रचनाकारों के आधार पर जाति का साहित्य,पढ़िये विस्तार से
ये लेख नवल किशोर कुमार द्वारा लिखा गया है “जाति और साहित्य” जिसका विस्तार से वर्णन किया गया है.
जाति और साहित्य – क्या किसी खास जाती का साहित्य हो सकता है !! तुम्हारी जाति क्या है पार्टनर? क्या किसी खास जाति का साहित्य हो सकता है? इससे पहले कि आप इस सवाल पर गौर करें एक सवाल यह भी अपने विचार के केंद्र में रखें कि साहित्य में जाति क्यों नहीं हो सकती?आपका जवाब कुछ भी हो सकता है। यदि आप मुख्यधारा के साहित्य को ही साहित्य मानते हैं जो कि पीढ़ियों से लिपिबद्ध होता रहा है, उसका सौंदर्य शास्त्र आपको अपने मोहपाश में बांध लेता है तब आप ओबीसी साहित्य के अस्तित्व को ही खारिज करेंगे। आप इसे तब भी खारिज कर सकते हैं यदि आप यह मानते हैं कि दलित साहित्य जो कि पिछले ढाई-तीन दशक का परिणाम है और जिसमें दलित-वंचित समाज के सवाल केंद्रीय विषय होते हैं, ही बेहतर विकल्प है और अलग से कोई कैटेगराइजेशन करने की आवश्यकता नहीं है।
मेरा विचार दोनों स्थितियों में आपसे अलग होगा। मैं मानता हूं कि हर जाति का साहित्य हो। सभी जातियों की अपनी संस्कृति और अपने रिवाज हैं। सबके अपने-अपने सवाल भी हैं। इसलिए भूमिहारों का साहित्य भी है। दिनकर के साहित्य को मैं भूमिहारों का साहित्य मानता हूं। वैसे ही मैथिलीशरण गुप्त के द्वारा सृजित साहित्य को मैं बनियों का साहित्य मानता हूं। फणीश्वरनाथ रेणु की रचनाओं को मैं ओबीसी का साहित्य और नामदेव ढसाल, ओमप्रकाश वाल्मीकि की रचनाओं को दलित साहित्य मानता हूं।
मेरे इस विचार के पीछे मुख्य तर्क यही है कि इन सभी रचनाकारों की रचनाओं में उनकी जाति की अभिव्यक्ति स्वभाविक तौर पर होती है। जैसे दिनकर की ही बात करें तो उनकी रचनाओं में सत्ता वर्ग से जुड़े सवाल सामने आते हैं। आप रश्मिरथी को उदाहरण के रूप में लें। दिनकर की इस रचना में कर्ण मुख्य नायक है। उसे नहीं पता है कि वह किसका पुत्र है। लेकिन वह सत्ता वर्ग का है। अंग देश का राजा है। भूमिहार जाति के लोगों की स्थिति यही रही। वे न तो सीधे तौर पर ब्राह्मण हैं और न ही श्रमण परंपरा वाले किसान। खेती है लेकिन खेती करना उनकी शान में बट्टा लगाता है। कमोबेश उनकी स्थिति कर्ण वाली है। एक तरफ बौद्धिक साम्राज्य में वे अपनी हिस्सेदारी चाहते हैं तो दूसरी तरफ भौतिक साम्राज्य पर अपना वर्चस्व।
रेणु कुर्मी जाति के थे। उनके विषयों में किसान है जो सब्जियां उगाता है,धान बोता है, गेहूं काटने जाता है, निकाई-गुड़ाई करता है, दूध भी दूहता है। रेणु की सर्वाधिक लोकप्रिय रचना मैला आंचल का प्रशांत ओबीसी की उच्च जातियों का प्रतिनिधित्व करता है। वह पढ़-लिखकर डाक्टर बन गया है। लेकिन उसके मन में अपनों के लिए पीड़ा है। उच्च जाति की कन्या के लिए उसके मन में चाह भी है। पूरे उपन्यास में प्रशांत उच्च जातियों को चुनौती देता है कि वह भी उनके समान बुद्धिजीवी है, सम्मान का पात्र है। इसे साबित करने के लिए रेणु ने उसे कायस्थ जाति की कमली का प्रेमी बनाया। यह दरअसल, ओबीसी की उच्च जातियों का अंतर्द्वंद्व है।
नामदेव ढसाल का गोलपिट्ठा एक बेहतर उदाहरण है दलित साहित्य का। मुंबई के एक रेडलाइट एरिया की पृष्ठभूमि पर आधारित उनकी कविताएं महाराष्ट्र में दलितों के हालात को सामने लाते हैं। उनकी कविताओं में पीड़ा है, क्षोभ है। आप यदि उनके सरोकारों से खुद को अलग रखते हों तो कह सकते हैं कि उनकी कुंठा भी है। लेकिन आप नकार नहीं सकते कि उन्होंने जो लिखा वह दलित साहित्य है। ओमप्रकाश वाल्मीकि का जूठन भी यही कहता है।
संभव है कि आप यह भी कहें कि प्रेमचंद ने जो लिखा उसमें दलित साहित्य या ओबीसी साहित्य के तत्व हैं और इसी के आधार पर यह तर्क दे सकते हैं कि रचनाकार चाहे किसी भी जाति का हो, किसी भी जाति का साहित्य सृजित कर सकता है। लेकिन मेरा मानना है कि ऐसा नहीं होता। आप गोदान को ही उदाहरण के रूप में लें। होरी महतो (बिहार में महतो कुशवाहा को कहते हैं, झारखंड में ये आदिवासी भी हैं) की व्यथा गाथा प्रेमचंद ने कुछ ऐसे रचा है जैसे वह उसके जीवन का आंखों-देखा हाल सुना रहे हों। प्रेमचंद के शब्दों में एक परायापन है। यदि अपनापन होता तो होरी हमेशा लाचार नहीं होता। वह प्रतिरोध करता। हो सकता है कि वह नक्षत्र मालाकार बनता। रेणु का रामचरित्तर बनता।
बहरहाल, ओबीसी का साहित्य और साहित्य में ओबीसी के सवालों को खारिज नहीं किया जाना चाहिए। आप बेशक एक बड़ी छतरी का निर्माण कर सकते हैं। दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य, स्त्री साहित्य और ओबीसी साहित्य को मिलाकर बहुजन साहित्य की परिभाषा दे सकते हैं। लेकिन यह तो तभी संभव है जब सामाजिक और सांस्कृतिक छतरी का निर्माण हो। रेंड़ी का तेल हाथ में लगाकर दोस्ती वाला हाथ मिलाइएगा तो दोस्ती निभेगी कैसे?
~~ नवल किशोर कुमार~~
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