न्यायपालिका में इंसाफ के प्रतिनिधि थे जस्टिस पी बी सावंत -डॉ मनीषा बांगर
भारतीय सामाजिक व्यवस्था के मूल में जातिवादी व्यवस्था है। यह व्यवस्था इतनी ताकतवर है कि बड़े से बड़े ओहदे के बावजूद इसका प्रभाव नहीं जाता। यहां तक कि जज की कुर्सी पर बैठने वाला शख्स भी अपनी जाति और वर्गीय चरित्र को नहीं छोड़ पाता। यही भारतीय न्यायपालिका की सच्चाई है। कोई पंच परमेश्वर नहीं होता।
यही टिप्पणी थी जस्टिस पी बी सावंत की। अपनी किताब “मिथ ऑफ ज्यूडिशियल इंडिपेंडेंस” में उन्होंने भारतीय न्यायपालिका के जातिगत चरित्र को बेनकाब किया था।
न्यायपालिका में बहुजन समाज के निर्भीक प्रतिनिधि रहे जस्टिस पी बी सावंत का निधन हो गया। उनका जन्म 30 जून, 1930 को महाराष्ट्र में एक ओबीसी परिवार में हुआ था। उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय से लॉ की डिग्री हासिल की और बंबई हाईकोर्ट में वकालत करने लगे।
बाद में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट, नई दिल्ली में भी वकालत की। वर्ष 1973 में वे बंबई हाईकोर्ट के जज बनाए गए। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने 1982 में एयर इंडिया विमान हादसे की जांच के मामले में उल्लेखनीय फैसला दिया, जिसे आज भी नजीर के रूप में देखा जाता है।उन्हें 1989 में सुप्रीम कोर्ट के जज बनाया गया।
यह वह दौर था जब देश परिवर्तन के मोड़ पर खड़ा था। मंडल कमीशन की अनुशंसाएं लागू करने की घोषणा कर दी गई थी। इसके मुताबिक ओबीसी को सरकारी सेवाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाना था। लेकिन इसके विरोध में उच्च जातियां खड़ी हो गईं। यहां तक कि न्यायपालिका में भी इसके खिलाफ विरोध के स्वर साफ-साफ सुनाई दे रहे थे।
इन स्वरों को 1993 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में देखा और सुना जा सकता है। जस्टिस पीबी सावंत बहुसंख्यक बहुजनों ( एससी एसटी ओबीसी और धर्म परिवर्तित बहुजन ) के पक्ष में खड़े रहे। उनका साफ मानना था कि जबतक वंचित समाज को उसका हक नहीं मिल जाता है तबतक कोई भी लोकतंत्र मुकम्मल लोकतंत्र नहीं हो सकता है।
यह बात उन्होंने अपनी किताब “ए ग्रामर ऑफ डेमोक्रेसी” में कही। अपनी इस किताब में उन्होंने भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के विभिन्न आयामों के बारे में विस्तार से लिखा और यह स्थापित किया कि भारत में जिसे वर्ग संघर्ष कहा जाता है, उसका आधार केवल अमीरी और गरीबी नहीं है। यह ऐतिहासिक रूप से सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक तौर विषमता का सवाल है।
उन्होंने कहा कि कोई भी लोकतंत्र तभी मुकम्मल हो सकता है जब अल्पसंख्यकों के सवालों और उनके मुद्दों को संज्ञान में लिया जाय।
उन्होंने कहा कि भारत में जब चुनाव होते हैं तो सामान्य तौर पर 65 फीसदी तक मतदान होता है। इसमें भी मतों का बंटवारा ऐसे होता है कि कई बार 30 फीसदी या फिर इससे भी कम मत पाने वाला विजयी हो जाता है। बात केवल इतनी ही नहीं होती। विजेता घोषित होने वाला उनकी आवाजों को अनसुना कर देता है जो उसे वोट नहीं देता।
जस्टिस पीबी सावंत ने सामूहिक प्रतिनिधित्व की बात कही। उन्होंने कहा कि हर वोट का मतलब है फिर चाहे वह विजेता के पक्ष में हो या फिर पराजित उम्मीदवार के पक्ष में।
जस्टिस पीबी सावंत यह मानते थे कि जाति व्यवस्था का उन्मूलन इसी तरह के सामूहिक प्रतिनिधित्व वाले लोकतांत्रिक व्यवस्था से संभव है। इससे लोकतंत्र में सामंतवादी प्रवृत्तियों का विनाश होगा।
वर्ष 1995 में सेवानिवृत्त होने के बाद भी जस्टिस सावंत निष्क्रिय नहीं रहे। वे कई सामाजिक मंच के आमंत्रण पर अपनी मौजूदगी केवल औपचारिकता मात्र की तरह न निभा कर समाज , कार्यकर्ता यहां तक कि राजनीतिक नेता गण का भी प्रबोधन करते रहे .
