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Uncategorized - July 8, 2019

कैसे होगा जाति का विनाश? कैसे भारत सभ्य बनेगा?

By- संजय श्रमण जोथे

जाति विनाश अगर सवर्णों से अपेक्षित है तो ये व्यर्थ का प्रोजेक्ट है। लेकिन जाति विनाश SC/ST-पिछड़ों से अपेक्षित है तो इस प्रोजेक्ट से बहुत उम्मीद की जा सकती है।

जाति विनाश कैसे होगा?

इसकी विस्तार से चर्चा करने से पहले दो वक्तव्य याद रखिये। एक बार किसी ने…महान आयरिश लेखक, विचारक और नाटककार जार्ज बर्नार्ड शॉ से पूछा था कि नेता कौन होता है?

जार्ज बर्नार्ड शॉ ने…मजाकिया अंदाज में चुटकी लेते हुए बताया कि “भीड़ जिस दिशा में जा रही हो उसी दिशा में झंडा उठाकर सबसे आगे हो लेने वाला ही नेता होता है।”

दूसरा वक्तव्य…डॉ. अंबेडकर का है जब वे अपनी प्रसिद्ध किताब “एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट” के दूसरे संस्करण की भूमिका लिख रहे थे।

उन्होंने लिखा…“अगर मैं हिंदुओं को यह समझा पाया कि वे भारत के बीमार लोग हैं और उनकी बीमारी दूसरे भारतीय लोगों के स्वास्थ्य और उनकी खुशी के लिए खतरा है, तो मैं अपने काम से संतुष्ट हो पाऊंगा।”

इन दो वक्तव्यों में…जाहिर तौर पर ऊपर कोई सीधा संबंध नहीं है लेकिन आगे के विस्तार में जाकर हम देखेंगे कि ये ‘अलग अलग’ वक्तव्य जाति उन्मूलन के मुद्दे पर बहुत दूर से एक-दूसरे से कैसे जुड़ते हैं।

जाति विनाश या…जाति का उन्मूलन सदा से भारतीय शूद्रों (ओबीसी), दलितों (अनुसूचित जातियों), दमितों (स्त्रीयों) का सपना रहा है। इसे लेकर…जितना चिंतन मंथन और काम हुआ है उसकी बड़ी असफलता को साफ़ –साफ़ देखा जा सकता है।

इस मुद्दे पर…एक सामाजिक, राजनीतिक प्रोजेक्ट के रूप में जितना काम हुआ है उससे अपेक्षित परिणाम नहीं आए हैं बल्कि इस काम ने…इन जातियों और समुदायों को पहचान या शिनाख्त की राजनीति (आइडेंटिटी पोलिटिक्स) की अंतहीन अँधेरी सुरंग में धकेल दिया है।

इस अँधेरी सुरंग में ये ही पता नहीं चलता कि…आपके नाम से आपके हक में नारे लगाने वाले राजनेताओं के हाथ में आपके लिए फूल हैं या खंजर है।

इस अँधेरी राजनीति में…सिर्फ शोर और नारे सुनकर जो लोग शामिल हुए हैं उनके चेहरों पर निराशा और पराजय का भाव साफ़ नजर आता है। पहले जो लोग…हाथों में फूल लेकर आपके साथ नारे लगा रहे थे उनके सभी फूल अब कमल के फूल बन गये हैं।

और इसीलिए…सत्तारूढ़ पार्टी की विचारधारा और उनकी सरकारों की गुलामी करने में इन दलित आदिवासी या अल्पसंख्यक ‘क्रांतिकारियों’ को किसी तरह लज्जा का अनुभव नहीं हो रहा है।

आज जब देश में दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों पर सबसे ज्यादा हमले हो रहे हैं तब दलित और आदिवासी नेताओं, अधिकारियों की चुप्पी बहुत भयानक सच्चाई को उजागर करती है।

ये चुप्पी सिर्फ sc/st नेताओं, झंडाबरदारों और प्रशानिक अधिकारियों तक ही सीमित नहीं है बल्कि शूद्र (ओबीसी), दलित, आदिवासी तबकों से आने वाले बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग भी इस स्थिति के सामने मौन और दुविधाग्रस्त होकर खड़ा है।

जाति नाश या जाति उन्मूलन की मूल भावना और लक्ष्य को अगर ठीक से देखा जाए तो आप पाएंगे कि एक अच्छे उद्देश्य से जो काम शुरू किया गया उसकी दिशा और उसकी कार्य-पद्धति बहुत हद तक गलत रही है।

ये वक्तव्य जाति उन्मूलन के अभी तक के देशव्यापी प्रयासों पर एक साझी टिप्पणी के रूप में समझा जा सकता है। इस वक्तव्य के कई पहलू हैं और ये वक्तव्य कई बिन्दुओं पर आधारित है।

