बिहार की राजनीति का नया नायक तेजस्वी यादव
– प्रेमकुमार मणि
बिहार में विधानसभा चुनावों के नतीजे आ गए हैं . कोरोना महामारी के भयपूर्ण वातावरण में यह चुनाव हुआ था ,जिसमें भाजपा-जेडीयू के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ( एनडीए ) और राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व वाले महागठबंधन के बीच सीधी लड़ाई थी . यूँ , और भी कई मोर्चे और दल जोर आजमाइश में लगे थे . कांटे की लड़ाई में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को मामूली बहुमत मिल गया है .
243 सीटों वाली विधानसभा में उसे 125 सीटें मिली हैं . महागठबंधन 110 पर है . राष्ट्रीय जनता दल की ओर से नतीजों को प्रभावित करने अर्थात फरेब की शिकायत चुनाव आयोग से की गई है . लेकिन राजनीति से जुड़े लोग इस बात को भली-भाँती जानते हैं कि ऐसे मामलों में क्या और कितना कुछ होता है . जो पराजित कर दिए जाते हैं ,वे न्यायालय जाते हैं और उनके मामले में फैसला तब आता है ,जब सदन का कार्यकाल समाप्त हो जाता है . जनतंत्र के इस खिलवाड़ से घाघ राजनेता परिचित होता है . वह जाने -अनजाने मैकियावेली की उस थीसिस से भी परिचित होता है, जिसमें उसने येनकेनप्रकारेण सत्ता हासिल करने की नसीहत दी है . पारम्परिक दुनिया में तो हार बस हार होती है , और जीत बस जीत .
लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मैकियावेली सोलहवीं सदी में था . वह समय का सामंतवादी दौर था . तब तक राजनीति में लोकतंत्र चिह्नित नहीं हुआ था . ‘ जो जीता वही सिकंदर ‘ का जमाना था . लेकिन अब उस दुनिया की विदाई हो चुकी है . लोकतान्त्रिक आधुनिक दुनिया में मैकियावेली का मुहावरा नहीं चलता, नहीं चलना चाहिए . आधुनिक संसदीय राजनीति में लोकलाज का महत्व होता हैं . यह महत्व जब छीजने लगता हैं तब राजनीति प्रदूषित और फलस्वरूप बदनाम होने लगती हैं . यही कारण है कि एनडीए के बिहारी मुखिया नीतीश कुमार बहुमत का आंकड़ा हासिल कर भी कोई गौरव अनुभव नहीं कर रहे हैं . कभी -कभार हार भी गरिमापूर्ण होती है और जीत भी गरिमाहीन . इस चुनाव में नीतीश चुनाव जीत कर भी निस्तेज दिख रहे हैं और तेजस्वी चुनाव हार कर भी नायक बन गए हैं .
बिहार चुनावों के मीडिया और दूसरे सर्वे पूर्वानुमान महागठबंधन की बढ़त दिखा रहे थे . इस आकलन का कारण संभवतः तेजस्वी की सभाओं में उमड़ता हुआ जनसैलाब था . तेजस्वी ने जम कर मिहनत की थी . एक दिन में उन्नीस-उन्नीस सभाएं कर क्रिकेट की तरह का रिकॉर्ड बनाया था . उन्होंने बिहार की जड़ राजनीति को कई स्तरों पर बदलने की कोशिश की . तीस वर्षों से बिहार की राजनीति में जात-पात का मुद्दा केंद्रीय तत्व बना हुआ था . बिना किसी मार्क्सवादी शब्दावली के तेजस्वी ने इसे इहलौकिक आधार दे दिया . चुनाव में दस लाख नौकरियों का वायदा कर चुनाव का व्याकरण इस तरह बदला कि भाजपा को भी झक मार कर उसे अपनाना पड़ा . कभी नीतीश कुमार की साईकिल योजना का मजाक लालू प्रसाद ने बच्चों को मोटर साईकिल देने के वायदे से उड़ाया था . दस लाख नौकरियां देने के वायदे को भाजपा ने उन्नीस लाख नौकरियां देने के वायदे से दबाने की कोशिश की . लेकिन तेजस्वी का जादू नौजवानों पर चल चुका था . इन सबसे रोजगार के सवाल चुनाव के केंद्र में आए . इसी के साथ स्वाभाविक रूप से युवा भी राजनीति के केंद्र बन गए . क्योंकि नौकरियों की दरकार इसी तबके को थी .
