आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का निहितार्थ
भारती की सवर्ण जातियां सोचती हैं कि दलित, आदिवासी और ओबीसी को आरक्षण उनका हक मार कर दिया जा रहा है, जबकि सच्चाई यह है कि एससी,एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण का प्रावधान तथाकथित उच्च जातियों के 100 प्रतिशत आरक्षण को तोड़ने या कम करने के लिए किया गया था।
100 प्रतिशत आरक्षण तोड़न के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया है, सिर्फ़ प्रावधान, व्यवहार में नहीं। ऐसा सोचने की जगह कमोवेश सुप्रीमकोर्ट की भी यही सोचता है कि यह तथाकथित उच्च जातियों के हकों को मारने का प्रावधान है, क्योंकि सुप्रीमकोर्ट में भी उच्च जातियों और उच्च जातियों की मानसिकता के लोग ही बहुलांशत: न्यायाधीश रहे हैं और हैं। वे कभी तमिलाडु में 50 प्रतिशत अधिक आरक्षण के खिलाफ फैसला देते हैं, तो कभी पदोन्नति में आरक्षण के खिलाफ फैसला देते हैं, कभी मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर फैसले को लटकाए रखते हैं, कभी ओबीसी को उच्च शिक्षा में आरक्षण पर वर्षों कुंडली मार कर बैठे रहते हैं, अब उन्होंने कह दिया है कि आरक्षण कोई मौलिक अधिकार नहीं है, बल्कि यह राज्यों ( सरकारों) की कृपा पर निर्भर है, वे चाहें दे या न दें।
एससी-एसटी और ओबीसी ने आरक्षण संघर्ष करके हासिल किया था, न कि उच्च जातियों ने उदारता पूर्वक इसे दिया था। इसका परिणाम यह होता है कि जब भी एससी-एसटी एवं ओबीसी का आंदोलन कमजोर पड़ता है, तब-तब उनसे उनका मिला एकमात्र छोटा सा हक छीनने की पुरजोर कोशिश की जाती है।
इस समय ओबीसी का बड़ा हिस्सा, दलितों का भी एक अच्छा-खासा हिस्सा और आदिवासियों की भी एक ठीक-ठाक आबादी उच्च जातियों के हिंदू राष्ट्र की परियोजना में उनका पिछलग्गू बन गई है और अपनी दलित, बहुजन और आदिवासी की पहचान को भूल चुकी है। उच्च जातियों के लिए यह सही अवसर है कि वे बहुजन पहचान के साथ किए गए संघर्षों से हासिल एससी. एसटी और ओबीसी के हकों को छीन लें।
दलित-बहुजनों के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली पार्टियां पहले ही समर्पण कर चुकी हैं, यह जग-जाहिर है।
ऐसे सुनहरे अवसर का इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट के उच्च जातीय और उच्च जातीय मानसिकता के न्यायाधीशों ने मौलिक अधिकार के रूप में आरक्षण के खात्मे के लिए किया।
लेकिन उच्च जातीय के वर्चस्व के विजय के उन्माद में चूर लोग यह भूल गए हैं, उन्होंने उन लोगों के हकों पर वार किया है, जिन्होंने 2 अप्रैल 2018 और उच्च शिक्षा में रोस्टर के प्रश्न पर उन्हें घुटने टेकने के लिए बाध्य कर दिया था।
फिर एक बार मुकाबला आमने-सामने का है, अंतिम जीत तो इस मामले में भी एससी, एसटी और ओबीसी की ही होगी,लेकिन संघर्ष फिर शायद सड़कों पर हो।
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