हम शुरुआत करते हैं डॉ. अंबेडकर के जाति उन्मूलन के आह्वान से।

उनका प्रसिद्ध भाषण…“एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट” जो कि असल में सवर्णों को उनके धर्म की बुराई के बारे में जागरूक करते हुए लिखा गया था उसमें जाति-व्यवस्था का और उसकी अनैतिकता और दरिन्दगी का विश्लेषण किया गया है।

लेकिन इसमें बहुत स्पष्ट शब्दों में जाति उन्मूलन का कोई प्रेक्टिकल रोडमेप नहीं दिया गया है। हालाँकि वो भाषण हो भी नहीं पाया और हमें तत्कालीन सवर्ण हिन्दू मानस की प्रतिक्रिया भी इस पर नहीं मिल पाई।

बाद में ये भाषण “एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट” के नाम से एक किताब के रूप में प्रकाशित हुआ। इस किताब का उद्देश्य सवर्ण हिन्दुओं को उनकी जाति-व्यवस्था के प्रति जागरूक करना था ताकि वे अपनी बीमारी को पहचान सकें।

इस किताब के दूसरे संस्करण की भूमिका में भी डॉ. अंबेडकर ने इस किताब का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए लिखा था कि “अगर मैं हिंदुओं को यह समझा पाया कि वे भारत के बीमार लोग हैं और उनकी बीमारी दूसरे भारतीय लोगों के स्वास्थ्य और उनकी खुशी के लिए खतरा है, तो मैं अपने काम से संतुष्ट हो पाऊंगा।”

उसके बाद डॉ. अंबेडकर जाति उन्मूलन के अन्य संभव सामाजिक, राजनीतिक शैक्षणिक और यहाँ तक कि धर्म परिवर्तन संबंधी आयामों में भी प्रयोग और प्रवेश करते हैं।

लेकिन इस सबका परिणाम क्या हुआ? यह कहना पूरी तरह ठीक नहीं होगा कि इसका परिणाम नहीं हुआ है। वास्तव में इसका बहुत कुछ परिणाम हुआ है। दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। लेकिन गौर से देखा जाए तो जाति उन्मूलन नहीं हुआ है। दलितों दमितों की आर्थिक, शैक्षणिक स्थिति में सुधार अवश्य हुआ है लेकिन व्यापक रूप से देखें तो भारत की सामाजिक या धार्मिक जमीन पर उनके लिए स्थिति बिलकुल भी नहीं बदली है।

इसका सीधा अर्थ ये है कि ऊपर-ऊपर कास्मेटिक बदलाव हुए हैं लेकिन गहराई में जाति का विभाजन-जाति अंतर्गत विवाह और भोजन की विवशता के रूप में अभी भी वहीं का वहीं बना हुआ है।

इसको और सरल शब्दों में कहें तो जाति के आधार पर विवाह और भोजन का प्रतिबन्ध अभी भी बना हुआ है जो बताता है कि जाति अभी भी पूरी तरह बनी हुई है।

फिर इस केन्द्रीय तथ्य के बाकी सारे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सभ्यतागत परिणाम हैं जो हम सब रोज अखबारों में पढ़ते हैं।अखबार की ये खबरें बीमारी को दिखाती हैं लेकिन बीमारी के असल कारण जाति और वर्ण के भेद की निरन्तरता को नहीं दिखाती। दो घटनाओं को उदाहरण की तरह लीजिए।

पहला उदाहरण ये कि अभी किसानों की आत्महत्याओं से हम सब दुखी और चिंतित हैं। शायद. भारत ने दुनिया में अनोखा वर्ल्ड रिकार्ड बनाया है जिसमें किसानों ने युद्ध या गृहयुद्ध या आर्थिक मंदी के न होने की दशा में भी इतनी बड़ी संख्या में आत्महत्याएं की हैं।

इसका कुछ संबंध जाति और वर्ण की बहस से भी अवश्य जुड़ता है। जिस वर्ण या जाति के लोग किसान हैं या भूमिहीन मजदूर हैं उन जातियों वर्णों के लोगों का राजनीति और व्यापार जगत में ‘सक्रिय’ प्रतिनिधित्व कितना है?

यह भी कुछ सवाल है कि स्थानीय व्यापारियों के जगत में किस जाति या वर्ण का कब्जा है? मंडियों में अनाज के व्यापार पर और सब्जियों के बाजार में सदियों से किन जातियों और वर्ण का कब्जा है? बीज, खाद, कीटनाशकों की दुकानों और बैंकों तक में किन जातियों और वर्णों का वर्चस्व है? फिर इन सबको नियंत्रित करने वाली शासन-प्रशासन या कानून की व्यवस्था की बागडोर किन जातियों और वर्णों के हाथ में है?

इस सबके बाद अब ये देखिए कि किसानों मजदूरों की जातियों के सक्रिय प्रतिनिधि ऊपर वाले स्तरों पर कितने हैं? सरल शब्दों में कहें तो बात ये है कि किसान या मजदूर के मरने पर शेष ऊँची जाति के हिन्दुओं को “अपने रिश्तेदार या दोस्त के मरने” जैसा दुःख होता है क्या?

