मोदी का भ्रमजाल और बहुजनों का सवाल
~ नवल किशोर कुमार
विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में चुनाव अब समाप्ति की ओर अग्रसर है। सात चरणों में केवल अंतिम चरण का मतदान शेष है। आगामी 19 मई को यह पूरा हो जाएगा। इसके बाद 23 मई को मतों की गिनती होगी और फिर यह तय हो सकेगा कि अगले पांच साल तक इस देश पर किसका राज होगा। लेकिन, इस चुनाव की सबसे खास बात यह रही कि बहुजनों के मुद्दे नरेंद्र मोदी के राष्ट्रवाद के ढोल और बालाकोट में कथित तौर पर किए गए धमाकों की शोर में गायब हो गए।
सबसे दुखद यह कि बहुजनों के सवालों को खुद बहुजनों के नेताओं ने कोई तवज्जो नहीं दी। पूरे चुनाव में कथित बहुजन नेता उन मुद्दों को लेकर उछलते-कूदते रहे जिन मुद्दों को आरएसएस के मुखौटे नरेंद्र मोदी ने हवा दी। फिर चाहे वह जातिगत जनगणना के सवाल हों या फिर सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण देने का सवाल। कोई भी बहुजन नेता इन सवालों को लेकर बहुजनों के बीच नहीं गया।
मायावती-अखिलेश ने भी नहीं ली बहुजनों की सुध
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के बीच गठबंधन हुआ। चुनाव के पहले यह कयास लगाया जा रहा था कि कांग्रेस भी इस गठबंधन का हिस्सा बनेगी लेकिन मायावती और अखिलेश ने कांग्रेस को दूर रखा। इस गठबंधन ने मुद्दों के बजाय जातिगत समीकरणों के आधार समझौते किए। मतलब यह कि इस गठबंधन की सफलता का पूरा दारोमदार यादव, मुस्लिम और दलित वोटरों की एकजुटता पर निर्भर है। वहीं अति पिछड़ा वर्ग और उसके सवालों को इस गठबंधन ने छुआ तक नहीं। यहां तक कि ओबीसी के उपवर्गीकरण को लेकर भी इस गठबंधन की ओर से कोई स्पष्ट राय नहीं रखी गयी। हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार के बागी मंत्री ओमप्रकाश राजभर के कारण एकबारगी यह लगा भी कि अति पिछड़ा के सवाल मौजूं होंगे। परंतु ऐसा नहीं हो सका।
मायावती और अखिलेश ने जातिगत जनगणना जैसे अति महत्वपूर्ण सवाल को भी नजरअंदाज किया। उनके भाषणाों में नरेंद्र मोदी और उनके भ्रमजाल ही छाए रहे। यहां तक कि मुलायम सिंह यादव ने जब अखिलेश और मायावती के साथ मंच साझा किया तब भी उन्होंने दलित-बहुजनों के सवाल उठाने के बजाय नरेंद्र मोदी के बनावटी मुद्दों तक खुद को सीमित रखा।
बिहार में तेजस्वी का प्रयास अपर्याप्त
वहीं बिहार में राजद नेता तेजस्वी यादव ने अपने भाषणों में बहुजनों को आबादी के अनुरूप आरक्षण देने की बात कही। उन्होंने 70 फीसदी आरक्षण को लेकर बहुजनों का आह्वान किया। लेकिन उनका यह प्रयास भी अधूरा रहा। उनके भाषणों में बहुजनों के सवालों से महत्वपूर्ण उनके पिता लालू प्रसाद को चारा घोटाले में मिली जेल की सजा रही जैसा कि भाजपा चाहती थी। वे यानी तेजस्वी पूरे चुनाव के दौरान बहुजनों से सहानुभूति के आधार पर वोट मांगते दिखे। जबकि होना यह चाहिए था कि तेजस्वी बहुजनों के उन सवालों को आगे बढ़ाते जिन्हें उनके पिता ने मजबूत बुनियाद दी थी। परिवार में विवाद के कारण भी तेजस्वी का प्रयास अपर्याप्त रहा।
छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में हुकूमत के बावजूद हाशिए पर रहे पिछड़े
हिंदी राज्यों में दो अन्य राज्य छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में हालांकि पिछड़े वर्गों क्रमश: भूपेश बघेल और कमलनाथ की सरकार है। पहले यह माना जा रहा था कि कांग्रेस अपनी तरफ से बहुजनों के सवालों को लेकर आगे बढ़ेगी। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल जो कि कुर्मी/पटेल समुदाय से आते हैं, ने एक प्रयास भी किया लेकिन कांग्रेसी आलाकमान के सामने उन्होंने घुटने टेक दिए। वहीं मध्य प्रदेश में भाजपा ने कमलनाथ पर ईडी का डंडा चलाया और चुनाव के दौरान उन्हें हाशिए पर भेज दिया। कांग्रेस और भाजपा दोनों ने इन दोनों राज्यों में बहुजनों के सवालों को उठाने से परहेज किया। हालांकि इन दोनों दलों के अब तक के इतिहास से ऐसा होना कोई आश्चर्य नहीं पैदा करता है। परंतु भूपेश बघेल और कमलनाथ से बहुजनों को उम्मीद जरूर थी।
राजस्थान : चक्कर में पड़े रहे गहलोत
मध्य भारत के एक और राज्य राजस्थान में अशोक गहलोत मुख्यमंत्री हैं। वे ओबीसी से आते हैं। लेकिन इस बार के चुनाव में उनके लिए ओबीसी समुदाय केवल वोटर साबित हुए। उनके मुद्दों को लेकर किंकिर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति बनी रही। हालांकि टिकट बंटवारे में इस बार राजस्थान में ओबीसी को अधिक हिस्सेदारी जरूर मिली परंतु मुद्दों के रूप में न तो जातिगत जनगणना का सवाल रहा और न ही सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण का सवाल।
बहरहाल, कहना गैर वाजिब नहीं कि यदि दलित-बहुजनों के उपरोक्त नेता दलित-बहुजनों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता कायम रखते तो निश्चित तौर पर न तो नरेंद्र मोदी का भ्रमजाल फैलता और न ही वे मुद्दे हवा होते जो दलित-बहुजनों के लिए जरूरी थे।
~ नवल किशोर कुमार
~ लेखक फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक हैं
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