घर आंतरराष्ट्रीय राजकीय CAA, एनआरसी आणि एनपीआरची औषधे: सामान्य कुटुंब कोड (सीएफसी)
राजकीय - जानेवारी 25, 2021

CAA, एनआरसी आणि एनपीआरची औषधे: सामान्य कुटुंब कोड (सीएफसी)

CAA (नागरिकत्व सुधारणा कायदा), एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकत्व नोंदणी) आणि एनपीआर (राष्ट्रीय लोकसंख्या नोंदणी) की काली छाया ने हमारे राजनीतिक लोकतंत्र को संकट में डाल दिया है । इन सभी गतिविधियों का मुख्य उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम विमर्श के बवंडर से पसमांदा बहुजन (अनुसूचित जाती, एसटी आणि ओबीसी) च्या लोकशाही आकांक्षा दडपण्यासाठी या उद्देशाने 150 सालों से अधिक समय से सुलग रहे धार्मिक मतभेदों का भरपूर फायदा उठाया जा रहा है । CAA-NRC-NPR धार्मिक मतभेदों को बढ़ाने के वो औज़ार हैं जिन्हें अशराफ-सवर्णो ने बर्तानिया हुकूमत की देख-रेख में दशकों की मेहनत से धारधार बनाया है । राजनीतिक जीवन में अलग निर्वाचक मंडल (मतदारांची स्वतंत्र व्यवस्था), सांस्कृतिक जीवनात विविध शैक्षणिक संस्था आणि कौटुंबिक जीवनात सांप्रदायिक कायदे आहेत 20 वीं शताब्दी की शुरुआत से भारतीय उपमहाद्वीप में ऐसे औज़ारों की खान को कानूनी समर्थन देने का कार्य किया है । एक ओर जहाँ राजनीतिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक जीवन में बंटवारे की पराकाष्ठा भारतीय उपमहाद्वीप के सांप्रदायिक बंटवारे से हुई वहीं दूसरी ओर इस बंटवारे का आधुनिक स्वरुप CAA-NRC-NPR एक बड़ी चुनौती के रूप में हमारे सामने है । यह लेख सांप्रदायिक पारिवार कानूनों की निरंतरता और उनसे उत्पन्न विभिन्न चुनौतियों पर केंद्रित है ।

20 वीं शताब्दी की शुरुआत से ही सांप्रदायिक पारिवार कानूनों ने यह सुनिश्चित कर दिया कि भारतीय उपमहाद्वीप का पारिवारिक जीवन धार्मिक आधार पर अलग-अलग बना रहे तथा जातिगत गैरबराबरी को मज़हबी एकरूपता से छुपाये रखे । सांप्रदायिक पारिवार कानून पारिवारिक जीवन की जातिगत बुनियाद को कुछ हद तक कमज़ोर करने की कोशिश तो करते हैं लेकिन ये कानून भारतीय उपमहाद्वीप के परिवारों के धार्मिक चरित्र का अतिशय वर्णन भी करते हैं । सांप्रदायिक पारिवार कानून भ्रामक रूप से उपमहाद्वीप के परिवारों के धार्मिक चरित्र को विशेषाधिकार प्रदान करते हैं । इसकी वजह से पारिवारिक संबंधों के निर्धारण में, नागरिकता की साझा समझ के बजाय हिन्दू/मुस्लिम/ईसाई/पारसी पारिवार कानून प्रमुख भूमिका निभाते हैं । पारिवारिक मामलों के इस तरह के सांप्रदायिक अलगाव का एक अटल परिणाम नागरिकता की सांप्रदायिक अवधारणा का विकास है । वास्तव में, सांप्रदायिक पारिवार कानूनों ने ही सांप्रदायिक नागरिकता कानून की ज़मीन तैयार की है । पारिवारिक ज़िन्दगी का बंटवारा रिहाइशी इलाकों के बंटवारे में बदल ही जाता है और CAA-NRC-NPR के बाद तो ये बंटवारा नज़रबंद शिविरों का रूप ले लेगा ।