किसान या मजदूर के कमजोर और अशिक्षित रह जाने पर ऊँची जाति के हिन्दुओं को “अपने रिश्तेदार या दोस्त के पिछड़ जाने” जैसा दुख होता है क्या?

इसका उत्तर है नहीं उन्हें इस तरह का कोई दुःख नहीं होता। उन्हें इन आत्महत्याओं से या इस पिछड़ेपन से न तो व्यक्तिगत दुःख होता है न ही उनकी राजनीति, अर्थसत्ता या सामाजिक सत्ता पर कोई खतरा नजर आता है इसीलिए वे इसे नजरअंदाज करके बड़ी आसानी से सदियों से जहां के तहां बने रहते हैं।

दूसरा उदाहरण देखिए सवर्ण हिन्दुओं को जब महसूस हुआ कि राम मन्दिर मुद्दे को वे अपनी राजनीतिक सत्ता मजबूत करने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं तो उन्होंने देश भर में इसके लिए आंदोलन छेड़ दिया।

यह भी गौरतलब है कि मंदिर-मस्जिद के होने या न होने से किसी गरीब हिन्दू या मुसलमान का कोई भला नहीं होता लेकिन चूँकि सवर्ण हिन्दू राजनीति को इसकी जरूरत थी इसलिए उन्होंने देश की आंतरिक सुरक्षा और साम्प्रदायिक सौहार्द्र को नुक्सान पहुंचाते हुए भी ये काम किया।

वे ऐसा कर सके क्योंकि समाज, व्यापार, शासन, प्रशासन, धर्म संस्कृति और मीडिया के हर स्तर पर उनके लोगों का दबदबा है उनका अपना नेटवर्क और प्रेशर ग्रुप है जो देश और देश की गरीब जनता से ज्यादा अपने जातीय और वर्णगत नेटवर्क के प्रति अधिक वफादार है।

इसका सीधा अर्थ ये हुआ कि भारत की राजनीति और सामाजिक प्रक्रियाएं सवर्णों के आपसी सामाजिक संबंधों और समीकरणों से चलती हैं। उन प्रक्रियाओं में दलितों-पिछड़ों के समाजों में उभर रहे सुख-दुःख का कोई असर शामिल नहीं है।

सवर्ण हिन्दू अपने लिए मंदिर बनवाने के लिये देश भर में आंदोलन कर देंगे लेकिन किसानों की आत्महत्या के मुद्दे पर गरीब असहाय मजदूरों और किसानों की न्यूनतम आय सुनिश्चित करने के मुद्दे पर कुछ नहीं करेंगे।

इससे ये सीख मिलती है कि अगर दलितों-शूद्रों के आपसी जातीय समीकरण राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से एक-दूसरे के निकट आकर एक हो जाएँ तो आप इस सवर्ण राजनीति या समाज को अपने अनुसार बदल सकते हैं।

याद रखिए दलित-पिछड़ों के समाज में समाज के अलग अलग स्तरों में अगर आपसी मेल-जोल नहीं है तो दलितों-पिछड़ों की राजनीति इसी तरह बिकती रहेगी आपके दलित नेता सवर्णों की गोदी में बैठकर ऐसे ही पुरस्कार पाते रहेंगे।

कल्पना कीजिए कि भारत में शासन-प्रशासन में सर्वाधिक प्रतिनिधित्व रखने वाली जातियों के बच्चों में कोई बीमारी फैलती है और उनके जीवन पर संकट आता है। तब ये प्रतिनिधि क्या करेंगे?…

क्या ये अपने बच्चों को भी दलितों,आदिवासियों,अल्पसंख्यकों के बच्चों की तरह उपेक्षा से देखेंगे? या फिर ये अपने शासन-प्रशासन की शक्ति और पहुँच का इस्तेमाल अपने बच्चों की बेहतरी और सेहत के लिए करेंगे?

इसका जवाब आसान है, ये लोग पूरी ताकत लगाकर अपने बच्चों की सेहत और खुशहाली के लिए शासन-प्रशासन से ऐसी नीतियाँ बनवाएंगे जो उनके हित में हों। उसे लागू करवाने का भी इंतजाम करेंगे।

ऐसा कारनामा हमारे सांसद और विधायक अपनी-अपनी तनख्वाह बढ़वाने के लिए कई बार कर चुके हैं इस काल्पनिक उदाहरण के बाद वास्तविकता में भारत की गरीब जातियों के बारे में सोचिए। उनके बारे में सोचने वाले और वास्तव में मुंह खोलने वाले इस राजनीति, शासन-प्रशासन में कितने हैं?

और इससे भी बड़ी बात ये कि क्या इन लोगों को पता है कि वे अपने बच्चों के लिए क्या कर सकते हैं और भारत से जाति को खत्म करके न सिर्फ अपने लोगों को बल्कि स्वयं भारत की अस्सी प्रतिशत आबादी को सबल बना सकते हैं?

