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Uncategorized - July 18, 2020

जब इलाज मांगना चाहिए लोग फिर से लॉकडाउन मांग रहे हैं !

~मो. तौहिद आलम

“जनता ने 68 दिन घरों में रहकर नियमों का पालन किया, अपनी बचत से खाया पिया। सरकारी फंड में दान भी दिया। आसपास जरूरतमंद लोगों की मदद भी की। उसे उम्मीद थी कि इस दौरान हमारी सरकारें बेहतर तैयारियां कर लेगी। संक्रिमत होने की स्थिति में उसे बेहतर चिकित्सा सुविधा मिलेगी लेकिन, सरकारें हाथ पर हाथ धरे भगवान भरोसे बैठीं रहीं। अब जबकि स्थिति बद से बदतर हो चली है रोज हजारों की संख्या में मरीज मिल रहे है सरकार की जिम्मेदारी बनती थी कि वह ज्यादा से ज्यादा मरीजों को इलाज मुहैया कराए, टेस्टिंग बढ़ाए। उन्हें ऐसे आंकड़ों के जाल में उलझा दिया गया कि अब उल्टे जनता खुद ही सरकार से दोबारा लॉकडाउन की मांग करने लगी है”।  

आखिर कब तक कोई इंसान घरों में कैद रह सकता है? कितने दिनों तक बिना कमाए वह अपना घर-परिवार चला सकता है? एक मध्यमवर्गीय परिवार की सेविंग कितनी होती है? अगर वह अपनी पूरी सेविंग खत्म भी कर दे तो इस बात की क्या गारंटी है कि सबकुछ सामान्य होते ही उसे काम मिल जाएगा? उसकी दिनचर्या पटरी पर लौट आएगी? खबरदार, इस तरह के सवाल पूछने की कोशिश भी मत कीजिएगा। जब पूरा देश कोरोना से लड़ रहा है आपको सरकार से लड़ने की पड़ी है।

क्या आपको दिख नहीं रहा कि सरकार कितनी शिद्दत से कोरोना से लड़ रही है? मध्यप्रदेश में कोरोना को मात देने के लिए एक निर्वाचित सरकार को बदल दिया गया। राजस्थान में भी कोशिश जारी है। जैसे ही वहां सरकार बदली कोरोना ऐसे भागेगा जैसे गधे के सिर से सींग। बिहार में अभी कोरोना पीक पर है। पिछले एक सप्ताह से वहां रोज एक हजार से अधिक मरीज मिल रहे हैं। उसके बावजूद सरकारें जिस तरह से आगामी चुनाव की तैयारी कर रही है वह कम काबिले तारीफ नहीं है। जान की बाजी लगा कर वर्चुअल रैली से लेकर घर-घर संपर्क अभियान चला रही है। तभी तो एक ही पार्टी के 75 नेता/अधिकारी एक ही दिन में संक्रमित हो गए। 

   देश में कोरोना का पहला केस 30 जनवरी को मिला था। उसके बावजूद सारी गतिविधियां जारी रही। 13 मार्च तक स्वास्थ्य मंत्रालय कहता रहा कि भारत में कोरोना से डरने जैसी कोई बात नहीं है। 22 मार्च को अचानक से एक दिन का कर्फ्यू लगा दिया गया। 24 मार्च को बिना किसी तैयारी या पूर्व सूचना को एक ही झटके में 130 करोड़ की आबादी को कैद कर दिया गया। देश में 21 दिन का लॉकडाउन कर दिया गया। इस बीच सरकार से लेकर मीडिया तक में इस बात पर जोर दिया गया कि इस दौरान कोरोना का चेन टूट जाएगा और साथ ही सरकार इससे निपटने के लिए पर्याप्त तैयारी भी कर लेगी। जिस समय लॉकडाउन हुआ उस वक्त पूरे देश में महज 568 कोरोना के मरीज थे।

68 दिन बाद जब पहला अनलॉक हुआ उस वक्त मरीजों की संख्या लगभग दो लाख थी। उससे पहले 18 मई को एक लाख मरीज थे जो 12 दिन में दोगुने हो गए। आज अनलॉक के 48 दिन बाद मरीजों की संख्या पांच गुनी अर्थात 10 लाख से ज्यादा है। इस दौरान 25 हजार से ज्यादा लोगों की मौतें हो चुकी है। लॉकडाउन में केंद्र और राज्यों की सरकारों ने क्या तैयारियां की यह पिछले महीने देश की राजधानी दिल्ली में लोग देख चुके हैं। वहां मरीजों को भर्ती करने के लिए अस्पताल में बेड खाली नहीं थे। दिन-दिन भर अस्पतालों के चक्कर काटने के बाद लोगों को बेड नहीं मिल रहे थे। राजधानी की बदतर स्थिति का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जब स्थिति निंयत्रण से बाहर होने लगी तो सरकार ने एक तुगलगी फरमान जारी कर दिया कि दिल्ली के अस्पतालों में सिर्फ स्थानीय लोगों की ही इलाज होगी। हालांकि, बाद में एलजी ने दिल्ली सरकार के इस फैसले को बदल दिया। 

