत करता है. उसे ‘जय श्रीराम’ से एक इंच न आगे चाहिए, न पीछे. जय श्रीकृष्ण का ‘स्त्रैण’ भाव इन्हें नहीं चाहिए, हनुमान भी नहीं, सीता आदि तो इसके रामराज्य में ‘दुरुस्ती’ के लक्ष्य ही हैं. इसलिए अरविंद केजरीवाल की हनुमान भक्ति को भी बीजेपी अप्रूव नहीं करेगी और न ही उनकी राजनीति को.

अरविंद केजरीवाल अगर सत्ता के लिए सेंटर राइट से राजनीति कर रहे हैं , वे अगर थोड़े बीजेपी के स्पेस पर अपने राजनीतिक किले बना रहे, तो इसमें क्या बुरा है? वह नीतीश कुमार की राजनीति से इस मायने में बेहतर है कि ये लोग राइट के विरोध के ब्रॉडर वाम स्पेस पर अपनी राजनीति कर ब्रॉडर वाम को संकुचित होने को बाध्य करते हैं, बीजेपी और आरएसएस से टैक्निकल रिश्ते बनाते हैं जबकि अरविंद जैसे लोग बॉर्डर राइट को संकुचित करेंगे, उनका टैक्निकल अलायंस राइट विरोधी फोर्स के साथ होगा और हो भी रहा है जिसके बाद इसी दिशा में शिवसेना जैसी पार्टी ने भी राह पकड़ी है. सेक्यूलर मतों को कब्जाकर उसे संघ के पाले में पहुंचा देने से तो अच्छा है कि संघ के मतों में सेंधमारी कर सकने वाली राजनीति उसके प्रसार को रोके.

हालांकि राजनीति की यह दशा-दिशा बदलाव का बड़ा वाहक नहीं होने वाला. बल्कि बदलाव के लिए जरूरी है कि अपनी राजनीतिक जमीन, जो स्तरीकृत इस समाज को समता की दिशा में समतल कर सके.बता दें कि दिल्ली में ताबड़तोड़ जीत के बाद अब अरविंद केजरीवाल 16 फरवरी को सुबह 10 बजे मुख्यमंत्री की शपथ रामलीला मैदान में लेंगे.

सूत्रों के मुताबिक यह भी खबर मिली है कि शपथ ग्रहण समारोह में केवल दिल्ली वालों को न्यौता मिलेगा अब ऐसे में बाकि के राज्यों से विपक्षी दल के नेता मौजूद नही रहेंगे. जिसके बाद यह तो तय दिख रहा है कि शपथ ग्रहण समारोह में विपक्षी नेताओं की तस्वीर देखने को नही मिलेगी. अब 16 फरवरी को देखना यह होगा कि इस बार अरविंद केजरीवाल के तीसरे शपथ ग्रहण समारोह में क्या कुछ अलग देखने को मिलता है.

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