जूम करके देखें लालू प्रसाद का जीवन
करीब एक सप्ताह पहले पटना से अपनी धुन के पक्के वरिष्ठ पत्रकार Birendra Kumar Yadav जी ने फोन किया था। बिहार में उनकी खास पहचान है। उनके द्वारा प्रकाशित पत्रिका बीरेंद्र यादव न्यूज अब चर्चित हो चुकी है। खबर लेखन पर ठोस पकड़ रखने वाले बीरेंद्र यादव जुझारू इंसान हैं। यह उनके जुझारूपन का ही प्रमाण है कि करोड़ों-अरबों की पूंजी वाले मीडिया संस्थानों के सामने उनकी कुछ सौ-हजार की पत्रिका सिर उठाकर बात करती है।
तो हुआ यह कि बीरेंद्र यादव जी ने फोन पर मुझे Lalu Prasad Yadav पर एक आलेख लिखने को कहा। उन्होंने बताया कि 11 जून को लालू प्रसाद के 74वें जन्मदिवस के मौके पर वह एक विशेषांक निकालना चाहते हैं। मैंने उसी वक्त उनसे वादा किया कि मैं लिखूंगा।
लेकिन कहना और लिखना दो अलग-अलग बातें हैं। लिखने बैठा तो समस्या यह आई कि वह लालू प्रसाद, जो आज भी ‘मीडिया के यार’ हैं, उनके बारे में लिखा क्या जाय। ऐसी कोई सूचना नहीं जो पूर्व से पब्लिक डोमेन में नहीं है। उनकी आत्मकथा “गोपालगंज टू रायसीना हिल्स” लिखने वाले Nalin Verma ने बहुत बारीकी से उनके हर पक्ष को लिखा है।
परंतु, मेरा मानना है कि लालू प्रसाद का जीवन कई मायनों में खास है। कुछ बातें तो ऐसी हैं जिन्हें बार-बार लिखा जाना चाहिए। इसलिए “जूम करके देखें लालू प्रसाद का जीवन” लेख लिखा। इसे बीरेंद्र यादव जी ने अपनी पत्रिका में प्रकाशित कर दिया है। अब उनकी अनुमति से अपनी डायरी का हिस्सा बना रहा हूं –
“यह मुमकिन है कि 22 मार्च, 1912 से पहले भी बिहार में राजनीति होती होगी। नहीं होने वाली कोई बात नहीं है। लेकिन तब राजनीति का केंद्र पटना नहीं था। वजह यह कि तब बिहार देश के प्रशासनिक मानचित्र पर बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा था। बंगाल विभाजन के बाद बिहार की राजनीति पटना स्थानांतरित हुई। पटना विश्वविद्यालय में विधान परिषद की कार्यवाहियां शुरू हुईं। हालांकि तत्कालीन राजनीति तब कांग्रेस के इर्द-गिर्द ही सिमटी थी। लोकतंत्र था नहीं। बिहार के वंचित जो कि पहले से ही हाशिए पर थे, बंगाल से बिहार के अलग होने के बावजूद हाशिए पर रहे। इस परिदृश्य में पहली बार बदलाव तब आया जब 1930 के दशक में त्रिवेणी संघ की स्थापना हुई। सरदार जगदेव सिंह यादव, शिवपूजन सिंह और जेएनपी मेहता के नेतृत्व में गठित संगठन पिछड़ी जातियों का पहला उभार था, जिसमें बड़ी संख्या में दलित भी साझेदार थे। इस संगठन की खासियत यह रही कि इसने न केवल राजनीतिक चेतना को जन्म दिया बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर भी अलग-अलग जातियों व समुदायों में खंडित दलितों-पिछड़ों को एकजुट किया।
हालांकि त्रिवेणी संघ को अंतरिम चुनावों में सफलता नहीं मिली लेकिन पिछड़ी जातियों की जो गोलबंदी इस संगठन के कारण हुई और राजनीतिक चेतना का जो विकास हुआ, वह बिहार की राजनीति में ऊंची जातियों की राजनीति को कड़ी चुनौती देने वाला साबित हुआ। यह इसके बावजूद कि जगदेव प्रसाद ने जब शोषित दल की स्थापना की तब उन्हें यह कहना पड़ा कि पहली पीढ़ी मारी जाएगी, दूसरी पीढ़ी जेल जाएगी और तीसरी पीढ़ी राज करेगी। लालू प्रसाद को इसी राजनीतिक संघर्ष का अहम योद्धा माना जा सकता है। लेकिन किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले कुछ और तथ्यों को जान लेना महत्वपूर्ण होगा।
सबसे पहले तो यही लालू प्रसाद ने जिन परिस्थितियों में राजनीति की शुरुआत की, वह परिस्थितियां कैसी थीं और पिछड़े वर्ग के एक गरीब घर में जन्मे व्यक्ति के लिए क्या यह आसान था? खासकर तब जब कोई ‘पॉलिटिकल गॉडफादर’ नहीं था?
