राजनीति में वंशवाद ब्राह्मणवाद का ही विस्तार है !
भारत में लोकतंत्र और यहां के व्यक्ति कितना कमजोर एवं बीमार हैं, इसका एक अंदाज पार्टियों के अलोकतांत्रिक चरित्र से लगाय जा सकता है। कांग्रेस में यह बहस चल रही है कि नेहरू परिवार के वंशानुगत विरासत के बिना कांग्रेस चल सकती है या नहीं, अधिकांश इसी पक्ष में हैं कि किसी न किसी रूप में राजवंशों की तर्ज पर ही कांग्रेस को चलाया जा।
कांग्रेस में एक भी रीढ़ वाला नेता नहीं है, जो इस वंश पंरपरा को चुनौती दे और कह सके कि कांग्रेस को पूरी तरह लोकतांत्रिक तरीके-चुनाव और बहुमत अल्पमत से चलाया जाना चाहिए।करीब पूरी कांग्रेस ऊपर से लेकर नीचे तक वंशवाद के आधार पर चल रही है, सभी नए उभरे नेता की किसी पुराने नेता के बेटा-बेटी हैं।
कांग्रेस के अलाव करीब 15 मुख्य पार्टियां ऐसी हैं, जो वंश परंपरा से चल रही हैं, उन पार्टियों में कांग्रेस की तरह ज्यादात्तर बिना रीढ़ वाले लोग हैं, जो सहज ही वंश परंपरा को स्वीकार किए हुए हैं। ऐसी पार्टियों देश के उत्तर-दक्षिण और पूरब-पश्चिम सभी तरफ हैं।
उत्तर में राजद, सपा और लोक जनशक्ति पार्टी-रामविलास पासवान-चिराग पासवान इसके खुले उदाहरण हैं, बसपा ने भी वंश परंपरा से अपना वारिस घोषित कर दिया है, दक्षिण में द्रमुक- करूणानिधि के बेटे-बेटी। दक्षिण में आंध्रप्रेदश जगनमोहन रेड्डी और चंद्रबाबू नायडू दोनों। तेलंगाना में टीआरएस प्रमुख ने अपना वारिस घोषित कर दिया है।
पश्चिमोत्तर भारत में शिवसेना-तीसरी पीढ़ी, एनसीपी- दूसरी-तीसरी पीढ़ी, पंजाब-अकालीदल दूसरी पीढ़ी, जम्मू-कश्मीर- नेशलन कांफ्रेंस तीसरी पीढ़ी, पीडीपी-दूसरी पीढी, पूर्वोत्तर संगमा परिवार-दूसरी पीढ़ी, कर्नाटक- देवगौड़ा के बेटा आदि। वामपंथी पार्टियां अभी वंश परंपरा से मुक्त हैं, लेकिन उन पर धीरे-धीरे जननेताओं का नहीं, बल्कि जेएनयू मार्का- प्रकाश करात एवं येचुरी जैसे अकादमिक लोगों ने वर्चस्व कायम कर लिया है।
आम आदमी पार्टी एक एनजीओं की तरह है,जिसका मुखिया केजरीवाल हैं, वहां भी लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पूरी तरह खात्मा हो चुका है, ऐसे लोगों को बाहर की किया जा चुका है, जिनके पास रीढ़ थी और केजरीवाल को चुनौती दे सकते थे।
बीजेपी को यह तो संघ संचालित कर रहा है या अकेले नरेंद्र मोदी। वहां शीर्ष पर भले ही अभी वंशवाद हावी न हुआ हो,लेकि नीचे के स्तर पर बेटे-बेटियों का खेल खूब चल रहा है। बीजेपी को चलाने वाला संघ पूरी अलोकतांत्रिक संस्था है। जहां जाति विशेष के मर्द संघ प्रमुख बनते हैं, वह भी बिना किसी चुनाव या लोकतांत्रिक प्रक्रिया के।
जिस के लोकतंत्र का संचालन संघ जैसी अलोकतांत्रिक संस्था या नरेंद्र मोदी जैसा व्यक्तिवादी ( तानाशाह) कर रहा हो और उसके विकल्प में वंशवाद पर आधारित पार्टियां मौजूद हो, उस लोकतंत्र को लोकतंत्र कहना भी मुश्किल लगता है और इस बात पर शर्म महसूस होती है कि 1 अरब 30 करोड़ की आबादी वाले देश में ऐसे लोग नहीं ऊभर कर समान आ रहे हैं, जो सचमुच में लोकतात्रिक पार्टी का निर्माण कर सकें।
वंशवादी पार्टियों को देखकर लगता है कि इसके अधिकांश नेता रीढ़ विहीन केचुए जैसे हैं, जो भी इन्हें जिताने में मदद कर सके, उसकी जी हजूरी करने को तैयार हैं, क्योंकि किसी को भी लोकतंत्र से मतलब नहीं है, उन्हें चुनाव जीतने या नेता बनने से मतलब है।
वंशवादी पार्टियों को देखकर लगता है कि इसके अधिकांश नेता रीढ़ विहीन केचुए जैसे हैं, जो भी इन्हें जिताने में मदद कर सके, उसकी जी हजूरी करने को तैयार हैं, क्योंकि किसी को भी लोकतंत्र से मतलब नहीं है, उन्हें चुनाव जीतने या नेता बनने से मतलब है।
इस स्थिति के लिए भारतीय समाज एवं व्यक्तियों की अलोकतांत्रिक मानसिकता जिम्मेदार है। राजनीति में वंशवाद वर्ण-जाति व्यवस्था का विस्तार ही है।
यह लेख वरिष्ठ पत्रकार डॉ. सिद्धार्थ रामू के निजी विचार है ।
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