इस प्रश्न का उत्तर है- नहीं।…

सरल शब्दों में कहें तो भारत की पिछड़ी जातियों को उनके प्रतिनिधियों और सक्षम लोगों को बहुत हद तक ये साफ़-साफ़ पता ही नहीं है कि वे अपने लोगों की और भारत की अस्सी प्रतिशत जनसंख्या (जो कि दलित और शूद्र/ओबीसी/आदिवासी/अल्पसंख्यक है) की जिन्दगी को निर्णायक रूप से सुधारने के लिए क्या कर सकते हैं या उन्हें क्या करना चाहिए।

इस सवाल को दूसरे कोण से देखिए…

क्या भारत के इन बहुसंख्य लोगों के कमजोर या बीमार होने से सवर्ण जातियों के सामाजिक सम्मान या राजनीतिक आर्थिक रुतबे में कोई खतरा पैदा होता है?

इसका जवाब ये है कि भारत के बहुसंख्यक लोगों के कमजोर होने से उन सवर्णों को नुक्सान नहीं बल्कि फायदा होता है। तब वे अपनी राजनीति अपने धर्म और अपनी संस्कृति को, अपने भोजन या कपड़े की पसंद को आपके ऊपर थोप सकते हैं।

अभी आंख खोलकर देखिए भारत में ये ही खेल चल रहा है। तब आप क्यों और कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि ये जातियां और वर्ण दलितों शूद्रों और आदिवासियों लिए बेहतर नीतियों या बेहतर राजनीति के निर्माण के लिए मेहनत करेंगी?

और आप इनसे ये उम्मीद करते हैं तो आप स्वयं क्या करेंगे? क्या बैठकर इंतज़ार करेंगे? कब तक इंतजार करेंगे? इस बात को गहराई से समझिए राजनीति या प्रशासन में कुछ अच्छा करने की सदिच्छा के होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, यह राजनीतिक संकल्प (पोलिटिकल विल) का विषय है। और राजनीतिक संकल्प असल में सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक लाबिंग का खेल है। हो सकता है कि सवर्ण जातियों में बहुत से संवेदनशील राजनेता, प्रशासक चिन्तक, लेखक कार्यकर्ता या सामान्य नागरिक हों। मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ ऐसे बहुत लोग हैं। और ये भी सच है कि दलितों-पिछड़ों के हक की आवाज उठाने के लिए हजारों लाखों सवर्ण हिन्दूओं और ब्राह्मणों भी बहुत ईमानदारी से मेहनत कर रहे हैं,

पहले भी उन्होंने भारत को सभ्य बनाने के लिए और जाति सहित अस्पृश्यता आदि के उन्मूलन के लिए बहुत कुछ किया है। लेकिन इसके बावजूद अपेक्षित परिणाम नहीं मिलते तो इसका इमानदार विश्लेषण करना होगा।

ऊपर के इस विस्तार में जाने के बाद आप देखेंगे कि जाति नाश आरंभ से एक ऐसा प्रयास रहा है जिसमें जाति-व्यवस्था से पीड़ित लोगों की बजाय जाति-व्यवस्था से फायदा उठाने वालों पर अधिक ध्यान दिया गया है।

एक अर्थ में ये जरुरी भी था दलितों-पिछड़ों को ये बताना जरुरी था कि तुम्हारी दुर्दशा के लिए तुम नहीं बल्कि ये सामाजिक, धार्मिक व्यवस्था जिम्मेदार है, ताकि वे हीन भावना से निकलकर कुछ करने को सक्षम हो सकें।

साथ ही हिन्दुओं को उनके शास्त्रों और धर्म में छुपे कैंसर के बारे में भी बताना जरुरी था ताकि वे दुनिया की अन्य सभ्यताओं और धर्मों से अपनी तुलना कर सकें।

ये काम न्यूटन या गेलिलियो के काम जैसा है। कबीर, रैदास, फूले, अंबेडकर, पेरियार आदि ने ये काम पूरी उंचाई तक ले जाकर मुकम्मल कर दिया है एक तरह से उन्होंने न्यूटन की तरह गुरुत्वाकर्ष्ण सिद्धांत खोजकर दे दिया है। अब हमें आइन्स्टीन या स्टीफेन हाकिंग की तरह आगे बढना है।

आज भी हम अंबेडकर, फूले, पेरियार की तरह सिर्फ सवर्णों को संबोधित करते रहेंगे तो इसका मतलब है कि हम हर पीढ़ी में न्यूटन की तरह ग्रेविटी की खोज करते रहेंगे। फिर हम ग्रेविटी के ज्ञान पर आधारित राकेट यान कब बनायेंगे? तब हम मार्टिन लूथर की तरह समाज और संस्कृति में पुनर्जागरण कब लाएंगे?

