जन्मदिन विशेष: समाज सुधारक, दार्शनिक कवि संत रविदास जी की 642वीं जयंती
पाखण्ड वाद को मिटाने वाले जातिव्यव्स्था के खिलाफ अपना राज लाने की राह दिखाने वाले प्रथम बोधिस्त्व प्रथम राज नैतिक सोच की अलख जगाने वाले मनु का झंडा झुकाने वाले बहुजनों को शाशक बनाने वाले गुरुओं के गुरु महान गुरु रविदास जी के 642 वें जयंती की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई-
गुरु रविदास जी का एक ही सपना…
ऐसा चाहूँ राज मै जहां मिले सबन को अन्न…
छोट बड़े सब सम बसें रविदास रहें प्रसन्न…
गुरू रविदास जी का जन्म काशी में 1433 के आसपास माना जाता है ।उनके पिता का नाम राघवदास था औऱ उनकी माँ का नाम घुरबिनिया था। उनकी पत्नी नाम लोना था और उनका एक बेटे का नाम विजयदास था।उनकी बोटी का नाम रविदासिनी थी।
रविदास के समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे।शुरू से ही रविदा स जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था।उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे।कुछ समय बाद उन्होंने रविदास और उनकी पत्नी को अपने घर से भगा दिया ।
15वी सदी के एक महान समाज सुधारक, दार्शनिक कवि और जाति को न मानने वाले आईये जानते है ऐसे महान संत गुरु रविदास जी | रविदास जी के जीवन के बारे में जिनके जीवन से हमे धर्म और जाती से उठकर समाज कल्याण की भावना की सीख मिलती है।
रविदास जी अपने कामो को बहुत ही मेहनत के साथ पूरी निष्ठा के साथ करते थे और जब भी किसी को किसी सहायता की जरूरत पड़ती थी रविदास जी अपने कामो का बिना मूल्य लिए ही लोगो को जूते ऐसे ही दान में दे देते थे रविदास जी के पिता जूते बनाने का काम करते थे।
एक बार की बात है किसी त्यौहार पर इनके गाववाले सभी लोग गंगास्नान के लिए जा रहे थे तो सभी ने रविदास जी से भी गंगा स्नान जाने का निवेदन किया लेकिन रविदास जी ने गंगास्नान करने जाने से मना कर दिया क्यूकी उसी दिन रविदास जी ने किसी व्यक्ति को जूते बनाकर देने का वचन दिया था फिर रविदास जी ने कहा की यदि मान लो मै गंगा स्नान के लिए चला भी जाता हु तो मेरा ध्यान तो अपने दिए हुए वचन पर लगा रहेगा फिर यदि मै वचन तोड़ता हु तो फिर गंगास्नान का पुण्य कैसे प्राप्त हो सकता है जिससे यह घटना रविदास जी के कर्म के प्रति निष्ठा और वचन पालन को दर्शाता है जिसके कारण इस घटना पर संत रविदास जी ने कहा की यदि मेरा मन सच्चा है मेरी इस जूते धोने वाली कठौती में ही गंगा है।
रविदास जी हमेसा से ही जातिवादी व्यव्सथा के भेदभाव के खिलाफ थे और जब भी मौका मिलता वे हमेसा सामाजिक कुरूतियो के खिलाफ आवाज़ उठाते रहते थे। रविदास जी अपने बनाये हुए जूते को किसी आवश्यकमन को बिना मूल्य में ही दान दे देते थे जिसके कारण इनका घर चलाना मुश्किल हो जाता था जिसके कारण रविदास जी के पिता ने अपने परिवार से अलग कर दिया था । रविदास जी पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग इमारत बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे।
रविदास जी जाति व्यवस्था के सबसे बड़े विरोधी थे उनका मानना था की मनुष्यों द्वारा जातिपाती के चलते मनुष्यता से दूर होता जा रहा है और जिस जाति से मनुष्य में बटवारा हो जाये तो फिर जाति का क्या लाभ ?
रविदास जी के समय में जाति भेदभाव अपने चरम अवस्था पर था जब रविदास जी के पिता की मृत्यु हुई तो उनका दाहसंस्कार करने के लिए उन्होंने लोगों से मदद मागी पर लोगो का मानना था की वे शुद्र जाति के है और जब उनका अंतिम संस्कार गंगा में होगा तो इस प्रकार गंगा भी प्रदूषित हो जायेगी जिसके कारण कोई भी उनके पिता के दाहसंस्कार के लिए आगे नही आया तो फिर रविदास जी ने खुद अमने पिता का मृत शरीर गंगा में विलीन किया। और तभी से माना जाता है काशी में गंगा उलटी दिशा में बहती है।
रविदास जी के जीवन में ऐसे अनेको तमाम घटनाएं है जो आज भी हमे जातीवादी की भावना से उपर उठकर सच्चे मार्ग पर चलते हुए समाज कल्याण का मार्ग दिखाती है रविदास जी की मृत्यु लगभग 126 उम्र की आयु में वाराणसी में हुई थी।
भले ही महान संत गुरु रविदास जी आज हमारे समाज के बीच नही है लेकिन उनके द्वारा बताये गये उपदेश और समाज कल्याण के मार्ग आज भी लोगों के मन में हैं।महान संत गुरु रविदास ने अपने जीवन के व्यवहारों से ये प्रमाणित कर दिया था की इन्सान चाहे किसी भी कुल या जाति में जन्म ले ले लेकिन वह अपने जाति और जन्म के आधार पर कभी भी महान नही बनता है जब इन्सान दुसरो के प्रति श्रद्धा और दूसरों की मदद का भाव रखते हुए लोगो के प्रति अपना जीवन न्योछावर कर दे वही इन्सान सच्चे अर्थो में महान होता है और ऐसे ही लोग युगों युगों तक लोगो के दिलो में जिन्दा रहते है।
रैदास ने ऊँच-नीच की भावना वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया।
वे स्वयं मधुर तथा इंसानियत के भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।
कृस्न,करीम,राम,हरि,राघव,जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान,पुरानन,सहज एक नहिं देखा।
चारो वेद के करे खंडौती।जन रैदास करे दंडौती।
अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है-
कह रौदास तेरी भगती दुरी है,भाग बडे सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर,पिपिलक हवै चुनि खावै।
इसका अर्थ है कि शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि छाटे सेशरीर की (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला ही सच्चा इन्सान होता है।
आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।
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