आर्टिकल 15 -समता के लिफाफे में गैरबराबरी के विपरीत मजमून के साथ पेश की गई फिल्म
By ~ संजीव चंदन,
अर्टिकिल 15 : सदाशयी गांधीवाद , सांगठनिक बहुजन प्रतिरोध का नकार और जाति-उत्पीड़न का कल्पनारहित व्यवसायिक दोहन
अर्टिकिल 15 बदनीयत से बनी या लिखी फ़िल्म न भी हो तो भी एक आउटसाइडर की ऐसी सदिच्छा से बनी फ़िल्म है जिसे न अपने टारगेट समाज की समझ है और न उसके पास वह कल्पनाशीलता है, जिससे पीड़ा और संघर्ष की वास्तविकता की कल्पना भी कर सके। यह विशुद्ध व्यवसायिक दोहन के लिए बनी फिल्म है-जिसने हाल में घटी बलात्कार और बहुजन उत्पीड़न की घटनाओं का कोलाज एक स्थान विशेष में बनाकर चमत्कार पैदा करने की कोशिश की है। आइये फ़िल्म के जरिये इसे समझते हैं।
इसके पहले लेकिन एक सवाल कि व्यवसायिक दोहन के लिए बनी यह फ़िल्म किस ऑडिएंस को अर्टिकिल 15 यानी समानता का सिद्धांत पढ़ाना चाहता है? यदि वह ऑडिएंस ब्राह्मणवादी शोषक के सोशल लोकेशन से आने वाले दर्शकों को संबोधित है तो उसके लिए यह कथानक नहीं है, उसका कथानक कुछ अलग होना चाहिए , जैसे यू आर अनंतमूर्ति के संस्कार जैसा या फिर उनकी ही कहानी पर बनी फिल्म ‘दीक्षा’ के कथानक जैसा। इसका टारगेट ऑडिएंस है दलित मध्यवर्ग जो पैसे खर्च कर सकता है और जिसे इस फ़िल्म का परिवेश अपना अतीत लगता हो या वर्तमान जिससे खुद को वह रिलेट कर रहा है। यदि ब्राह्मणवादी सोशल लोकेशन का ऑडिएंस टारगेट है तो यह फ़िल्म यूथ फ़ॉर इक्वलिटी और गांधीवाद की मिक्स राजनीतिक चेतना के साथ उन्हें अर्टिकिल 15 का ज्ञान दे रहा है, जो इस आर्टिकल के उपबंध 1 और दो को ही प्रोपगेट कर रही है उपबन्ध 3 और 4 जैसे युगांतकारी असर वाले उपबन्ध को नहीं-न तो उसके उद्देश्य को और न 70 सालों में पड़े उसके क्रमिक प्रभाव को। बल्कि इन दो उपबन्धों को नकारने का एक सचेत प्रयास दिखता है इसमें। फ़िल्म में लगा पोस्टर जो ब्राह्मण नायक के प्रयास से लगता है, वह भी अर्टिकिल 15 के उपबन्ध 1 और 2 को ही प्रसारित करता है, यानी एजंडा खुल्लमखुल्ला है, छिपा नहीं है।
धारा 15 कहती है:
15[1] राज्य अपने नागरिकों के मध्य मूलवंश, धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर किसी प्रकार का विभेद नहीं करेगा
15[2] नागरिकों को सार्वजनिक स्थानों तक पहुँचने का अधिकार होगा और उसके उपयोग में [ भोजनालय, सिनेमा, कुँए, मन्दिर आदि] उन्हें मूलवंश, जाति, धर्म, लिंग, जन्म-स्थान के आधार पर नहीं रोका जायेगा.जहाँ पहला अनुच्छेद केवल राज्य के लिए लागू था यह सामान्य नागरिकों के लिए भी लागू होता है, यह अनुच्छेद छुआछूत के विरूद्ध प्रभावी उपाय है
15[3] इस अनुच्छेद में विधमान कोई उपबंध राज्य को स्त्रियों – बच्चों हेतु विशेष उपाय करने से नहीं रोक सकता है,
15[4] प्रथम संशोधन से प्रभावी है – अनु 15 में विधमान कोई उपबन्ध राज्य को सामाजिक –शैक्षणिक दृष्टि से पिछडे वर्गों हेतु विशेष उपाय करने से नहीं रोकेगा
फिल्म का दृश्य संकेत
फ़िल्म में अनुसूचित जाति जन जाती -उत्पीड़न और बलात्कार की हालिया घटनाओं- निर्भया दिल्ली, दो दलित लड़कियां बदायूं, आसिफा, जम्मू और जीप से बंधे अनुसूचित जाति के लड़के ऊना एवं उत्तरप्रदेश के एनकाउंटर का एक कोलाज बनाया गया है और संघर्ष करता एक दलित युवा-समूह है, जो सहारनपुर में भीम आर्मी की प्रतिकृति है। इन दृश्यों को रचने में कल्पनाशीलता बस इतनी है कि सबको एक ही जगह पर घटित दिखा दिया गया है और इनमें जो संगठित दलित प्रतिरोध हुए थे उन्हें किसी गुरिल्ला कार्रवाई में बदल दिया गया है। इन कार्रवाइयों को गुरिल्ला कार्रवाई में बदलना भी फ़िल्म के एजेंडे को पुष्ट करता है।
