Home International Political अखबारनामा : भारत के ब्राह्मणवादी अखबारों की मंशा
Political - October 9, 2020

अखबारनामा : भारत के ब्राह्मणवादी अखबारों की मंशा

दोस्तों, सियासत में एक खास बात होती है और यह कि सियासत में न मुद्दे मरते हैं और न सियासतदान। सब समय के सापेक्ष जिंदा रहते हैं। एक कहावत भी है – मरने से हाथी का न तो वजन कम हो जाता है और न ही कीमत। अखबारों की दुनिया में भी यह कहावत बहुत लोकप्रिय है। हर बड़ा राजनीतिज्ञ हाथी ही रहता है। उसका एक बड़ा कद होता है और उसके कद का महत्व भी। अखबार अपनी जातिगत पक्षधारिता के आधार पर उस मरे हुए हाथी को भी बरसों-बरस ढोते रहते हैं।

कल का दिन बहुत खास रहा। केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान का निधन कल दिल्ली के एक महंगे प्राइवेट अस्पताल फोर्टिस एस्कार्ट में हो गया। वे लंबे समय से बीमार चल रहे थे। बीते शनिवार को उनके दिल की सर्जरी की गई थी। उनके निधन पर परंपरा के अनुसार सभी ने शोक व्यक्त किया है। शोक व्यक्त करने वालों अखबारों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शोक संदेश को प्राथमिकता दी है। जबकि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के बयान को हाशिए पर रखा है।

दरअसल, यह बहुत दिलचस्प है कि क्या राष्ट्रपति जो कि भारतीय संविधान के हिसाब से सर्वोच्च पद है और एक तरह से वह संविधान ही नहीं पूरे देश का प्रमुख माना जाता है, उनके बयान को हाशिए पर रखा गया। जबकि जाति के आधार पर भी देखें तो रामविलास पासवान बहुजन और राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी बहुजन। फिर उनके शोक संदेश को हाशिए पर रखा गया। इसकी वजह क्या है? हम आज अपने इस कार्यक्रम में प्रकाशित अखबारों के इसी गुण-अवगुण पर चर्चा करेंगे।

सबसे पहले दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता को देखते हैं। कहने को समाजवादी चरित्र वाले इस अखबार में जातिगत द्वेष किस तरह भरा पड़ा है, इसका उदाहरण आज का दिल्ली संस्करण है। अखबार ने रामविलास पासवान के निधन को अखबार के पहले पन्ने के मुख्य खबरों में नहीं बल्कि पन्ने के सबसे अंत में जगह दी है। जबकि हाल ही में जब पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह का निधन हुआ था तब इसी अखबार ने दिल्ली में उनसे संबंधित खबर को सुर्खियों में जगह दी थी। क्या इसकी वजह यह नहीं कि रघुवंश प्रसाद सिंह जाति के राजपूत थे और रामविलास पासवान की जाति बहुजन?

दिल्ली के इस छद्म समाजवादी अखबार जनसत्ता को यहीं पर छोड़ते हैं। इस अखबार ने जो खबर प्रकाशित की है उसमें इस बात की चर्चा तक नहीं की गई है कि देश में मंडल कमीशन को लागू करवाने में रामविलास पासवान की क्या भूमिका रही। बात पटना में प्रकाशित अखबार हिन्दुस्तान की करते हैं। इस अखबार ने रामविलास पासवान की खबर को मुख्य खबर बनाया है। अखबार ने बड़ी चालाकी से पासवान के द्वारा किए गए कार्यों से मंडल कमीशन वाली बात को हाशिए पर रखा है। वहीं अखबार ने उनकी पार्टी लोजपा द्वारा बिहार विधानसभा चुनाव के प्रथम चरण के चुनाव के लिए जारी सूची को भी प्रमुखता से छापा है। इसका शीर्षक है – पहला चरण : भाजपा के खिलाफ लोजपा का एक भी प्रत्याशी नहीं। इस खबर में चिराग पासवान की तस्वीर भी छपी है। यह खबर एक साथ कई बातें कहती है। पहली तो यही कि किसी के मरने से राजनीति नहीं रूकती। राजनीति चलती रहती है और चलती रहनी चाहिए भी। दूसरी बात यह कि हिन्दुस्तान अखबार के मन में क्या है, इसकी जानकारी मिलती है। इस अखबार ने एक सब हेड बनाया है – सवर्णों को 43 फीसदी टिकट।

दैनिक हिन्दुस्तान ने बाहुबली रामा सिंह और पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह के बेटे सत्यप्रकाश सिंह से जुड़ी खबर को भी प्राथमिकता के साथ प्रकाशित किया है। दोनों राजपूत जाति के हैं। रामा सिंह पहले नीतीश कुमार के साथ थे। उसके पहले वे लोजपा के सांसद रहे। कल उन्होंने राजद की सदस्यता ग्रहण कर ली। वहीं रघुवंश प्रसाद सिंह के बेटे ने जदयू की सदस्यता ली। अखबार ने सत्यप्रकाश सिंह के बयान को प्रकाशित किया है जिसका आशय यह है कि उनके पिता कहते थे कि एक परिवार से एक ही आदमी को सियासत करनी चाहिए नहीं तो यह समाजवाद नहीं है। यह बयान बेहद दिलचस्प है।

हिन्दुस्तान ने उपेंद्र कुशवाहा से जुड़ी एक खबर को भी पहले पन्ने पर प्रकाशित किया है। खबर का शीर्षक है – रालोसपा का निशाना राजद-जदयू। प्रकाशित खबर के मुताबिक रालोसपा लोजपा की राह का अनुसरण करेगी। वह भाजपा के साथ दोस्ती निभाएगी। यानी बिहार की राजनीति में भाजपा की राह और आसान हुई है। हालांकि इसकी एक वजह यह भी संभव है कि लोजपा और रालोसपा दोनों के पास अब कोई विकल्प नहीं बचा है कि वह भाजपा का विरोध करें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध करने का साहस उनमें नहीं है। खासकर उपेंद्र कुशवाहा में। उनके सामने जदयू और राजद ही चुनौती हैं। वजह यह भी कि रालोसपा जिस जाति समाज की राजनीति करना चाहते हैं, उस पर राजद-जदयू का पहले से कब्जा है।

बहरहाल, अखबारों का चरित्र बेहद दिलचस्प होता है। इसमें कोई दो राय नहीं। भारत में सत्ता को बनाने-बिगाड़ने में अखबारों के महत्व को कोई नकार नहीं सकता। एक वजह यह कि भारत में बहुसंख्यक बहुजन अभी भी हजारों जातियों में बंटे हैं। उनके बीच एकता नहीं है। यही कारण है कि मुट्टी पर ब्राह्मण भारत की राजनीति ही नहीं बल्कि सभी संसाधनों पर कब्जा जमाए बैठे हैं। 

यह लेख वरिष्ठ पत्रकार नवल किशोर कुमार और सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषण मनीषा बांगर के निजी विचार है ।

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