युवा राजनीति के आगे बैकफुट पर बिहार के अख़बार
दोस्तों, राजनीति भी समाज का हिस्सा है। जैसे समाज, देश और दुनिया में कुछ भी स्थायी नहीं होता, राजनीति में भी सब अस्थायी होते हैं। मतलब यह कि परिर्वतन होते रहते हैं। ठीक वैसे ही जैसे बुद्ध ने कहा था – सबकुछ परिवर्तनशील है। यह एक फिलॉसफी है और पॉलिटिक्स इसका विरोध नहीं करता। इस कार्यक्रम के जरिए हम आपको अखबारों में प्रकाशित होने वाली खबरों और इसके पीछे की खबरों से रू-ब-रू कराते हैं। हमारा मकसद यह है कि.. आप यह समझें कि आखिर खबरों में किस तरह राजनीति निहित है… और क्या यह भी परिवर्तनशील है… दुनिया के शेष चीजों के माफिक।

बिहार में होने वाला विधानसभा चुनाव एक कसौटी बन गया है। इस चुनाव में जिस तरह की खबरें अबतक आ रही हैं, वे एक बड़े परिवर्तन की ओर इशारा करते हैं। मसलन यह कि इस बार बिहार के विधानसभा चुनाव में… एक साथ तीन बड़े चेहरे गायब हो चुके हैं। ये चेहरे बड़े चेहरे हैं। एक समय था… जब इन चेहरों के बगैर किसी चुनाव की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। ये वे लोग हैं जिन्होंने बिहार की की राजनीति को… करीब चार दशक से प्रभावित रखा है।

ये तीन चेहरे हैं – राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद, लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामविलास पासवान और मंडल आंदेालन के प्रणेता रहे शरद यादव। इस बार के चुनाव में इन तीनों की गैर-मौजूदगी बहुत खास है। लालू प्रसाद चारा घोटाला के मामले में राजनीतिक युद्धबंदी के तौर पर जेल में हैं। स्वास्थ्य कारणों से उन्हें रांची के रिम्स अस्पताल में रखा गया है। वहीं रामविलास पासवान वर्तमान केंद्रीय सरकार में कैबिनेट मिनिस्टर हैं, लेकिन स्वास्थ्य कारणों से इस बार के चुनाव में अभी तक सक्रिय नहीं दीख रहे हैं। उनकी जगह उनके बेटे चिराग पासवान ने अपनी पार्टी की बागडोर संभाल ली है। तीसरे शरद यादव भी बीमार चल रहे हैं। इसकी असक्रितया की एक वजह इनका राजनीतिक रूप से अलग-थलग होना भी है।

रामविलास पासवान और शरद यादव से अलग लालू प्रसाद की खासियत यह है कि… वे बिहार की राजनीति के हब हैं। अभी भी अखबारों में उनसे जुड़े विपक्षी दलों के नेताओं के बयान छपते ही हैं… जो यही इशारा करते हैं कि लाख कोशिशों के बावजूद… विपक्षी लालू प्रसाद की अहमियत को कम नहीं कर पाए हैं। बिहार में लालू प्रसाद पर हमला बोलने वालों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से लेकर बिहार भाजपा के प्रभारी देवेंद्र फडणवीस और बिहार के उपममुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी सबसे अहम हैं। बिहार के अखबारों में उन खबरों को प्राथमिकता भी दी जाती है …जिनमें उन्हें कोसा जाता है। उनकी आलोचना की जाती है। खासतौर पर इसकी पुष्टि सुशील मोदी के प्रकाशित बयानों से होती है। प्राय: हर दिन लालू प्रसाद खिलाफ उनके बयान होते ही हैं।

ऐसा क्यों हैं है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। लेकिन हम आपको बताना चाहते हैं बदलाव के बारे में। यह बदलाव जैसा कि मैंने पहले कहा कि बेहद अहम हैं। अब आप बिहार के चुनाव को इस नजरिए से भी देख सकते हैं कि… एक तरफ बुजुर्ग हो चुके नीतीश कुमार और सुशील मोदी हैं.. तो दूसरी तरफ तेजस्वी और चिराग जैसे युवा नेता। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि.. लोजपा को नीतीश् कुमार और अमित शाह अपने गठबंधन में ठौर देंगे या नहीं। इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता है कि.. चिराग पासवान चुनाव में उनके खिलाफ ताल ठोकेंगे ही। लेकिन यह तो उन्होंने पहले ही जता दिया है कि… वे चुनाव की लड़ाई उस अंदाज में नहीं लड़ेंगे.. जिस अंदाज से उनके पिता चुनाव लड़ते थे। मतलब यह कि उन्होंने नीतीश कुमार के उपर जमकर अभियान छेड़ दिया है। उन्होंने उनके सात निश्चयों को खारिज किया है। भले ही आज बिहार में प्रकाशित अखबारों में उनके बयान को जगह नहीं दी गई है… लेकिन न्यूज चैनलों व सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक उनके बिहारी फर्स्ट अभियान की गूंज पहुंच चुकी है।