*जब अफसरों को इलाज नहीं मिल रहा तो आमलोगों का क्या होगा*

अब बिहार की स्थिति बदतर हो चली है। यहां पिछले एक सप्ताह से रोजाना एक हजार से ज्यादा मरीज मिल रहे हैं। अब यहां डॉक्टर भी संक्रमित होने लगे हैं। पिछले दिनों पीएमसीएच के डॉक्टर एनके सिंह की एम्स में कोरोना से मौत हो गई। 68 दिन के लॉकडाउन और 48 दिन के अनलॉक में बिहार में तैयारियों का आलम यह है कि बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी उमेश प्रसाद की इलाज के अभाव में कोरोना से मौत हो गई।

क्योंकि उन्हें अस्पताल में भर्ती करने के लिए बेड खाली नहीं मिले। उनकी मौत के बाद उनके बेटे ने कहा कि कहा कि अगर पापा को फुटपाथ की जगह बेड और समय पर ऑक्सीजन मिल गया होता तो उनकी जान बच जाती। उमेश प्रसाद एम्स के गृह विभाग के अंडर सेक्रेटरी के रूप में कार्यरत थे। एक सप्ताह पहले संक्रमित होने पर उन्हें आईजीआईएमएस में भर्ती कराया गया था। वहां स्थिति में सुधार नहीं होने पर उन्हें पटना एम्स के लिए रेफर किया गया था लेकिन, उन्हें वहां उन्हें बेड नहीं मिला। 

बिहार में कोरोना से निपटने की तैयारियों का हाल सिर्फ पटना नहीं बल्कि राज्य के अन्य जिलों में भी वैसी ही है। पिछले दिनों जब भागलपुर के जिलाधिकारी खुद कोरोना संक्रमित हुए तो इलाज के लिए वे पटना चले गए। जबकि उनके अपने जिला के मायागंज अस्पताल में दर्जनों कोरोना संक्रमितों का इलाज हो रहा है। जिलाधिकारी का इलाज के लिए पटना जाना यह बताता है कि भागलपुर में कोरोना के इलाज की क्या व्यवस्था है।

सोशल मीडिया पर एक फोटो वायरल हो रहा है जिसमें बताया जा रहा है कि युवक अस्थमा का मरीज था। मेडिकल स्टोर पर इनहेलर लेने गया था। लेकिन, दुकान की गेट पर ही उसकी मौत हो गई। युवक की कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव मिली थी। युवक का शव दुकान की गेट पर ही पांच घंटे तक पड़ा रहा लेकिन, न ही पुलिस प्रशासन और न हीं एंबुलेंस ने उसे उठाने की जरूरत समझी। बाद में नगर निगम के दो लोग आए उनके पास पीपीई किट भी नहीं थी। दूसरी दुकान से किट मंगाकर दिया गया तब जाकर उन्होंने शव को उठाया।

*इलाज नहीं चुनाव की तैयारी में लगी है सरकार*

 स्थिति इतनी भयावक होने के बावजूद बिहार में चुनाव की तैयारियों में कोई कोताही नहीं बरती जा रही है। 16 जुलाई को चुनाव आयोग ने आदेश जारी किया कि अब बिहार चुनाव में 65 नहीं बल्कि 80 पार के बुजुर्ग और कोरोना संक्रमित लोग ही पोस्टल बैलेट से वोट दे पांगे। जबकि गाइडलाइन के मुताबिक 60 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के घर से बाहर निकलने पर पाबंदी है। कोरोना से बचने के लिए सरकार और उनके मंत्री अजीबो-गरीब तर्क दे रहे हैं। बिहार के राज्य स्वास्थ मंत्री लोगों से अपील कर रहे हैं कि कोरोना के ऐसे मरीज जिसमें कोई लक्षण नहीं है, घबराएं नहीं। आवश्यक सावधानियां बरतकर अपने घर पर ही क्वारंटीन रहें। राज्य सरकार मरीजों के लिए अब अस्पताल चिह्नित कर रही है। एक अस्पताल में पांच-छह जिले के मरीजों को संबद्ध किया जा रहा है। राज्य के नौ अस्पतालों में 38 जिले के मरीजों को संबंद्ध किया गया है।

इस वक्त बिहार में एक्टिव मरीजों की संख्या 8100 से ज्यादा है। उनके इलाज के लिए पूरे राज्य में सिर्फ नौ अस्पतालों को ही चिन्हित किया गया है। पटना एम्स शायद नेता और वीवीआईपी के लिए सुरक्षित रखा गया है। इससे पता चलता है कि विगत 116 दिनों में केंद्र और राज्य सरकारों ने क्या तैयारी की है। ऐसे वक्त में जब जनता को मुखर होकर अपनी सरकारों से यह पूछना चाहिए कि हमें भर्ती होने के लिए अस्पताल क्यों नहीं मिल रहे? ऑक्सीजन सिलिंडर क्यों नहीं मिल रहे? उन्हें आंकड़ों के जाल में उलझाया जा रहा है। उन्हें बताया जा रहा है कि 68 दिन के लॉकडाउन की अपेक्षा 48 दिन के अनलॉक में पांच गुना से ज्यादा मरीज बढ़े हैं। इसे इस तरह से पेश किया जा रहा है कि लोगों को लगने लगे कि कोरोना से लड़ने का एकमात्र उपाय लॉकडाउन ही है।

जनता को इस तरह से आंकड़ों में उलझा दिया गया है कि वह सवाल पूछने के बजाए खुद घुटनों पर आकर सरकार से निवेदन कर रही है कि आप बस फिर से लॉकडाउन कर दो प्रभु हम तो जैसे तैसे नून-रोटी खाकर जिंदा रह ही लेंगे।

यह लेख स्वतंत्र पत्रकार तौहिद आलम के नीजि विचार है ।

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