तेजस्वी ने बार -बार स्वास्थ्य ,शिक्षा और रोजगार के सवाल को आगे किया . उन्होंने राजद की अपनी पारम्परिक मंडलवादी सोच को किनारे किया और सामाजिक न्याय को आर्थिक न्याय से जोड़ कर उसे प्रगल्भ भी किया और गति भी दी . वह दो स्तरों पर लड़ रहे थे . बाहर में संघ परिवार से और अपने भीतर अपने ही परिवार से . राजद के पोस्टर उनके परिवार के चेहरों से भरे होते थे . इस चुनाव में केवल तेजस्वी का चेहरा दिखा . अपने परिवार को उन्होंने वाजिब जगह पर रख दिया . इसके लिए उन पर प्रश्न भी उछाले गए . उन्होंने इसे नजरअंदाज किया . उन्होंने अपनी विनम्रता और वाणी का संयम बनाए रखा . कभी प्रधानमंत्री मोदी या मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रति ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया ,जो असंसदीय हो . इसके विपरीत प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री ने ही उनके प्रति अभद्रता प्रदर्शित की . तेजस्वी ने इसे उनका आशीर्वाद कह कर उन्हें ही कठघरे में ला दिया .
तेजस्वी ने कुछ और भी प्रयोग किए . जातिवादी राजनीतिक संगठनों को दरकिनार कर उसने कम्युनिस्टों के साथ गठबंधन किया और इस नाते अपनी राजनीति को गरीब -गुरबों और मिहनतक़श अवाम के निकट ले गए . लेकिन , जैसा कि अब अधिक सही लगता हैं कि कांग्रेस को इतना अधिक महत्व देना महागठबन्धन को भारी पड़ गया . इसकी तरफ मैंने 24 अक्टूबर के एक लेख में (राष्ट्रीय सहारा ) इशारा किया था . इस दफा महागठबंधन की लुटिया यदि डूबी हैं तो इसके लिए केवल और केवल कांग्रेस जिम्मेदार हैं . मैंने 24 अक्टूबर के लेख में बतलाया था कि कांग्रेस के भीतर नीतीश के एजेंट विराजमान हैं . आज जब नतीजे सामने हैं ,यह बात सही प्रतीत होती है .
महागठबंधन को जैसा नुकसान कांग्रेस ने पहुँचाया ,लगभग वैसा और उतना ही नुकसान एनडीए ,खास कर नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू को चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोकजनशक्ति पार्टी ने पहुँचाया . लोकजनशक्ति पार्टी ने भाजपा के खिलाफ उम्मीदवार कुछ अपवादों को छोड़ कर नहीं दिए थे . लेकिन एनडीए के दूसरे घटक दल जेडीयू के हर उम्मीदवार के खिलाफ उसने उम्मीदवार उतारे . नतीजा हुआ कि भाजपा से पांच अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद जेडीयू अपने ही मित्र दल भाजपा से बहुत पीछे रह गई . एनडीए कैंप में भाजपा 110 सीटों पर लड़ कर 74 आई है और जेडीयू 115 सीटें लड़ कर 43 ही हासिल कर सकी है . हिंदुस्तानी अवाम पार्टी और विकासशील इंसान पार्टी को चार -चार सीटें हैं . महागठबंधन मोर्चे में 144 सीटें लड़ कर राजद ने 75 हासिल किया है ,जब कि 70 सीटें लड़ कर कांग्रेस महज 19 ला सकी . कम्युनिस्टों ने 29 सीटें लड़ कर 16 हासिल किया . कोई भी समझ सकता है कि महागठबंधन को पीछे करने में किसकी भूमिका है .
महागठबंधन और एनडीए के वोट शेयरिंग में बस 0 ,2 फीसद का अंतर है . एनडीए को 34 .9 और महागठबंधन को 34 .73 फीसद वोट मिले हैं . सबसे अधिक वोट राजद को मिले हैं . उसे कुल 9736242 वोट मिले ,जो गिनती के कुल वोटों का 23 .1 फीसद है . भाजपा को 8201408 वोट मिले जो मतदान का 19 .5 फीसद है .
इस चुनाव में मुख्यमंत्री जो भी हो , नायक के रूप में तेजस्वी उभर कर आए हैं . सब से अधिक चर्चा चिराग पासवान की हुई . यह अलग बात है कि उनकी पार्टी को विधानसभा में बस एक सीट मिल सकी. तेजस्वी की पार्टी राजद सबसे बड़ी पार्टी ,सब से अधिक वोट लेने वाली पार्टी और नतीजों के बाद सब से अधिक चर्चा में रहने वाली पार्टी बन कर उभरी है . यह चुनाव तेजस्वी बनाम अन्य का हो गया था . नतीजों ने भी इसी बात को रेखांकित किया है. वह बिहार की राजनीति के नए नायक बन गए हैं .
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यह लेख वरिष्ठ पत्रकार प्रेमकुमार मणि के निजी विचार है