जाति-व्यवस्था के लिए सवर्णों को संबोधित करने की बात हमारे लेखन, साहित्य, राजनीतिक सामाजिक बहस में और दस्तावेजों में डॉ. अंबेडकर के प्रसिद्ध भाषण एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट से ही चली आ रही है।

डॉ. अंबेडकर ने सवर्णों की सभा के लिए ही इसे लिखा था और इस भाषण के पहले और बाद में भी अपने लोगों के लिए सवर्णों की सदिच्छा पर निर्भर न रहते हुए भी स्वयं की शक्ति में भरोसा रखते हुए कई महत्वपूर्ण काम किये हैं

लेकिन जाति विनाश के विमर्श और आन्दोलन के केंद्र में जाति से पीड़ित जातियों की बजाय लाभ पाने वाली जातियों को रखने की प्रवृत्ति अभी भी कम नहीं हुई है।

इसका सरल भाषा में मतलब ये हुआ कि आज भी दलित-पिछड़ों के बीच में आपसे बातचीत होती है तो सवर्ण द्विज हिन्दुओं की भूमिका पर अधिक चर्चा होती है स्वयं दलित-पिछड़े अपने बीच जाति भेद कैसे गिरा सकते हैं इस बात पर बहुत कम चर्चा होती है।

दलितों-पिछड़ों को समझना चाहिए कि समाज, राजनीती और शासन-प्रशासन सहित व्यापार, रोजगार आदि भी असल में सामाजिक आर्थिक संबंधों और राजनीतिक नेटवर्किंग या लॉबिंग से चलते हैं।

ऊपर बताए उदाहरण में अगर सवर्ण प्रतिनिधि अपने बच्चों के इलाज के लिए या अपनी तनख्वाह बढ़ाने के लिए शासन-प्रशासन को मजबूर कर सकते हैं तो आपको भी यह सोचना है कि आप स्थानीय व्यापार, सामाजिक-आर्थिक समीकरण, स्थानीय राजनीति, स्थानीय बाजार, स्थानीय या क्षेत्रीय या राष्ट्रीय स्तर की शैक्षणिक या वैचारिक बहस को अपनी जातियों और वर्ण की एकता से कैसे प्रभावित कर सकते हैं?

ये सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है जो राजनीति से ज्यादा समाज की रोजमर्रा जिन्दगी पर लागू होता है। इस प्रश्न का जो उत्तर है उसके दो पहलु हैं…

पहला ये कि राजनीतिक या सामाजिक बदलाव लाबिंग या सामाजिक नेटवर्क के आपके हित में सक्रीय होने से होता है। ऐसा नेटवर्क बनाना और उसे आपके हित में सक्रीय करना आपकी यानि दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों की जिम्मेदारी है।

अगर इसके लिएआप सवर्ण द्विज हिन्दुओं का मुंह देखते हैं तो आप कार्यवाही और सोच विचार की कमान उनके हाथों में दे देते हैं फिर वे जैसे चाहें आपको घुमाते रहेंगे।

दूसरा ये कि अगर आप राजनीतिक-सामाजिक नेटवर्क बनाने और सक्रिय करने में अपनी ही जातियों और वर्ण के लोगों को केंद्र में रखें सिर्फ उनसे ही उम्मीद करें और आपस में अपनी जातियों को पहले खत्म कर सकें तो जाति उन्मूलन के विमर्श और उसपर कार्यवाही की कमान आपके हाथ में होगी।

तब सवर्ण द्विज हिन्दू चाहकर भी आपको भटका नहीं सकेंगे। और तब वे आपके राजनीतिक नेतृत्व को खरीद भी नहीं पाएंगे। अब मुद्दा ये है कि समाज और राजनीति में दलित-पिछड़े अपना नेटवर्क और अपनी लॉबी को कैसे मजबूत करेंगे इसके उत्तर के लिए *हमें डॉ. अंबेडकर के वक्तव्य को ठीक से समझना पड़ेगा। जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है डॉ. अंबेडकर ने “एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट” किताब के दूसरे संस्करण की भूमिका में…लिखा था कि…

“अगर मैं हिंदुओं को यह समझा पाया कि वे भारत के बीमार लोग हैं और उनकी बीमारी दूसरे भारतीय लोगों के स्वास्थ्य और उनकी खुशी के लिए खतरा है, तो मैं अपने काम से संतुष्ट हो पाऊंगा”

इस वक्तव्य पर गौर कीजिए…

यहां सवर्ण हिन्दुओं से उम्मीद की जा रही है कि वे जाति-व्यवस्था के जहर को समझें और ये भी समझें कि उनकी ये बीमारी शेष भारत के लिए क्यों खतरनाक है।

बाद के दौर में हम देख पाते हैं कि…सवर्ण हिन्दुओं को अपनी इस बीमारी की वजह से शेष भारत के नुकसान की कोई चिंता नहीं है।इसके विपरीत…उन्हें इस बीमारी को बढाते जाने की चिंता अधिक है।