सामान्यत: जातीय कायदा, ज्यायोगे देशात राहणार्‍या वेगवेगळ्या समुदायासाठी कौटुंबिक बंध विकसित करणे कठीण होते, समाज में सांप्रदायिकता की भावना को बढ़ने के लिए शासक वर्ग द्वारा लागू किए जाते हैं । भारतीय उपमहाद्वीप में इस तरह के कानून ब्रिटिश राज के साथ मिलकर अशराफिया वर्ग (उच्च जातीचे मुस्लिम) स्वतः बांधले होते. आजच्या युगात अशरफ-सवर्ण असे कायदे आहेत (डावे-उजवे-उदारमतवादी-पुराणमतवादी) के संरक्षण में अल्पसंख्यक अधिकारों और कानूनी बहुलतावाद के नाम पर ज़िंदा हैं । इन सांप्रदायिक कानूनों का प्रचार और संरक्षण करने वाले अशराफिया नेतृत्व पर एक नज़र डालते ही इन कानूनों का असली मकसद साफ़ हो जाता है । जिस तत्परता से शुरुआत में ब्रिटिश राज और बाद में ब्राह्मण राज ने सांप्रदायिक पारिवार कानूनों को मान्यता दी उससे इन कानूनों की सामाजिक और राजनीतिक जीवन में वास्तविक भूमिका ज़ाहिर होती है । सांप्रदायिक पारिवारिक कानून, अशरफ-सवर्णांच्या जमींदाराच्या मालमत्ता, धन और विशेषाधिकारों पर पसमांदा बहुजन के लोकतांत्रिक दावों की वजह से बनी ज़बरदस्त बेचैनी का नतीजा हैं । इन अलगाववादी कानूनों का मूलभूत आधार हिन्दू-मुस्लिम विभाजन को मज़बूत करके अशराफ-सवर्ण वर्ग के हितों को साधना भर है । इससे आंशिक रूप से यह भी स्पष्ट होता है कि सांप्रदायिक आधार पर भारत का विभाजन होने के बावजूद सांप्रदायिक पारिवार कानून क्यों ख़तम नहीं किये जा सके । ये कानून अशराफ-सवर्ण हितों को हिन्दू-मुस्लिम हितों में बदलने में सहजीवी भूमिका निभाते है जिसका इस्तेमाल पसमांदा बहुजन के हितों को खत्म करने में किया जाता है ।

उदाहरणार्थ, सैयदवादी अशरफ वर्गाच्या आग्रहावर जातीयवादी कायद्यांच्या नावावर शाहबानोचा निर्णय (1985) के हिंसक और नाटकीय उलट-पलट ने सांप्रदायिक नागरिकता के विचार को वैधता प्रदान की । इस प्रक्रिया ने ब्राह्मणवादी सवर्णों को अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनाने की मांग को लोकप्रिय करने में मदद की । इस बात को भावात्मक तर्क के साथ कुछ इस तरह से प्रचारित किया गया कि अगर अशराफ शाहबानो मामले में बराबरी के सिद्धांत को सांप्रदायिक नागरिकता की ताकत से तोड़ सकते हैं, तो सवर्ण भी बाबरी मस्जिद के मामले में सांप्रदायिक नागरिकता की भावनाओं के सम्मान के लिए इंसाफ के सिद्धांतों की बलि चढ़ा सकते हैं । इस अशरफ-सवर्ण जुगलबंदी के नाटकीय टकराव ने उस वक़्त सार्वजनिक विमर्श पर अपना प्रभुत्व जमा लिया जब मान्यवर कांशीराम जी की अगुवाई में बहुजन आंदोलन तेज़ी से विकसित हो रहा था। इस तरह के नाटकीय टकराव से पसमांदा-बहुजन समाज के लिए समान नागरिकता के लोकतांत्रिक दावों को आगे रखने में कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है ।

हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को रचनात्मक बल देने में अशराफिया वर्ग की भूमिका तीन मुख्य श्रेष्ठतावादी अवधारणाओं पर टिकी हुई है । पहला, अशराफ अपनी उच्च जाति के आधार पर पसमांदा-बहुजन से खुद को श्रेष्ठ मानते हैं ताकि वे समस्त मुस्लिम समाज के नेतृत्व की दावेदारी करते हुए पसमांदा समाज के बुनियादी अनुभवों को मिटा सकें । दूसरा, अशराफिया पुरुष सभी महिलाओं से श्रेष्ठ हैं, जिसका मतलब यह है कि अशराफ महिला अधिकारों का अतिक्रमण करके भी बचे रहें । तीसरा, समस्त मुस्लिम समाज के नेता के रूप में अशराफ खुद को सभी ‘गैर-मुस्लिमोंजैसे कि हिंदू, शीख, बुद्ध, जैन, पारसी और ईसाई से श्रेष्ठ मानते हैं । इस तीसरे श्रेष्ठतावादी विचार को ही ब्राह्मण-सवर्ण वर्ग दशकों से सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और राजनितिक रूप से उलट कर सभी ‘गैर-मुस्लिमोंके नेतृत्व को ग्रहण करने का प्रयास कर रहा है । CAA-NRC-NPR के ज़रिये ब्राह्मण-सवर्ण अशराफिया समाज के धार्मिक श्रेष्ठतावादी दावों को उलटने के काफी करीब आ चुके हैं । CAA-NRC-NPR की चाल बहुत सोच समझ कर इस भरोसे के साथ चली गई है कि अशराफिया समाज ब्राह्मण राज को मज़बूत करने वाली बनी-बनाई पगडंडी के अनुसार ही प्रतिक्रिया देगा । इसलिए, CAA-NRC-NPR के खिलाफ कोई भी वास्तविक लड़ाई अशराफ के इन तीन वर्चस्ववादी विचारों को नष्ट किए बिना शुरू नहीं की जा सकती जो सांप्रदायिक नागरिकता की बुनियाद है और जिसका उपयोग अब ब्राह्मण-सवर्ण अपने स्वयं के वर्चस्ववादी विचारों को लागू करने के लिए कर रहे हैं ।

जाति के वर्चस्व से पैदा हुए अशरफ-सवर्ण सांप्रदायिकता के दुष्चक्र को तोड़ने के लिए पसमांदा बहुजन के बीच सामाजिक और पारिवारिक संबंधों का बनना बहुत ज़रूरी है । हिन्दू-मुस्लिम बाइनरी से पैदा हुए सामाजिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक अलगाव को समाप्त करके ही अंबेडकरवादी नज़रिये का सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र स्थापित किया सा सकता है । इस दिशा में एक नई शुरुआत समान परिवार संहिता (सामान्य कौटुंबिक कोड – सीएफसी) को अपनाकर की जा सकती है जिसके तहत पसमांदा बहुजन धार्मिक बंटवारे को काटकर मज़बूत पारिवारिक और सामाजिक संबंध स्थापित कर सकते हैं । CFC पसमांदा बहुजन के बीच विवाह और पारिवारिक संबंधों की राह आसान कर सकता है जो वक़्त के साथ भारतीय उपमहाद्वीप में अशरफ-सवर्ण आधिपत्य को ख़तम करने वाली सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक एकता में बदल सकती है। CFC को एक हकीकत में बदलने के लिए अशराफ गिरोह को, जोकि सामाजिक-शैक्षिक और बौद्धिक स्तर पर पूरे मुस्लिम समाज का नेतृत्व करने का छलावा कर रहा है, इतिहास के कूड़ेदान में फेंकने की ज़रुरत है । ये गिरोह ही आज ब्राह्मण-सवर्ण वर्ग के सबसे बड़े पैदल सिपाही का काम कर रहा है जोकि नागरिकता को सांप्रदायिक बनाकर CAA जैसे कानूनों के लिए ज़मीन तैयार करने में उनकी मदद करता है ।

