महाश्वेता देवी का लेख अन्याय के खिलाफ एक हथियार ।
महाश्वेता देवी का जीवन और रचनाकर्म दीन-हीन और शोषित-उत्पीड़ित जन के प्रति अप्रतिहत प्रतिबद्धता की एक अत्यंत दुर्लभ मिसाल है। उन्होंने अपनी लेखनी का उपयोग हमेशा अन्याय और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ एक हथियार की तरह किया।
1926 में ढाका (बांग्लादेश) में जन्मीं महाश्वेता पर अपने कवि पिता मनीष घटक और समाजसेवी माता धरित्री देवी का बहुत अधिक प्रभाव था। कम ही लोगों को पता होगा कि प्रसिद्ध बांग्ला फ़िल्मकार ऋत्विक घटक उनके चाचा और महान रंगकर्मी तथा अभिनेता बिजन भट्टाचार्य उनके पति थे। “यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश” के कवि नबारुण भट्टाचार्य महाश्वेता जी के ही पुत्र हैं, जिनकी कविता जनपक्षधर कला और कविता की श्रेष्ठता का एक उत्कृष्ट प्रतिमान बन चुकी है। इस तरह देखा जाये तो महाश्वेता देवी का पूरा परिवार ही कला और साहित्य की एक अतुल्य धरोहर है।
कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. करने के बाद महाश्वेता ने एक प्रोफ़ेसर और पत्रकार के तौर पर कार्य करना प्रारंभ किया। ”झांसीर रानी” उनकी पहली किताब थी, जो 1956 में प्रकाशित हुई। 1984 में शैक्षणिक वृत्ति से अवकाश ग्रहण करने के बाद उन्होंने लेखन को ही अपना मुख्य अध्यवसाय बना लिया।
आदिवासियों के कल्याण के लिये महाश्वेता आजन्म समर्पित रहीं। वे पश्चिम बंगाल उरांव कल्याण समिति और अखिल भारतीय बंधुआ मुक्ति मोर्चा से जुड़ी थीं और उन्होंने आदिवासियों को समर्पित एक पत्रिका ”बर्तिका” का संपादन भी किया।
उनके अप्रतिम साहित्यिक योगदान के लिये वर्ष 1979 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा पद्मश्री (1986), ज्ञानपीठ (1997), मैग्सेसे (1997) और देशिकोत्तम (1999) जैसे सम्मानों से भी उन्हें नवाज़ा गया।
विगत चालीस वर्षों में महाश्वेता देवी के 20 कहानी संग्रह और लगभग एक सौ उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कहानी ”रुदाली” तथा उपन्यास ”हज़ार चौरासीर मां” पर आधारित फ़िल्में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि हासिल कर चुकी हैं। उनकी रचनाओं का कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
1998 में एक साक्षात्कार में पूछे गये इस सवाल के जवाब में कि ”आप अपने शेष जीवन में अब क्या करना चाहती हैं”, महाश्वेता देवी ने उत्तर दिया था ”आदिवासियों, वंचितों, उत्पीड़ितों के हक़ की लड़ाई लड़ना और जब भी समय मिले, रचनात्मक लेखन करना।” अपने इस संकल्प पर वे अंतिम क्षण तक अडिग रहीं। उन्हें लाल सलाम।
(चौथी पुण्य-तिथि 28 जुलाई पर महाश्वेता देवी को नमन करते हुए)
यह लेख वरिष्ठ पत्रकार राजेश चन्द्र के निजी विचार है ।