मनीषा बांगर, एक तअर्रुफ़
दूसरा सवाल – आप पेशे से डॉक्टर हैं और साथ ही एक सियासी रहनुमा भी। कॉलेज के अय्याम और मौजूदा मसरूफ़ियात के मुताल्लिक़ बतायें।
जवाब – इब्तेदाई तअलीम के बाद एम बी बी एस किया और एम डी भी। उसके बाद पी जी आई चंडीगढ़ से डी एम (डॉक्ट्रेट ऑफ़ मेडिसिन) किया। ये सारा वक़्त यूं तो पढ़ाई में गुज़रा लेकिन यही वो वक़्त भी था जब मैं समाजी मुआमलात को ज़मीनी शक्ल में देखने समझने लगी थी। वो तमाम मुश्किलात जिनका सामना मुझे नहीं करना पड़ा था उनका सामना करते हुये नौजवानों को देखती थी। छुआ छूत उरूज पर थी। मज़हब और क़ौम के नाम पर लोगों के साथ ग़ैर मसावाती रवय्या बरता जाता था और उन्हें हिकारत से देखा जाता था और ये हाल बड़े बड़े तअलीमी इदारों का था। बस ये के कहीं ज़्यादा तो कहीं कम था। बचपन में जो माहौल घर में मिला उसके सबब बहुत कुछ सीखने समझने को मिला। हालांके घर वाले हमें उन तमाम बातों से दूर रखते थे के हम सिर्फ़ पढ़ाई पर ध्यान दें लेकिन उसके बावुजूद भी बहुत कुछ जाना और समझा। क्योंकी घर में जब भी चार लोग साथ बैठते थे तो इन तमाम सियासी, समाजी मुआमलात पर बात होती थी। हमारी शाम की चाय हो या रात का खाना, इन तमाम बातों के बग़ैर नामुकम्मल ही होता था। उसी वक़्त में मेरे एक मामा काशी राम जी के साथ काम कर रहे थे। काशी राम जी कई बार नागपुर आये। मुझे याद आता है के नागपुर में बामसेफ़ का कोई जलसा था जहां मैं अपने मामा जी के साथ गई थी। उस वक़्त मैं आठवीं जमाअत में पढ़ रही थी। मुझे याद है के वहां से आने के बाद दो तीन दिन तक मेरे ज़ह्न में वो तमाम बातें घूमती रहीं जो वहां ज़ेर ए बह्स थीं।
मुझे एक और वाक़िअ याद आता है के घर के तमाम अफ़राद बैठे हुये थे और बच्चे भी मौजूद थे। मामा जी सारे बच्चों से बारी बारी पूछ रहे थे के आप बड़े हो कर क्या करना चाहोगे। मैं उस वक़्त ग़ालिबन ग्यारह्वीं जमाअत में पढ़ रही थी। जब मामा जी ने मुझसे भी यही सवाल किया और मैं सवाल सुन कर सोच में पड़ गई तो मामा जी ने सवाल की वज़ाहत की के बड़े हो कर लोगों के लिये, मआशरे के लिये क्या करोगी। तो मैंने जवाब दिया के अभी तो मुझे नहीं पता लेकिन जो भी करूंगी वो कुछ अलग और बेहतर करूंगी। हालांके अब सोचती हूं तो पाती हूं के मेरा जवाब बचकाना ही था और ज़ाहिर है एक बच्चा बचकाना जवाब ही देगा भी। लेकिन मेरे जवाब पर कोई हंसा नहीं। किसी ने ये नहीं कहा के भई ये क्या जवाब हुआ। (हंसते हुये) और मैंने उस वक़्त बोल तो दिया लेकिन बाद में सोच रही थी के मैं आख़िर करूंगी क्या। और इसके बाद वही सब के एम बी बी एस करने की क़वायद शुरू हुई। और ज़ह्न में एक अजीब तरह की उथल पुथल ने घर कर लिया। एक बेचैनी के जिसका इलाज कभी किताबों में तलाश करती तो कभी लोगों के दरमियान। और शायद इसी उथल पुथल का नतीजा था वो वाक़िअ जिसका ज़िक्र मैंने कभी नहीं किया किसी से। लेकिन आज आपको बताउंगी। मुझे नहीं पता के ये बताना भी चाहिये या नहीं लेकिन ये वाक़िअ मेरे दिल के बहुत क़रीब है। इस वाक़िअ का मुझ पर और मेरी शख़्सियत पर अच्छा ख़ासा असर पड़ा। मेरे अंदर कुछ और तब्दीलियां आईं और संजीदगी भी। मैं इस वाक़िअ का ज़िक्र किसी से इस लिये भी नहीं कर सकी क्यूंकी हमारे मआशरे में हज़ारों एैसे क़िस्से कहानियां हैं जिनका कोई सर पैर नहीं और जो सिर्फ़ अवाम को बेवक़ूफ़ बनाने के लिये गढ़े गये हैं। में इस वाक़िअ की वजह से ये नहीं चाहती के मेरी इज़्ज़त और ज़्यादा की जाये या मुझ से अक़ीदत रखी जाये। बस एक ज़िन्दगी बदल देने वाले मोड़ का ज़िक्र करना चाहती हूं। तो बात ये थी के मेरे ही कॉलेज में एक ब्राह्मण लड़की थी जो पढ़ने लिखने में तो औसत दर्जे की ही थी लेकिन उसकी इतनी तरफ़ दारी की जाती थी के पूछिये मत। सारे आसातेज़ा उसे और उस जैसी कई लड़कियों को सिर्फ़ सवर्ण होने की वजह से इतना इतना बढ़ावा देते थे के बाक़ी तलबा सोचने पर मजबूर हो जायें के क्या हम लोग बिल्कुल बेकार ही हैं। बढ़ावा देना किसी ख़ास शख़्स या तबक़े को और बुरा हो जाता है जब आप मद्देमुक़ाबिल को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। उस कॉलेज में हमेशा एस सी एस टी, ओ बी सी और पसमांदा तलबा को ये सब झेलना पड़ता था। मुझे कोई इसलिये कुछ नहीं कहता था क्यूंकी एक तो मैं पढ़ाई में बहुत तेज़ थी दूसरे मेरा इंतेख़ाब किसी कोटे के तहत नहीं हुआ था। मेरे पास अकसर गाँव क़स्बों के तलबा शिकायत लेकर आते थे। क्यूंके मैंने कॉलेज में होने वाले इस ग़ैरमसावाती रवय्ये की मुख़ालफ़त शुरू कर दी थी। इस सब के दौरान मुझे एक रोज़ ख़्वाब आता है के मैं किसी अंधेरे कमरे में हूं और वो ब्राह्मण लड़की भी मेरे साथ है। और मैं सोच रही हूं के ये मेरा पीछा यहां भी नहीं छोड़ रही है। मैं परेशान हूं और इतने में क्या देखती हूं के कमरे का दरवाज़ा खुलता है और डॉक्टर अम्बे
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