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Uncategorized - July 9, 2019

मनीषा बांगर, एक तअर्रुफ़

 

 

मनीषा बांगर आज के वक़्त में एक जाना माना नाम है जो जाना जाता है अपनी मुख़्तलिफ़ सामाजी ख़िदमात की वजह से और जिस तरह अपना पूरा वक़्त दिया दिया एक ऐसे मआशरे को जिसके हक़ में बोलने वाले गिने चुने लोग ही थे। आज के वक़्त में मनीषा बांगर एक नाम भर नहीं रह गया है बल्कि एक आवाज़ बन गया है। आवाज़ उन दबे कुचले लोगों की जो आज़ादी के बाद भी आज़ाद नहीं हो सके हैं। जिनके पैरों में मज़हब की बेड़ियां तो गले में क़ौम की ज़ंजीर पड़ी हुई है। जिनकी बहुत सतही और बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं की जा रहीं। जिनकी दस्तरस में तअलीम, सेहत और रोज़गार भी नहीं है। और उस समाज की इन बहुत बुनियादी ज़रूरतों पर बात करने वाला, आवाज़ उठाने वाला कोई नहीं है। और जो आवाज़ कभी कभार उठती भी है तो उसे दबाने की हर मुमकिन कोशिश की जाती है।

 

मनीषा बांगर उन्हीं आवाज़ों में से एक एैसी तेज़ आवाज़ है जिसे दबाने की कोशिश तो ख़ूब की गई लेकिन ये आवाज़ हर बार और गरज कर सामने आई। आज वो वक़्त है के उनके तरफ़दार हों या उनके मुख़ालिफ़ सब उन्हें जानते भी हैं और मानते भी हैं। ओ बी सी, एस सी, एस टी और पसमांदा मुस्लिम मआशरा मनीषा बांगर को सर आँखों पर रखता है। एक तवील अरसे के बाद कोई ऐसी सरबराह सामने आई है। हाल ही में हुये लोकसभा इन्तेख़ाबात में नितिन गडकरी जैसे दिग्गज़ नेता की नींदें उड़ाने वाली मनीषा बांगर ने चुनाव में वो शानदार प्रदर्शन किया है के उनके मुख़ालिफ़ परेशान हैं। मनीषा बांगर चुनावी मैदान में अब आई हैं लेकिन मनीषा बांगर के इस दर्जे की तरफ़दारी की वजह सियासत नहीं। उनके तरफ़दार इसलिये उनके साथ नहीं क्योंकी उन्होंने कोई सियासी वादा उनसे कर दिया है बल्कि इसलिये हैं के मनीषा बांगर ने एक लम्बे वक़्त तक इन तमाम लोगों की ख़िदमत की है। ज़मीनी सतह पर काम किया और वो सारे काम किये जो आम तौर पर हमारे नेता बड़े बड़े वादे करने के बाद भी नहीं कर पाते हैं। अपने डॉक्टर होने के फ़र्ज़ के साथ किस तरह उन्होंने इन लोगों की आवाज़ बनना क़ुबूल किया। कैसे वो बामसेफ़ जैसी तनज़ीम से जुड़ीं और अपना सारा का सारा वक़्त उन लोगो को दिया, ये सब हम इस तहरीर में उन्हीं से जानेंगे।

 

मनीषा बांगर के नाम को आज किसी तअर्रुफ़ की ज़रूरत नहीं लेकिन उनके बारे में बहुत सी एैसी बातें हैं जो उनके समर्थक या उनसे मुहब्बत करने वाले लोग जानना चाहते हैं और जो अभी तक छुपी हुई हैं।

इसी बात को ध्यान में रखते हुये मनीषा जी से तफ़सीली गुफ़्तगू यहां पेश है जिसमें मनीषा जी ने हमारे हर सवाल का जवाब बहुत तसल्ली से दिया है।

हम शुक्र गुज़ार हैं मनीषा जी के के अपनी पुर मशग़ूल ज़िन्दगी से हमें वक़्त दिया, अपने चाहने वालों को वक़्त दिया।

 

सवाल – मनीषा जी, अपने ख़ानदान और अपने बचपन के बारे में बतायें और अपनी शुरुआती तअलीम ओ तरबियत के बारे में भी।

 

जवाब – मेरा तअल्लुक़ नागपुर से है। यहीं पैदा हुई और यहीं परवरिश भी पाई। मेरी माँ अमरावती से हैं और वालिद यहीं नागपुर से। मेरे दादा जी नागपुर की ही एक कॉलोनी (मिल वर्कर कॉलोनी) में रहते थे और एक मिल में काम करते थे।मआशी तौर से उतने मज़बूत नहीं थे लेकिन पढ़े लिखे और मुहज़्ज़ब थे। तअलीम को ले कर बेदार थे। परवरिश कुछ इस तरह हुई थी के एैसे हालात में भी मशरिक़ी नागपुर मुन्सिपल कॉर्पोरेशन के वाइस प्रेसिडेंट रहे और साथ ही साथ यूनियन लीडर भी। उनका नाम बहुत अदब से लिया जाता था। पाँच भाई दो बहनों के इस परिवार में तअलीम का ज़ोर शोर शुरुअ से रहा। ये 1940 और 1950 के बीच की बातें हैं जब मिल वर्कर कॉलोनी में आये दिन तरह तरह के एहतेजाजी मुज़ाहिरे होते रहते थे। इसी कॉलोनी में बड़ी तअदाद में ओ बी सी, एस सी, एस टी और पसमांदा मआशरे के लोग रहते थे‌। कुछ ईसाई लोग भी और ये सब डॉक्टर अम्बेडकर के ख़यालात से बहुत मुतासिर थे।

 

ये सब बातें हमें हमारे बड़े पापा से पता चलीं। वो ख़ुद भी बाबा साहब के ख़यालात से बहुत मुतासिर थे और इलाक़े के पहले आई एस अॉफ़िसर भी थे जो बहुजन मआशरे से तअल्लुक़ रखते थे। बड़े पापा उन कुछ एक लोगों में से थे जिन्होंने नौजवानों को कम्यूनिस्ट ख़्यालात से बचा कर रखा। यही वो ज़माना था जब कम्यूनिस्ट और कांग्रेसी ख़्यालात के लोग अपने पैर जमाने की जी तोड़ कोशिशें कर रहे थे कर रहे थे।

 

दादा जी के बारे‌ में बात करें तो वो कांग्रेस में काफ़ी वक़्त कॉर्रपोरेटिव की हैसियत से रहे। यही वो समय था जब दादा जी का पूरा परिवार अम्बेडकर ख़्यालात से मुतासिर हो रहा था, उनके काम और मक़सद से मुतसिर हो रहा था और फ़िक्रमंद भी हो रहा था बहुजन और पसमांदा समाज के लिये। मेरे पिताजी और उनके भाइयों का रुझान भी तअलीम को लेकर बहुत अच्छा था। और न सिर्फ़ पढ़ाई लिखाई बल्कि वो आला ख़्यालात भी जो किसी पढ़े लिखे व्यक्ति को अस्ल में

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