लालू प्रसाद 1970 के दशक में बिहार की राजनीति में आते हैं और वह भी एक छात्र नेता के रूप में। पटना विश्वविद्यालय में आज भी भूमिहारों का राज है। उस समय तो आज की तुलना में भूमिहारों के लिए स्वर्ण युग था। पटना विश्वविद्यालयों में भूमिहारों की तूती बोलती थी। लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष यह भी था कि कर्पूरी ठाकुर, जगलाल चौधरी, रामलखन सिंह यादव, दारोगा प्रसाद राय, जगजीवन राम आदि के कारण दलित और पिछड़े वर्ग के युवाओं में पढ़ने की ललक पैदा हो गई थी। पटना विश्वविद्यालय में भले ही इन वर्गों के छात्रों का कोई राज नहीं था, लेकिन संख्या जरूर थी। आवश्यकता थी तो बस किसी नेतृत्वकर्ता की जो खतरा उठा सके। खतरा इस मायने में कि इसी पटना विश्वविद्यालय में पहले भी हिंसक घटनाएं घट चुकी थीं। लालू प्रसाद ने विषम परिस्थिति में भूमिहारों को चुनौती दी और परिणाम यह हुआ कि दलितों और पिछड़े वर्ग के छात्रों ने उन्हें अपना नेता मान लिया।
यह वह दौर था जब इंदिरा गांधी के फैसलों से जयप्रकाश नारायण अप्रसन्न चल रहे थे। उधर पटना विश्वविद्यालय के कैंपस में आग भड़क चुकी थी। लालू प्रसाद को भी एक मजबूत खंभे की आवश्यकता थी, जिसके सहारे वे राजनीति में लंबी छलांग लगा सकते थे। दाेनों एक-दूसरे के काम आए। छात्र संघर्ष जिसके कारण तत्कालीन हुकूमत की चूलें हिल रही थीं, जेपी उसके नेता मान लिए गए। वहीं लालू प्रसाद इस आंदोलन का युवा चेहरा बन चुके थे।
लेकिन बिहार की सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने के पहले उन्हें एक लंबी यात्रा तय करनी थी। जेपी के निधन के बाद उन्होंने कर्पूरी ठाकुर को अपना अभिभावक मान लिया था। एक तरह से यहां से लालू प्रसाद के लालू प्रसाद बनने की कहानी शुरू होती है। कर्पूरी ठाकुर के सान्निध्य में लालू प्रसाद ने सामाजिक न्याय की राजनीति की बारीकियों को देखा, समझा और खुद को आगे की राजनीति के लिए तैयार किया। फिर वही हुआ जैसा कि लालू चाहते थे।
जब कर्पूरी ठाकुर का निधन हुआ तब सर्वसम्मति से लालू प्रसाद को उनका उत्तराधिकारी मान लिया गया और विधानसभा में विपक्ष के नेता चुने गए। यह उनके लिए बड़ी छलांग थी क्योंकि तब नेताओं की कोई कमी नहीं थी जो लालू प्रसाद से अधिक अनुभव और पकड़ रखते थे। लेकिन लालू सामाजिक न्याय की इस बारीकी को समझ चुके थे कि यदि सत्ता के शीर्ष पर काबिज होना है तो बहुसंख्यक पिछड़ा वर्ग को अपने साथ रखना ही होगा। यही वजह रही कि लालू प्रसाद ने नीतीश कुमार को अपना सलाहकार बनाया। दोनों युवा थे। दोनों ने मिलकर सत्ता का ऐसा व्यूह रचा कि 1990 में हुए विधानसभा चुनाव के उम्मीदवार तक इनदोनों ने तय किए। इन दोनों के उपर तब टिकटों की हेराफेरी का आरोप भी लगा। लेकिन हुआ वही जो लालू चाहते थे। रामसुंदर दास जैसे मजबूत दावेदार को पीछे छोड़ते हुए लालू मुख्यमंत्री बने।
कहा जा सकता है कि यह लालू प्रसाद के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी, जो वाकई में न केवल लालू प्रसाद बल्कि पूरे बिहार की राजनीति को बदलकर रख देने वाला था। आरंभिक वर्षों में लालू प्रसाद को अपनी कुर्सी बचाने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ी। इसकी तीन वजहें रहीं। एक तो जगन्नाथ मिश्र के नेतृत्व में कांग्रेस लालू प्रसाद की सरकार को गिराने की कोशिशें लगातार कर रही थी। वहीं भाजपा जिसके समर्थन से लालू प्रसाद ने सरकार का गठन किया था, वह आरक्षण के सवाल पर बिदक चुकी थी। वहीं लालू भी यह समझते थे कि जिन संघियों ने उनके गुरु कर्पूरी ठाकुर की सरकार 1979 में गिराया, वे उन्हें बर्दाश्त नहीं करेंगे। फिर मंडल के विरुद्ध भाजपा के कमंडल प्रपंच ने यह साफ कर दिया कि लालू प्रसाद कौन सा रूख अख्तियार करेंगे। यह समय बाबरी विध्वंस का था। लालू प्रसाद ने खुद को सामाजिक न्याय के नेता के अलावा खुद को सबसे मजबूत धर्मनिरपेक्ष के रूप में साबित किया।
एक तरह से यह लालू प्रसाद के लिए परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने का दौर था। दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों के बल पर लालू प्रसाद ने 1995 में सफलता के झंडे गाड़ दिए। यह सफलता उन्हें इसके बावजूद मिली कि उनके सलाहकार और दाएं हाथ माने जाने वाले नीतीश कुमार उन्हें छोड़कर अलग हो चुके थे। लेकिन यह लालू प्रसाद की एकमात्र बड़ी सफलता साबित हुई। फिर शुरू हुए चारा घोटाला प्रकरण ने उन्हें बैकफुट पर जाने को मजबूर कर दिया और जिसका परिणाम यह हुआ कि वे अब कैदी हैं और फिलहाल जमानत पर बाहर हैं। चुनाव नहीं लड़ सकते। उनकी जगह उनकी पार्टी को उनके बेटे Tejashwi Yadav ने संभाल रखा है। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि लालू प्रसाद के राजनीतिक जीवन का सूर्यास्त हो चुका है।
अभी भी वे बिहार की राजनीति की धुरी हैं और आजीवन उनसे यह विशेषाधिकार कोई नहीं छीन सकता। न उनके विपक्षी और ना उनके पक्ष के लोग।”
~~नवल किशोर कुमार (हिंदी एडिटर, फॉरवर्ड प्रेस)
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