इसके विपरीत फ़िल्म का ब्राह्मण नायक लॉ अबाइडिंग सिटीजन ही नहीं लॉ इंफोरसिंग एजेंसी का स्थानीय मुखिया भी है जिसकी आस्था संविधान में है। जाति के सवाल पर लगभग दूसरे या तीसरे शॉट में ही वह अपने कार्यालय में लगे बाबा साहेब और गांधी की तस्वीरों में से एक तस्वीर को गौर से, प्यार और आदर से देखता है ।वह तस्वीर है गांधी की। यानी संविधान के अर्टिकिल 15 के लेखक डा अम्बेडकर के प्रति नायक की कोई आस्था नहीं है, वह गांधी के प्रति आस्थावान है। फ़िल्म का विस्तार भी इसी दिशा में होता है ऑर्गेनिक नेतृत्व और प्रतिरोध की बेईमानियां, विचलन या फिर अपरिपक्वता को ब्राह्मण नायक के धैर्य, सूझबूझ, समता के प्रति आस्था, ईमानदारी और परिपक्वता के बरक्स दिखाया जाता है।
परास्त, हताश बहुजन संघर्ष और समाज:
अर्टिकिल 15 के उपबंध 4 ने और बहुत हद तक 3 ने पिछले 70 सालों में दलित मध्यवर्ग का विस्तार किया है। शासन-प्रशासन, शिक्षा और न्याय व्यवस्था एवं राजनीति में भी उनकी भागीदारी बढ़त के क्रम में आज की हकीकत है- दैन्य घटा है, चेतना बढ़ी है। इसीलिए संघर्ष भी तीव्र और असरकारी है। हाल की किसी भी घटना में संघर्ष किसी ब्राह्मण नायक ने खड़े नहीं किये हैं। वहां अम्बेडकरवादी चेतना प्रभावी है न कि गांधीवादी।
इसके विपरीत फ़िल्म में बहुजनों के दैन्य को ही ज्यादा उभारा गया है। हर सम्भव कोशिश की गयी है कि ब्राह्मणवाद की मूल आलोचना की जगह दलितों के भीतर की जाति-संरचना के अंतर्विरोध को उजागर किया जाये। बहुजन राजनीति को भटका हुआ और स्वार्थी दिखाया गया है। महंथ के साथ बहुजन नेता का गठबंधन बसपा की राजनीति की आलोचना है। भीमआर्मी के चन्द्रशेखर को भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद की खिचड़ी बनाया गया है जिसकी पराजय उसके अति उत्साह में ही निहित है। काश! फ़िल्म की टीम ने चन्द्रशेखर और भीम आर्मी की सहारनपुर में असर को ही देख लिया होता तो दिखता कि कैसे संघर्ष और चेतना की आभा अनुसूचित जाति को वहां मांज रही है और ब्राह्मणवादियों में बेचैनी पैदा कर रही है।
बहुजन राजनीति, चेतना और संघर्ष के इस ऑरगैनिक उत्साह को धूलधूसरित कर ब्राह्मण नायक और उसकी प्रेमिका को एक ऐसे वास्कोडिगामा की तरह पेश किया गया है जैसे उसने पहली बार अर्टिकिल 15 की महान खोज की हो-इन दोनो ही युगल जोड़ियों की जाति सवर्ण है। ब्राह्मण नायक महान समताप्रिय है लेकिन गटर की सफाई के लिए वह एससी को ढूंढने में पूरा महकमा लगा देता है और तो और थाने के पास सफाई के लिए नाराज बहुजन के नेता से जाकर टैक्टिकल सन्धि भी करता है।
इस पूरी फिल्म में शातिर ब्राह्मणवादी चेतना काम कर रही है जो अपनी व्यवसायिकता कर लिए उदार भी हो जाती है। बुद्धिजीवी दर्शकों का एक समूह तो उसके साथ ही है जो बेगूसराय से लेकर अर्टिकिल 15 तक में अपने नायक का चीअर लीडर है। उसे अपने नायक की तलाश है जो बात तो इक्वलिटी की करे लेकिन ऐश्वर्य ब्राह्मणों का , सवर्णों का स्थापित करे-यूथ फ़ॉर इक्वलिटी का बौद्धिक चारण समूह, जो पोलीटिकल करेक्ट होने को भी साधता रहता है।
ऐसी फिल्में बननी चाहिए लेकिन समता के लिफाफे में विपरीत मजमून के साथ इनका स्वागत क्यों हो भला!
~ संजीव चंदन,
एडिटर स्ट्रीकाल और सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक
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