अखबारनामा : भारतीय अखबारों को चाहिए राजतंत्र
दोस्तों, अब यह कहावत लोकप्रिय हो चुकी है कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि मीडिया को यह खिताब दिया किसने है? क्या यह खिताब सरकारी खिताब है? या फिर यह खिताब देश की जनता ने दिया है? या कहीं ऐसा तो नही है कि मीडिया ने यह खिताब खुद ही घोषित कर लिया है? इन सबसे बड़ा सवाल यह कि मीडिया वाकई में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है?
अखबारनामा के आज की कड़ी में इन सवालों पर विचार करेंगे और खासकर बिहार के अखबारों में प्रकाशित खबरों पर विचार करेंगे। हमारा मकसद आपको खबरों के बारे में केवल बताना ही नहीं है बल्कि खबरों के प्रकाशन के पीछे जो रहस्य होते हैं, उनके बारे में आपको जागरूक बनाना है। यह बहुत जरूरी है क्योंकि जबतक आप यह नहीं समझेंगे तबतक आप अखबारों के जरिए समाज में वर्चस्व बनाए रखने की ब्राह्मणवादी साजिश का शिकार होते रहेंगे।
दरअसल, यह समझ लेना बहुत जरूरी है कि दुनिया में कोई भी अखबार निरपेक्ष नहीं होता है। हर अखबार की निरपेक्षता का स्तर अलग-अलग होता है। कोई किसी के प्रति कुछ ज्यादा सापेक्ष तो कोई कुछ कम।….इसको ऐसे भी समझिए कि हमारा नेशनल इंडिया न्यूज भी निरपेक्ष नहीं है। लेकिन हम सापेक्ष हैं 85 फीसदी बहुसंख्यक बहुजनों के।हम सापेक्ष इसलिए हैं क्योंकि हम यह मानते हैं कि 85 फीसदी लोगों के हक-अधिकार पर 15 फीसदी वालों का कब्जा है।बात पारदर्शी तरीके से किया जाना जरूरी है। नहीं तो बात बनती नहीं।
तो चलिए हम आपको बताते हैं कि मीडिया की भूमिका भले ही लोकतंत्र में बहुत अहम है और उसकी इस भूमिका के कारण इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाना चाहिए। लेकिन भारतीय मीडिया के पास इसका नैतिक अधिकार अभी तक हासिल नहीं है।पहले इसका सबूत हम आपके समाने रखते हैं।
कल दिल्ली में एक कार्यक्रम हुआ। यह कार्यक्रम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर केंद्रित था। कल उन्होंने विजयाराजे सिंधिया जो कि भाजपा की संस्थापक सदस्यों में से एक थीं, स्मृति में 100 रुपए का सिक्का जारी किया। दिल्ली से प्रकाशित दैनिक हिन्दुस्तान ने दूसरे पन्ने पर इस खबर को प्रकाशित किया है। शीर्षक है – राजमाता के सपनों को ‘आत्मनिर्भर’ भारत से सच करेंगे : मोदी।
इस खबर के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि राजमाता शब्द का प्रयोग विजयाराजे सिंधिया के लिए किया गया है। वह सिंधिया राजघराने की बहू थीं। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह विडंबना ही है कि अभी भी राजमाता जैसा सामंती शब्द लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए प्रधानमंत्री करते हैं। जबकि भारत में राजतंत्र के लिए अब कोई जगह नहीं है। संविधान इसे पूरी तरह खारिज करता है। 1970 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रिवी पर्स योजना जो कि राजाओं-महाराजाओं को सरकारी खजाने से पेंशन देने से संबंधित था, उसको खत्म कर दिया था। यह एक क्रांतिकारी कदम था। परंतु यह भी सत्य है कि तब राजाओं-महाराजाओं के यहां पलने वाले कुछेक नेताओं को यह नागवार गुजरा। इनमें से एक रहे जयप्रकाश नारायण। उन्होंने इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन ही छेड़ दिया। हालांकि बड़ी चालाकी से उन्होंने इसे संपूर्ण क्रांति आंदोलन का नाम दे दिया। लेकिन मकसद तो इंदिरा गांधी को हटाना था ताकि जो नई सरकार बने वह राजाओं-महाराजाओं को उनका पेंशन जारी रखे।
खैर, इस कार्यक्रम में हम संपूर्ण क्रांति आंदोलन की समीक्षा नहीं करने जा रहे हैं। यह एक बड़ा काम है क्योंकि इस आंदोलन ने 1970 के दशक में भारतीय राजनीति की दशा और दिशा बदल दी।हम बात कर रहे हैं कि लोकतांत्रिक देश में राजमाता शब्द का उपयोग प्रधानमंत्री कैसे कर सकते हैं। यदि कर रहे हैं तो यह मान लिया जाना चाहिए कि वे संविधान विद्रोही हैं। क्योंकि संविधान में ऐसे शब्द शामिल ही नहीं है। आप संविधान की प्रस्तावना पढ़ लें आप समझ जाएंगे कि इस देश के संविधान के मूल में क्या है। पूरा आशय यही है कि हम भारत के लोग समतामूलक समाज की स्थापना के लिए राजतंत्र को खारिज करते हैं तथा लोकतंत्र को स्वीकार करते हैं।लेकिन भारतीय समाज कभी भी लोकतांत्रिक रहा ही नहीं है। जाति व्यवस्था का खेल आप सभी समझते हैं। प्रधानमंत्री के मंत्रिपरिषद में 85 फीसदी द्विज हैं जिनकी आबादी में हिस्सेदारी केवल 15 फीसदी है।
अब पटना से प्रकाशित प्रभात खबर के आज के संस्करण में विजयाराजे सिंधिया की स्मृति में प्रदेश भाजपा कार्यालय में कार्यक्रम होने की सूचना है। यह खबर नहीं है केवल सूचना है। खबर और सूचना में अंतर होता है। खबर की परिभाषा में निरपेक्षता निहित है। लेकिन प्रभात खबर ने जो प्रकाशित किया है वह ऐसा ही है जैसा कि प्रधनमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में कहा है और दैनिक हिन्दुस्तान द्वारा प्रकाशित है। खबर में विजयाराजे सिंधिया को राजमाता कहा गया है।
अखबार की चालाकी देखिए कि उसने तस्वीर में एक ओबीसी की तस्वीर को प्रकाशित किया है। यह तस्वीर है बिहार भाजपा के कद्दावर नेता नंदकिशोर यादव की। मतलब यह कि राजपूत महारानी को राजमाता कहने वाले ओबीसी हैं। हिन्दुस्तान के दिल्ली संस्करण में इससे संबंधित खबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर है तो पटना में नंदकिशोर यादव की। दोनों ओबीसी हैं और आरएसएस के अंधभक्त हैं, गुलाम हैं।बहरहाल, आज बस इतना ही। कल फिर समझेंगे कि कैसे भारतीय मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा होने का अधिकार दिन पर दिन खोता जा रहा है।
यह लेख वरिष्ठ पत्रकार नवल किशोर कुमार और सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषण मनीषा बांगर के निजी विचार है ।
(अब आप नेशनल इंडिया न्यूज़ के साथ फेसबुक, ट्विटर और यू-ट्यूब पर जुड़ सकते हैं.)
तो क्या दीप सिद्धू ही है किसानों की रैली को हिंसा में तब्दील करने वाला आरोपी ?
गणतंत्र दिवस पर किसान संगठनों की ओर से निकाली गई ट्रैक्टर रैली ने मंगलवार को अचानक झड़प क…