अगर…आप भारत में सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक संगठनों और प्रचलित बाबाओं कथाकारों और गुरुओं के कामों का विश्लेषण करें तो वे जाति-व्यवस्था को खत्म करने के लिए कुछ भी नहीं कर रहे हैं बल्कि जिस पलायनवादी और पुनर्जन्मवादी अध्यात्म से जाति-व्यवस्था को ताकत मिलती है, उसी अध्यात्म का पाठ पढाए जा रहे हैं।

सवर्ण सांस्कृतिक संगठन हिंदुत्व की विभाजक राजनीति कर रहे हैं और दलितों, शूद्रों, मुसलमानों के शिक्षा, रोजगार, कौशल विकास, स्वास्थ्य सुविधाओं सहित सामाजिक, राजनीतिक प्रतिनिधित्व की संभावना को कमजोर बना रहे हैं

घोषित रूप से जाति आधारित आरक्षण को खत्म करना चाहते हैं और इससे भी आगे बढ़कर वे आरक्षण के मुद्दे पर दलितों, शूद्रों, आदिवासियों को आपस में लड़ा रहे हैं।

इन बातों का मतलब ये हुआ कि सवर्ण द्विज हिन्दू अभी भी जाति को अपनी बीमारी के रूप में या देश के लिए खतरे के रूप में नहीं देख पा रहे हैं या इस तरह देखना नहीं चाहते हैं।

इसका कारण भी साफ़ है कि चूँकि उन्हें इस बीमारी को बनाए रखने से फायदा होता है इसलिए वे अपनी तरफ से इसे खत्म करने का कोई काम नहीं करेंगे।

इसका साफ़ मतलब ये है कि डॉ. अंबेडकर हिन्दुओं को नहीं समझा पाए कि वे बीमार लोग हैं और उनकी बीमारी देश के लिए खतरनाक है। थक हारकर उन्होंने दलितों को बौद्ध धर्म में जाने की सलाह दी थी। उनका ये कदम इस बात के लिए था कि सवर्णों से जाति नाश की उम्मीद करना बेकार है। इसकी बजाय दलितों-पिछड़ों को स्वयं अंधविश्वासी धर्म और परम्परा को छोड़कर, उससे बाहर निकलकर अपनी मदद खुद करनी चाहिए।

अब इस बिंदु पर आकर एक सबसे बड़ा सवाल उठता है कि सवर्ण द्विज हिन्दुओं को छोडिए, क्या दलितों, शूद्रों, आदिवासियों और मुसलमानों को ये बात समझ में आ गई है कि “उनके अपने भीतर की जाति-व्यवस्था उनके अपने लिए क्यों और किस तरह खतरनाक है?”

ये सवाल अजीब लगेगा लेकिन यही असली सवाल है और इसका उत्तर ये है कि दलितों-पिछड़ों को पता ही नहीं है कि ये ‘उनकी अंदरूनी जाति व्यवस्था’ ही उनके लिए सबसे ज्यादा खतरनाक है।

मेरे इस वक्तव्य पर बहुत लोगों को तकलीफ होगी या इसका मजाक उड़ाया जा सकता है। लेकिन हकीकत यही है कि दलित और पिछड़े समुदाय अपनी खुद की अलग-अलग जातियों में विवाह और भोजन का प्रतिबन्ध नहीं तोड़ पाए हैं।

अभी भी दलितों और आदिवासियों और शूद्रों में आपसी एकीकरण नहीं हो पाया है और इसी कारण इनके राजनीतिक और सामाजिक प्रेशर ग्रुप निकम्मे पड़े हैं।

कल्पना कीजिए कि किसानों कामगारों और मजदूरों की जातियों में आपस में एकीकरण हो जाए, ये सवर्णों से जाति नाश की उम्मीद लगाना छोड़कर खुद ही अपने बीच जाति नाश करके अपने बीच में विवाह और भोजन सहित अन्य सामाजिक, आर्थिक व्यवहार शुरू कर दें तो क्या होगा?

इससे ये होगा कि एक समाज के रूप में और एक राजनीतिक इकाई के रूप वे संगठित हो जाएंगे। एक जाति में दूसरी जाति की बेटी या बहु या रिश्तेदार होगा तो उन्हें उस जाति के गरीब या अमीर होने में दुःख या सुख का अनुभव होगा।

ऐसे में जब सभी जातियों के हित एक-दूसरे से विवाह और भोजन सहित व्यापार रोजगार आदि के रास्ते से जुड़ जाएंगे तब दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के सामाजिक और राजनीतिक संगठन एक भारी संख्या (भारत की जनसंख्या का 70 प्रतिशत से भी अधिक) के जरिए अपने सपनों का समाज और भारत बना सकेंगे। तब तीस प्रतिशत या तीन प्रतिशत रसूखदारों को भी आपके लिए बदलना ही पड़ेगा।