दरअसल, इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव युवा नेताओं के कारण खास हो गया है। इस बार के मुद्दे भी बदल गए हैं। पहले होता यह था कि नीतीश कुमार और सुशील मोदी लालू प्रसाद पर हमलाकर चुनाव जीतने में कामयाब हो जाते थे। इसका एक बड़ा कारण यह रहा कि चारा घोटाले में उन्हें दोषी करार दे दिया गया। उनके बेटे तेजस्वी यादव ने इस बार के मुद्दे को ही बदल दिया है। अब वे बेरोजगारी, गरीबी और नीतीश कुमार के निरंकुश शासन को मुद्दा बना रहे हैं। सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दों को लेकर उतने मुखर नहीं हो रहे। वे यह समझ चुके हैं कि.. केवल सामाजिक न्याय के सहारे ही जीत हासिल नहीं की जा सकती है। इसलिए वे इसके आगे के विस्तार… यानी आर्थिक न्याय की बात कर रहे हैं। जबकि नीतीश कुमार का पूरा फोकस अभी भी ढांचागत विकास ही है। उनकी परेशानी यह है कि वे बिहार की जनता को ठोस जवाब नहीं दे पा रहे हैं कि.. यदि वे विकास ही करना चाहते हैं तो पिछले पंद्रह सालों में उन्होंने क्या किया? क्या केवल ढांचागत विकास के नाम पर सड़क, गली और नाली बना देने से बिहार के लोगों का विकास हो जाएगा?

खासबात यह भी कि तेजस्वी यादव ने अपने रूख में बड़ा बदलाव किया है। खासकर सीटों के वितरण के मामले में उन्होंने बड़ा हृदय दिखाया है। वे महागठबंधन को एकजुट रखने में कामयाब हुए हैं। इसके लिए उन्होंने कुर्बानी भी दी है। वामदलों के साथ गठबंधन को भी उन्होंने महत्व दिया है। जबकि दूसरी ओर एनडीए गठबंधन में अभी भी नीतीश कुमार और भाजपा के बीच कौन बड़ा है, इसकी लड़ाई जारी है। इसमें बड़ा पेंच रामविलास पासवान की पार्टी का है। नीतीश कुमार नहीं चाहते हैं कि वे अपने कोटे के सीटों में से लोजपा को सीटें दें। कई बार जदयू के नेता यह साफ कर चुके हैं कि उनका गठबंधन भाजपा से है। वहीं भाजपा भी इस बार नीतीश कुमार को इस मामले में पटखनी देना चाहती है कि.. वह अब बड़े भाई की भूमिका के योग्य नहीं रहे।

.
नीतीश कुमार और सुशील मोदी के जैसे बिहार के अखबारों के समक्ष भी उहापोह की स्थिति उत्पन्न हो गई है। वे यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि.. लालू प्रसाद के बेटे और रामविलास पासवान के बेटे की उपेक्षा कैसे करें। जाति के आधार पर अखबारों में उनके प्रति दुर्भावना से सभी परिचित हैं। लेकिन जनता के बीच उनका आधार उन्हें मजबूर कर रहा है कि.. वे उनकी खबरों को भी महत्व दें।

बहरहाल, बिहार विधानसभा चुनाव में यह शुरूआती संकेत हैं। अभी चुनावी लड़ाई लंबी है। आने वाले समय में तस्वीर और साफ होगी और अखबारों की नीयत और नियति भी साफ होगी।
यह लेख वरिष्ठ पत्रकार नवल किशोर कुमार के निजी विचार है ।
(अब आप नेशनल इंडिया न्यूज़ के साथ फेसबुक, ट्विटर और यू-ट्यूब पर जुड़ सकते हैं.)
तो क्या दीप सिद्धू ही है किसानों की रैली को हिंसा में तब्दील करने वाला आरोपी ?
गणतंत्र दिवस पर किसान संगठनों की ओर से निकाली गई ट्रैक्टर रैली ने मंगलवार को अचानक झड़प क…