CFC सांप्रदायिक नागरिकता की अवधारणा को मारने के लिए ज़रूरी दवा है ताकि नागरिकता के लोकतांत्रिक आदर्श अपनी जड़ें जमा सकें । कानूनी बहुलतावाद के आधार पर CFC का अशराफ द्वारा विरोध बहुत ही असंगत है । अलग अलग विश्वास परम्पराओं वाले नागरिकों के बीच मेलजोल बढ़ने की प्रक्रिया में बाधा डालना ब्राह्मणवादी ताकतों के सांप्रदायिक कदमों का मुकाबला करने का सबसे बुरा तरीका है । इस तरह के तर्क बस अशराफिया वर्ग की श्रेष्टतावादी मान्यताओं को छिपाने का काम करते हैं । विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के होने को CFC से दूर भागने का कोई बहाना नहीं बनाया जा सकता । इस कानून ने अब तक केवल अशराफ-सवर्ण कुलीनों की ही वैवाहिक संबंध बनाने में मदद की है और धर्म से इतर पसमांदा-बहुजन संबंधों को ‘विशेष’ बनाकर चिह्नित करने का काम किया है । सांप्रदायिक पारिवारिक कानूनों के साथ विशेष विवाह कानून इस मिथक को बनाए रखता है कि अंतर-धार्मिक विवाह ‘विशेषहैं लेकिन समान धर्म को मानने वाले व्यक्तियों के बीच विवाह ‘साधारण’, ’सामान्य’, और ’आम’ है। समान पारिवारिक संहिता (सीएफसी) कानूनी रूप से अंतर-धार्मिक पारिवारिक और सामाजिक संबंधों को सामान्य बनाकर इस मान्यता को पलट सकता है । CFC के बनने से, सांप्रदायिक व्यक्तिगत कानून के साथ-साथ विशेष विवाह अधिनियम को खत्म करके एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था का रास्ता बनाया जा सकता है जोकि धर्म और जाति से परे नागरिकता के आदर्शों का समर्थन कर सके ।

इसलिए कितना भी विरोध क्यों न कर लिया जाए, नागरिकता के सांप्रदायिकरण को तब तक ख़त्म नहीं किया जा सकता जब तक वह अशराफों की पितृसत्ता, जाति और धार्मिक श्रेष्ठता की धारणाओं को चुनौती नहीं देते । ये श्रेष्ठतावादी विचार ब्राह्मण-सवर्णो के साथ मिलकर सांप्रदायिक नागरिक का निर्माण करते हैं जो CAA-NPR-NRC और इसी तरह के अन्य विभाजनकारी कदमों को लागू करने की असली बुनियाद है । CFC कुछ वक़्त में CAA-NPR-NRC की पितृसत्तावादी, जातिवादी और सांप्रदायिक बुनियाद को ख़त्म करके इसके खिलाफ एक स्थाई सुरक्षा कवच के रूप में विकसित हो सकता है ।

डॉ. अयाज़ अहमद, एसोसिएट प्रोफेसर, यूनाइटेडवर्ल्ड स्कूल ऑफ़ लॉकर्णावती यूनिवर्सिटी, गुजरात

अभिजीत आनंद, शोधकर्ता,   नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी, ओड़िसा-कटक ।

प्रतिक्रिया व्यक्त करा

आपला ई-मेल अड्रेस प्रकाशित केला जाणार नाही. आवश्यक फील्डस् * मार्क केले आहेत

हे देखील तपासा

मौलाना आझाद आणि त्यांच्या पुण्यतिथीनिमित्त त्यांचे स्मरण

मौलाना अबुल कलाम आझाद, मौलाना आझाद म्हणूनही ओळखले जाते, एक प्रख्यात भारतीय विद्वान होते, फ्रीडो…