जब सवर्ण द्विज हिन्दू ये देखेंगे कि जाति व्यवस्था से ‘उन्हें’ उनकी राजनीति और उनके व्यापर को नुक्सान हो रहा है तब वे जाति उन्मूलन का प्रयास अपनी तरफ से इमानदारी से शुरू करेंगे। मतलब ये हुआ कि सभी दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों को अपनी अंदरूनी जाति-व्यवस्था तोड़कर पूरे समाज को इस स्तर तक ले जाना है जहां सवर्णों को अपनी राजनीति, व्यापार, रोजगार आदि के मामले में जाति व्यवस्था से नफरत होने लगें, तभी वे कुछ करेंगे। और जब तक वे कुछ न करें तब तक हमें अपने भीतर जाति व्यवस्था को खत्म करना है।

अब इस लेख की शुरुआत में आए जार्ज बर्नार्ड शॉ के वक्तव्य पर लौटते हैं कि “भीड़ जिस दिशा में जा रही है उसी दिशा में झंडा लेकर आगे हो लेने वाला नेता होता है”

ये वक्तव्य असल में राजनीतिक नेतृत्व और राजनीतिक अवसरवादिता को व्यक्त करता है। साथ ही बर्नार्ड शॉ का ये मजाक असल में जनता की असली ताकत को भी उजागर करता है। जनता (हमारे लिए भारत की गरीब जातियां) अगर अपनी मर्जी से कोई एक दिशा चुन कर उसपर निकल पड़ें तो सारे नेता उसी दिशा में झंडा लेकर दौड़ पड़ने के लिए मजबूर हो जाएंगे।

इस बात को आप अभी भी होता हुआ देख सकते हैं। जिन लोगों ने गाय या मन्दिर या राष्ट्रवाद के इर्द-गिर्द राजनीति खड़ी की है उन्होंने ये काम राजनीति में सीधे सीधे नहीं किया है बल्कि धीमे जहरीले धार्मिक प्रचार और शिक्षा, धार्मिक प्रवचनों, गुरुओं, पंडितों, पुजारियों, धार्मिक सीरियल्स, कार्टून, फिल्मों आदि के माध्यम से भीड़ को धर्म, मन्दिर, गौरक्षा और राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाया है।

अब जब भीड़…उन जहरीले प्रचार और शिक्षा को मानकर एक दिशा में निकल पड़ी तब उनकी “बी टीम” के राजनेता झंडा लेकर आगे हो गये हैं और भारत की राजनीति और संसद में ताकतवर होकर नजर आने लगे हैं।भीड़ के इस चुनाव के तर्क को आगे बढाएं तो हमें देखना होगा कि…दलित और पिछड़े क्या सीखकर किस दिशा में दौड़ रहे हैं? आप गहराई से देखें तो…उन्होंने इन सवर्ण धार्मिक बाबाओं, गुरुओं, पंडितों, पुजारियों सहित उनके धर्म और देवी-देवताओं से ही शिक्षा ली है और उस शिक्षा पर खड़ी जाति व्यवस्था और धर्म को अपनी ही अंदरूनी जातियों को मजबूत बनाने में इस्तेमाल किया है।

जब सवर्ण नेता या किसी भी जाति वर्ण के नेता ये देखते हैं कि दलित या पिछड़े खुद ही जाति व्यवस्था और इस व्यवस्था को सिखाने वाले अंधविश्वास धर्म को ही मजबूत करने में लगे हुए हैं तो वे भी झंडा उठाकर उसी दिशा में दौड़ पड़ते हैं। इसमें उनकी गलती कम है…दलितों, पिछड़ों की गलती अधिक है।

ऐसे में जाति-व्यवस्था को खत्म करने वाला सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व उभर ही नहीं सकता। ऐसे में किसी भी राजनीतिक पार्टी के घोषणा-पत्र में जाति उन्मूलन एक एजेंडे की तरह शामिल नहीं हो सकता। ऐसे में जाति-उन्मूलन का वादा चुनाव में जीत का आश्वासन नहीं बन सकता।

ये दलितों-पिछड़ों की बड़ी आबादी के लिए बड़ी शर्म की बात है कि मंदिर या मस्जिद की लड़ाई या “मन्दिर वहीं बनाएंगे” जैसी बातें चुनाव में जीतने के लिए आश्वासन बन जाती हैं और “जाति सभी मिटाएंगे” जैसे नारों की कल्पना तक राजनीतिक घोषणा-पत्र या राजनीतिक रणनीति से नहीं जुड़ पाई हैं।

इसका ये मतलब है कि बीमारी या कमजोरी राजनीति में नहीं है बल्कि दलितों-पिछड़ों की भीड़ में ही कहीं असली बीमारी छुपी हुई है।

वे खुद अपनी राजनीतिक प्रतिनिधियों को ये सन्देश साफ ढंग से नहीं दे पाए हैं कि उन्हें जाति और जातिवादी धर्म को कमजोर करना पसंद है या इन्हें मजबूत करना पसंद है।