मेरी मुलाकात उनसे ऐसी ही मीटिंग में मुंबई में १९९८ में पहली बार हुई. तब मैंने बामसेफ संघठन में पदार्पण किया था. उसके बाद उन्हें कई बार बामसेफ और संयुक्त संगठनों के मंच पर बोलते हुए देखने का अवसर मिला. उनके प्रगाढ़ ज्ञान से परिपूर्ण भाषण से जितनी में प्रभावित हुई उतनी ही उनकी वंचित समाज के प्रति गहन चिंता और उनके चेहरे से छलकती निष्ठा मुझे विस्मित करती रही.
उन्ही दिनों में फिर उनकी किताब ” द मीथ ऑफ ज्यूडिशियल इंडिपेंडेंस ” पढ़ने का मौका मिला. वो किताब पढ़ कर उनके लिए हृदय में भारी कृतज्ञता उत्पन्न हुई.
जहां सामाजिक स्तर पर कार्य करने से बड़े हौदे में कार्यरत अधिकारी खुद को रोकते है , अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाते वहीं जस्टिस पी बी सावंत साहब इतनी शिद्दत से सामाजिक और राजनीतिक चेतना बढ़ाने मे अपना योगदान दे रहे है ये मुझ जैसी युवा प्रोफेशनल डॉक्टर के लिए बहुत प्रेरणा दयी था.
मुझे एक घटना का स्मरण हो रहा है। तब हमलोग बामसेफ के बैनर तले एक लघु फिल्म बना रहे थे। हम जस्टिस पीबी सावंत का विचार रिाकर्ड करना चाहते थे। उन्होंने उस साक्षात्कार में विस्तार से भारतीय समाज के विभिन्न स्तरों पर मनुवादी वर्चस्ववाद के बारे में बात कही। उन्होंने यह भी कहा कि सर्वहारा कहकर वामपंथी सच को खारिज करते हैं। वास्तविकता तो यही है कि जो पीड़ित और शोषित है, वही सर्वहारा है। मतलब यह कि वह सब जगह हारा है। उसे हर स्तर पर जीत मिलनी चाहिए और इसके लिए शासन और प्रशासन में भागीदारी अनिवार्य है।
डॉक्यूमेंटरी में दर्ज उनके कई शब्द और क्रांतिकारी वाक्य आज भी मेरे मस्तिष पर छाप ड़ाले है.
जस्टिस सावंत को 2002 में जस्टिस वी आर कृष्णा अय्यर की अध्यक्षता में इंडियन पीपुल्स ट्रिब्यूनल के लिए भी याद किया जाएगा। वे इसके सदस्य थे। इस ट्रिब्यूनल का गठन गुजरात दंगे की जांच के लिए किया गया था।
अपनी रिपोर्ट में इस ट्रिब्यूनल ने कहा कि गोधरा दंगा पूरी तरह से सुनियोजित था। ट्रेन को जलाने की एक घटना की पूर्व संध्या पर तब गुजरात सरकार में मंत्री रहे हरेन पांडया और तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच बैठक हुई थी। इसी बैठक में अधिकारियों को कहा गया था कि हिंदुओं को न रोका जाय। बाद में हरेन पांडया की हत्या हो गई।
निश्चित तौर पर जस्टिस सावंत को उनकी निर्भीकता, ईमानदारी, वंचित समाज के प्रति उनके व्यापक नजरिए के लिए याद रखा जाएगा। वह सचमुच पिछड़े समाज के अनमोल हीरा रहे जिसकी चमक हमेशा बनी रहेगी।
डॉ मनीषा बांगर(पूर्व उपाध्यक्ष बामसेफ,राजनीतिक और सामाजिक विश्लेषक)
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