प्रसिद्धि की भूख, सुशांत सिंह राजपूत और जातिवादी राजनीति
प्रसिद्धि की बढ़ती भूख और पैसे कमाने की हवस इंसान से उसकी सुख, शांति और इंसानियत छीनती चली जाती है और वह एक ऐसे जानवर में तब्दील होता जाता है, जिसे जिंदा रहने के लिए नित नई प्रसिद्धि और पैसा चाहिए होता है।
सुशांत सिंह राजपूत के मोबाइल फोन और लैपटॉप की फार्सेनिक रिपोर्ट बताती है कि आत्महत्या से पहले वे गूगल पर अपना नाम कई बार ढूंढ रहे थे। वे भारत के पहले ऐसे एक्टर से जिन्होंने चांद पर जमीन खरीदी थी।
प्रसिद्धि के भूखे लोग जब मनचाही प्रसिद्धि नहीं पा पाते, तो उन्हें लगता है कि कुछ लोगों के चलते वे मनचाही प्रसिद्धि नहीं पा पा रहे हैं और ऐसे लोग उनके खिलाफ षड़यंत्र कर रहे हैं। इसमें कुछ सच्चाई भी हो सकती है। फिर वे हताशा का भी शिकार होते हैं और यह हताशा उन्हें आत्महत्या की ओर भी ले जा सकती है।
सुशांत सिंह मनोवैज्ञानिक तौर पर बीमार थे, इसकी पुष्टि उनका इलाज करने वाले डाक्टर ने भी की है। अब तक जितने तथ्य सामने आएं हैं, वे बताते हैं कि सुशांत सिंह राजपूत प्रसिद्धि की भयानक भूख के शिकार थे।
पूरी संभावना है, यही भूख उन्हें मौत की ओर ले गई हो।
मेरा देश जातिगत ताकत और व्यक्तिगत ताकत और अन्य ताकतों के मेल पर चलता है। बिहार में चुनाव होने हैं, सुशांत सिंह के नाम पर राजपूतों का वोट हासिल करने की होड़ बिहार की राजनीति में चल पड़ी है। मरने के बाद सुशांत सिंह को एक मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है।
ऐसे हो भी क्यों न? जब विकास दुबे का इस्तेमाल उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों को पटाने के लिए किया जा सकता है, तो सुशांत सिंह का क्यों नहीं, किया जाए। अकारण नहीं है कि डॉ. आंबेडकर ने हिंदुओं को एक बीमार कौम कहा था और इस बीमारी का कारण जाति बताया था।
यह लेख वरिष्ठ पत्रकार डॉ. सिद्धार्थ रामू के निजी विचार है।
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