जब राजनीतिक नेता दलितों-पिछड़ों को सवर्ण हिन्दुओं के मन्दिरों में पंडालों में कथाओं और जगरातों में कीर्तन करता हुआ देखते हैं, पुनर्जन्म और आत्मा-परमात्मा की शिक्षा से प्रभावित होता हुआ देखते हैं, लगन, म्हूरत और ज्योतिष में भरोसा करता हुआ देखते हैं…

तो वे समझ जाते हैं कि ये भीड़ जाति-नाश की दिशा में नहीं बल्कि जाति को और जातिवादी धर्म को मजबूत करने की दिशा में जा रही है। तब वे भी अपनी अवसरवादी फितरत के साथ उसी दिशा में झंडा लेकर दौड़ पड़ते हैं और नारा लगाने लगते हैं। अगर दलितों-पिछड़ों की भीड़ अपमानित किए जाने पर भी बार-बार उसी मन्दिर में जाती है तो वे नेता नारा लगाते हैं कि ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’।

अगर दलितों-पिछड़ों की भीड़ आपसी जातियां मिटाने लगें तो कल को ये ही नेता नारा लगाएंगे कि “जाति सभी मिटाएंगे।” आपके नेता क्या करेंगे क्या नारा लगाएंगे ये आपको आपकी भीड़ को और आपके समुदायों को आपस में मिलकर तय करना है। अब इस सब से करने योग्य क्या हासिल हुआ? इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि आपको जाति के नाश के लिए दूसरों से उम्मीद नहीं रखनी है।

दलितों-पिछड़ों को सवर्णों से उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि वे आकर उनका धार्मिक अंधविश्वास और उस पर आधारित जाति को मिटा दें। इसके विपरीत दलितों-पिछड़ों को आपस में मिल-जुलकर अपनी-अपनी जातियों में विवाह, भोजन और सामाजिक, आर्थिक व्यवहार के अन्य रिश्ते बनाने होंगे, और इससे भी बढ़कर एक काम और करना होगा।

वह यह कि जो धर्म या अन्धविश्वास जाति व्यवस्था को मजबूत करता है, जो धर्म या शास्त्र या गुरु या बाबा आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म की शिक्षा देता है उससे दूरी बनाइए। उनकी शिक्षाओं में ही असली दुर्भाग्य छुपा हुआ है, जाति-व्यवस्था की जड़ इसी धार्मिक शिक्षा में और इस पर आधारित पलायनवादी अध्यात्म में छुपी हुई है। अगर इस शिक्षा को दलित और पिछड़े नकार दें तो भारत भी सभ्य और समर्थ हो सकता है।

ऐसे नकार के लिए दलितों-पिछड़ों को अतिवादी नहीं बनना है, न कोई सेना या हिंसक आन्दोलन खड़ा करना है, न तो हिन्दू धर्म को अब अपमानित करना है न उनके देवी-देवताओं, शास्त्रों का उपहास करना है, ये सवर्ण हिन्दुओं का उनका अपना धर्म है वे जिस तरह उसे मानते हैं उन्हें मानने पूजने का संवैधानिक अधिकार उनके पास है।

वे अगर दलितों, शूद्रों, स्त्रीयों को अपने मंदिरों शास्त्रों के लिए अपवित्र या नीच समझते हैं तो दलितों, शूद्रों को उन मन्दिरों शास्त्रों के निकट जाकर उन्हें दुखी नही करना चाहिए, ये शिष्टाचार की बात है।

इसकी बजाय दलितों, पिछड़ों को अपने मूल श्रमण धर्म ‘बौद्ध धर्म’ का अभी से पालन करना शुरू कर देना चाहिए। इसके लिए धर्म परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं है।

आपको सिर्फ आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म जैसी काल्पनिक और अंधविश्वासी बातें में विश्वास करना बंद करना हैं और भारत के संविधान के अनुरूप वैज्ञानिक चित्त का अपने भीतर और अपने परिवार रिश्तेदारों मित्रों में विकास करना है। अपने बच्चों और स्त्रियों, मित्रों रिश्तेदारों आदि को काल्पनिक मिथकों, देवी-देवताओं, भूत-प्रेत, या पितरों आदि के पूजा-पाठ आदि से दूर कर लेना है। और किसी अंधविश्वास की गुलामी हो या उसका मजाक बनाना हो दोनों एक तरह की अति है, कोई भी अति समाज के लिए ठीक नहीं होती।

इनके बीच में मध्यम मार्ग और संतुलित मार्ग ये है कि आप अपने भीतर की जाति व्यवस्था खत्म करें और अंधविश्वास से दूरी बना लें और वैज्ञानिक और नैतिक लोकतांत्रिक चेतना का विकास करते रहें।

यही दलितों पिछड़ों और भारत को सक्षम और समृद्ध बनाने का रास्ता है

संजय श्रमण की कलम से….

(लेखक के अपने निजी विचार है)

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